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घन्दन अावश्यक
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(१) जिस सिक्के पर मुहर तो ठीक लगी हो, परन्तु मूलतः चॉदी अशुद्ध हो, वह सिक्का भी ग्राह्य नही माना जाता, उसी प्रकार भावचारित्र से हीन केवल द्रव्य लिङ्गी साधु, वस्तुतः कुसायु ही है, अतः वे साधक के द्वारा सर्वथा अवन्दनीय होते हैं। मूल ही नहीं तो व्याज कैसा ? अन्तरङ्ग मे भावचारित्र के होने पर ही बाह्य द्रव्य क्रिया काण्ड एवं वेष आदि उपयोगी हो सकते हैं, अन्यथा नहीं।
(३) जिस सिक्के की चॉदी भी अशुद्ध हो और मुहर भी ठीक न हो, वह निक्का तो बाजार में किञ्चित् भी आदर नहीं पाता, प्रत्युत दिखाते ही फेक दिया जाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति न भावचारित्र की साधना करता हो और न बाह्य की ही, वह भी आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में अादरणीय नहीं माना जाता ।
(४) जिस सिक्के की चाँदी भी शुद्ध हो, और उस पर मुहर भी बिल्कुल ठीक लगी हो, वह सिक्का सर्वत्र अव्याहत गति से प्रसार पता है, उसका कहीं भी निरादर तथा तिरस्कार नहीं होता। इसी प्रकार जो मुनि द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार के चारित्र से सम्पन्न हों, जो अपनी यात्मसाधना के लिए अन्दर तथा बाहर से एकरूप हों, वे मुनि ही साधना-जगत में अभिवंदनीय माने गये हैं। उन्हीं से साधक कुछ यात्म कल्याण की शिक्षा ग्रहण कर सकता है। वन्दन आवश्यक की साधना के लिए ऐसे ही गुरुदेवों को वन्दन करने की आवश्यकता है।
सुट्टतरं नासंती
अपाणं जे चरित्तपन्भवा । गुरुजण वंदाविती
सुसमण जहुत्तकारि च ॥१११०॥
--जो चारित्रभ्रष्ट लोग अपने को यथोक्तकारी, गुणश्रेष्ठ साधक से धन्दा कराते हैं और सद् गुरु होने का ढोंग रचते हैं, वे अपनी आत्मा पा सर्वथा नाश कर डालते हैं।
पन सर्वथान और सद् गुरुहान को यथोक्तकारी, मावश्यक नियुक्ति