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श्रमण-धर्म
रहते हैं और जनता में भी सुख का प्रवाह बहाते हैं । परन्तु जब उक्त व्रत का यथार्थ रूप से पालन नहीं होता है तो समाज मे बडा भयंकर हाहाकार मचजाता है । अाज समाज की जो दयनीय दशा है, उसके मूल में यही आवश्यकता से अधिक संग्रह का विष रहा हुआ है। आज मानव-समाज मे जीवनोपयोगी सामग्री का उचित पद्धति से वितरण नहीं है । किसी के पास सैकडों मकान खाली पड़े हुए हैं तो किसी के पास रात में सोने के लिए एक छोटी-सी झोपडी भी नहीं हैं। किसी के पास अन्न के सकडों कोठे भरे हुए हैं तो कोई दाने-दाने के लिए तरसता भूखा मर रहा है। किसी के पास सदूको में बंद सैकडों तरह के वस्त्र सड रहे हैं तो किसी के पास तन ढॉपने के लिए भी कुछ नहीं है । श्राज की सुख सुविधाएँ मुट्ठी भर लोगों के पास एकत्र हो गई हैं और शेष समाज प्रभाव से ग्रस्त है । न उसकी भौतिक उन्नति ही हो रही है और न आध्यात्मिक । सब ओर भुखमरी की महामारी जनता का सर्व ग्रास करने के लिए मुंह फैलाए हुए है। यदि प्रत्येक मनुष्य के पास केवल उसकी आवश्यकताओं के अनुरूप ही सुख-सुविधा की साधन-सामग्री रहे तो कोई मनुष्य भूखा, गृहहीन एवं असहाय न रहे । भगवान् महावीर का अपरिग्रहवाद ही मानव जाति का कल्याण कर सकता है, भूखी जनता के ऑसू पोंछ सकता है।
भगवान् महावीर ने गृहस्थो के लिए मर्यादित अपरिग्रह का विधान किया है, परन्तु भिक्षु के लिए पूर्ण अपरिग्रही होने का । भित्तु का जीवन एक उत्कृष्ट धर्म जीवन है, अतः वह भी यदि परिग्रह के जाल में फैसा रहे तो क्या खाक धर्म की साधना करेगा ? फिर गृहस्थ ओर भिक्षु मे अन्तर ही क्या रहेगा?
। जैन धर्म ग्रन्थों में परिग्रह के निम्न लिखित नौ भेद किए हैं। गृहस्थ के लिए इनकी अमुक मर्यादा करने का विधान है और भिक्षु के लिए पूर्ण रूप से त्याग करने का।
(१) क्षेत्र-जगल मे खेती बाड़ी के उपयोग में आने वाली धान्य