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सामायिक आवश्यक श्रतएव जीने में, मरने में, लाभ में, अलाभ में, संयोग में, वियोग में, चन्धु मे, शत्रु में, सुख में, दुःख में क्यों हर्ष शोक करूँ ? मुझे तो अच्छे-बुरे सभी प्रसंगों पर समभाव ही रखना चाहिए । हानि और लाभ, जीवन और मरण, मान और अपमान, शत्रु और मित्र श्रादि सभी कर्मोदयजन्य विकार हैं। वस्तुतः निश्चय नय की दृष्टि से इनके साथ मेरा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।
भाव-सामायिक के सम्बन्ध में भगवान् महावीर एवं प्राचीन जैनाचार्यों ने बडा ही सुन्दर निरूपण किया है। विस्तार में जाने का तो इधर अवकाश नहीं है, हॉ, संक्षेप में उनके विचारों की झॉकी दिखा देना आवश्यक है। 'आया सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ट ।'
-भगवती सूत्र १ ।। वस्तुतः अपने शुद्ध स्वरूप में रहा हुआ आत्मा ही सामायिक है। सामायिक का प्रयोजन भी शुद्ध, बुद्ध, मुक्त चिच्चमत्कार स्वरूप प्रापतत्त्व की प्राप्ति ही है। सावज - जोग - चिरओ
तिगुत्तो छसु संजओ। उपउत्तो जयमाणो आया सामाइयं होई॥
-आवश्यक नियुक्ति -जब साधक सावद्य योग से विरत होता है, छ: काय के जीवों के प्रति संयत होता है, मन, वचन एवं काय को एकाग्र करता है, स्व-स्वरूप मे उपयुक्त होता है, यतनर में विचरण करता है, वह (नात्मा) सामायिक है।
'सममेकत्वेन श्रात्मनि श्रायः भागमन परद्रव्येभ्यो निवृत्य उपयोगस्य आत्मनि प्रवृत्तिा समाया, आत्मविषयोपयोग