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मरपा
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श्रावश्यक-दिग्दर्शन उठेगा। आध्यात्मिक शक्तिशाली महान् आत्माओ का स्मरण करना, वस्तुतः अाध्यात्मिक बल के लिए अपनी आत्मा के किवाड खोल देना है । तीर्थकर देव ज्ञान की अपार ज्योति से ज्योतिमय हैं, जो भी साधक इनके पास आयगा, इन्हें स्मृति में लायगा, वह अवश्य ज्योतिर्मय बन जायगा । संसार की मोह माया का अन्धकार उसके निकट कदापि कथ'मपि नहीं फटक सकेगा । 'याहशी दृष्टि स्तादृशी सृष्टिः ।। __ भगवत्स्तुति अंतःकरण का स्नान है। उससे हमें स्फूर्ति, पवित्रता और बल मिलता है। भगवत्स्तुति का अर्थ है उच्चनियमों, सद्गुणों एवं उच्च श्रादशों का स्मरण । ___एक बात यहाँ स्पष्ट करने योग्य है । वह यह कि जैन धर्म वैज्ञानिक धर्म है। उसमें काल्लनिक श्रादों के लिए जरा भी स्थान नहीं है । अतः यहाँ प्रार्थना का लम्बा चौड़ा जाल नहीं बिछा हुआ है। और न जैन धर्म का विश्वास ही है कि कोई महापुरुष किसी को कुछ दे सकते हैं । हम महापुरुषो को केवल निमित्त मात्र मानते हैं। उनसे हमें केवल आध्यात्मिक विकास के लिए प्रेरणा मिलती है । ऐसा नहीं होता कि हम स्वयं कुछ न करें और केवल प्रार्थना से सन्तुष्ट परमात्मा हमे अभीष्ट सिद्धि प्रदान करदे । जो लोग भगवान् के सामने गिडगिड़ा कर प्रार्थना करते हैं कि-'भगवन् ! हम पापी हैं, दुराचारी हैं, तू हमारा उद्धार कर, तेरे बिना हम क्या करें ?? वे जैन धर्म के प्रति निधि नही हो सकते । स्वयं उठने का यत्न न करके केवल भगवान् से उठाने की प्रार्थना करना सर्वथा निरर्थक है। इस प्रकार की विवेकशून्य प्रार्थनाओं ने तो मानव जाति को सब प्रकार से हीन, दीन एवं नपुंसक बना दिया है। सदाचार की मर्यादा को ऐसी प्रार्थनामो से बहुत गहरा धक्का लगा है। हजारो लोग इन्हीं प्रार्थनाओं के भरोसे परमात्मा को अपना भावी उद्धारक समझ कर मोद मनाते रहते हैं और कभी भी स्वयं पुरुषार्थ के भरोसे सदाचार के पथ पर अग्रसर नहीं होते । अतएव जैन धर्म क्रियात्मक साधना पर जोर देता है। वह भगवान के स्मरण को