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द्रव्य और भाव आवश्यक , जैन-दर्शन में द्रव्य और भाव का बहुत गंभीर एवं सूक्ष्म चिन्तन किया गया है। यहाँ प्रत्येक साधना एवं प्रत्येक विचार को द्रव्य और भाव के भेद से देखा जाता है। बहिष्टि वाले लोग द्रव्य प्रधान होते हैं, जब कि अन्तदृष्टि वाले लोग भाव प्रधान होते हैं ।
द्रव्य आवश्यक का अर्थ है-अन्तरंग उपयोग के विना, केवल पर- , परा के श्राधार पर, पुण्य-फल की इच्छा रूप द्रव्य आवश्यक होता है । द्रव्य का अर्थ है-प्राणरहित शरीर । विना प्राण के शरीर केवल दृश्य वस्तु है, गति शील नहीं। यावश्यक का मूल पाठ विना उपयोगविचार के बोलना, अन्यमनस्क होकर स्थूल रूप मे उठने बैठने की विधि करना, अहिंसा, सत्य आदि सद्गुणों के प्रति निरादर भाव रखकर केवल अहिंसा ,यादि शब्दों से चिपटे रहना, द्रव्य अावश्यक है। दिन और रात बे-लगाम घोडों की तरह उछलना, निरंकुश हाथियों की तरह जिनाज्ञा से बाहर विचरण करना, और फिर प्रातः सायं श्रावश्यक सूत्र के पाटों की रटन क्रिया में लग जाना, द्रव्य नहीं तो क्या है ? विवेकहीन साधना अन्त जीवन में प्रकाश नहीं देसकती। यह द्रव्य आवश्यक साधना-क्षेत्र में उपयोगी नहीं होता । अतएव अनुयोग द्वार सूत्र में कहा है
"जे इमे समणगुणमुक्कजोगी, छक्काय निरुणुकंपा, हया इव बहामा, गया व निरंकुना, घट्टा, मट्ठा, तुप्पोट्टा, पंडुरपडपाउरणा,