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- द्रव्य और भाव अावश्यक ८६ जिणाणमणाणाए सच्छंदं हिरिऊण उभनो कालं आवस्सयस्स उवहाति; से तं लोगुत्तरियं दवावस्सयं ।"
भाव अावश्यक का अर्थ है-अन्तरंग उपयोग के साथ, लोक तथा परलोक की वासना रहित, यश कीर्ति सम्मान श्रादि की अभिलाषा से शून्य, मन वचन शरीर को निश्चल, निष्प्रकम्प, एकाग्र बना कर, श्रावश्यक की मूल भावना मे उतर कर, दिन और रात्रि के जीवन मे जिनाशा के अनुसार विचरण कर आवश्यक सम्बन्धी मूल-पाठों के अर्थों पर चिन्तन, मनन, निदिध्यासन करते हुए, केवल निजात्मा को कर्ममल से विशुद्ध बनाने के लिए जो दोनों काल सामायिक, आदि की साधना की जाती है, वह भाव आवश्यक होता है। ____ यह भाव आवश्यक ही यहाँ आवश्यकत्वेन अभिमत है । इसके विना श्रावश्यक क्रिया प्रात्म-विशुद्धि नहीं कर सकती । यह भाव अावश्यक-ही वस्तुतः योग है। योग का अर्थ है-'मोसेए योजनाद् योगः ' वाचक यशो विजय जी, ज्ञान सार में कहते हैं जो मोक्ष के साथ योजनसम्बन्ध कराए, वह योग कहलाता है। भाव आवश्यक में हम साधक लोग, अपनी चित्तवृत्ति को ससार से हटा कर मोक्ष की ओर केन्द्रित करते है, अतः वह ही वास्तविक योग है । प्राणायाम आदि हठयोग के हथकंडे केवल शारीरिक व्यायाम है, मनोरंजन है, वह हमें मोक्ष स्वरूप की झॉकी नहीं दिखा सकता।
भाव अावश्यक का स्वरूप, अनुयोग द्वार सूत्र में देखिए :
"नं णं इमे समणों वा समणी वा, सावो वा, साविया वा तच्चित्ते, तम्मणे, तल्लेसे, तदभवसिए, तत्तिव्यज्झरसाणे, तदहोवउत्ते, तदप्पियकरणे, तभावणाभारिए, अन्नत्य कथइ म अकरमाणे उभो काल श्रावस्सायं करेंति से तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं।"