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वन्दन आवश्यक देव के बाद गुरु का नम्बर है । तीर्थकर देवो के गुणों का उत्कीर्तन करने के बाद अब -साधक 'गुरुदेव को वन्दन करने की ओर झुकता है। गुरुदेव को वन्दन करने का अर्थ है-गुरुदेव का स्तवन और अभिवादन मन, वचन, और शरीर का वह प्रशस्त व्यापार, जिस के द्वारा गुरुदेव के प्रति भक्ति और बहुमान प्रकट किया जाता है, वन्दन कहलाता है । प्राचीन आवश्यक नियुक्ति आदि ग्रन्थो में वन्दन के चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म श्रादि पर्याय प्रसिद्ध हैं।
१-संस्कृत एवं प्राकृत भाषा में 'गुरु' भारी को कहते हैं, अतः जो अपने से अहिंसा, सत्य आदि महाव्रतरूप गुणों में भारी हो, वजनदार हो, वह सर्व विरति साधु, भले वह स्त्री हो या पुरुष, गुरु कहलाता है । इस कोटि में गणधर से लेकर सामान्य साधु साध्वी सभी संयमी जनो का अन्तर्भाव हो जाता है।
आचार्य हेमकीर्ति ने कहा है कि जो सत्य धर्म का उपदेश देता है, वह गुरु है। 'गृणाति-कथयति सद्धर्मतत्वं स गुरुः ।' तीर्थंकर देवो के नीचे गुरु ही सद्धर्म का उपदेष्टा है। २ 'वदि' अभिवानस्तुत्योः, इति कायेन अभिवादने वाचा स्तवने ।'
-आवश्यक चूर्णि