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प्रतिक्रमण आवश्यक जो पापमन से, वचन से और काय से स्वयं किए जाते हैं, दूसरों से कराए जाते हैं, एवं दूसरों के द्वारा किए हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, इन सब पानों की निवृत्ति के लिए कृत पापों की आलोचना करना, निन्दा करना प्रतिक्रमण है।
प्राचीन जैन-परम्परा के अनुसार प्रतिक्रमण का व्याकरणसम्मत निर्वचन है कि-'प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणम्, अयमर्थः-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एव क्रमणात्प्रतीपं क्रमणम् ।' आचार्य हेमचन्द्र ने योग शास्त्र के तृतीय प्रकाश की स्वोपज्ञ वृत्ति में यह व्युत्पत्ति की है। इस का भाव यह है कि शुभयोगों से अशुभ योगों में गए हुए अपने आपको पुनः शुभयोगो में लौटा लाना, प्रतिक्रमण है।
प्राचार्य हरिभद्र ने भी आवश्यक सूत्र की टीका में प्रतिक्रमण की व्याख्या करते हुए तीन महत्वपूर्ण प्राचीन श्लोक कथन किए हैं:
स्वस्थानाद् यत्परस्थानं,
प्रमादस्य वशाद् गतः। तत्रैव क्रमणं भूयः
प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ -प्रमादवश शुभ योग से गिर कर अशुभयोग को प्राप्त करने के बाद फिर से शुभयोग को प्राप्त करना, प्रतिक्रमण है।