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श्रावश्यक दिग्दर्शन अन्तो अहो-निसस्स य
तम्हा आवस्सयं नाम । (२) भापाश्रयो वा इदं गुणानाम्, प्राकृतशैल्या पावस्सय । प्राकृत भाषा में आधार वाचक श्रापाश्रय शब्द भी 'श्रावस्सय' कहलाता है। जो गुणों की अाधार भूमि हो, वह प्रावस्सय-यापाश्रय है । आवश्यक श्राध्यात्मिक समता, नम्रता, अात्मनिरीक्षण प्रादि सद्गुणों का अाधार है; अतः वह पापाय भी कहलाता है।
(३) गुणानां वश्यमात्मानं करोतीति ।' जो अात्मा को दुगुणों से हटा कर गुणों के आधीन करे, वह आवश्यक है। श्रावश्य, श्रावश्यक ।
(४) गुणशून्यमात्मानं गुणरावासयतीति श्रावासकम् । गुणों से शुन्य श्रात्मा को जो गुणों से वासित करे, वह यावश्यक है । प्राकृत मे श्रावासक भी 'श्रावस्सय' बन जाता है । गुणों से श्रात्मा को वासित ' - करने का अर्थ है-गुणों से युक्त करना।
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१'ज्ञानादिगुणानाम् आसमन्ताद् वश्या इन्द्रिय-कपायादिभावशत्रवो यस्मात् तद् श्रावश्यकम् । प्राचार्य मलयगिरि कहते हैं कि इन्द्रिय
और कपाय श्रादि भाव-शत्रु जिस साधना के द्वारा ज्ञानादि गुणो के वश्य किए जायें, अर्थात् पराजित किए जायें, वह श्रावश्यक है । अथवा ज्ञानादि गुण समूह और मोक्ष पर जिस साधना के द्वारा अधिकार किया जाय, वह आवश्यक है । 'ज्ञानादि गुण कदम्बकं मोक्षो वा श्रासमन्ताद् वश्यं क्रियतेऽनेन इत्यावश्यकम् ।।
‘दिगंबर जैनाचार्य बहकेर मूलाचार में कहते हैं कि जो साधक राग, द्वेष, विषय, कषायादि के वशीभूत न हो वह अवश कहलाता है, उस अवश का जो श्राचरण है, वह आवश्यक है।
'ण वसो अवसो, अवसस्स कम्ममावासयत्ति बोधवा ।'