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अावश्यक-दिग्दर्शन
वन्दन आवश्यक का यथाविधि पालन करने से विनय' की प्राप्ति होती है, अहंकार अर्थात् गर्व का (आत्म गौरव का नहीं) नाश होता है, उच्च आदर्शों की झॉकी का स्पष्टतया भान होता है, गुरुजनों की पूजा होती है, तीर्थकरों की आज्ञा का पालन होता है, और श्रुत धर्म की आराधना होती है। यह भ्रत धर्म की आराधना आत्मशक्तियों का क्रमिक विकास करती हुई अन्ततोगत्वा मोक्ष का कारण बनती है। भगवती सूत्र में रतलाया गया है कि--'गुरुजनो का सतसंग करने से शास्त्र श्रवण का लाभ होता है। शास्त्र श्रवण से ज्ञान होता है, ज्ञान से विज्ञान होता है, और फिर क्रमशः प्रत्याख्यान, संयम, अनाश्रय, तप, कर्मनाश, अक्रिया अथच सिद्धि का लाभ होता है।' सवणे णाणे य विएणाणे,
पच्चक्खाणे य संजमे । अणएहए
तवे चेष, वोदाणे अकिरिया सिद्धी ।।
-[भग० २।५ । ११२] गुरु वन्दन की क्रिया बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है। साधक को इस ओर उदासीन भाव न रखना चाहिए । मन के कण-कण मे भक्ति भावनाका विमल स्रोत बहाये बिना वन्दन द्रव्य वन्दन हो जाता है, और वह साधक के जीवन में किसी प्रकार की भी उत्क्रान्ति नहीं ला सकता। जिस वन्दन की पृष्ठ भूमि मे भय हो, लज्जा हो, ससार का कोई स्वार्थ हो, वह कभी-कभी आत्मा का इतना पतन करता है कि कुछ पूछिए नहीं। १-विण ओवयार माणस्स
भंजणा पूयणा गुरुजणस्त । तित्थयराण य आणा, . सुयधम्मागहणा 5 किरिया ॥
-आवश्यक नियुक्ति १२१५ ।।