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श्रावश्यक दिग्दर्शन . (३) गुणवत्प्रतिपत्ति-अहिंसादि पाँच महाव्रतो के धर्ता संयमी गुणवान् हैं, उनकी वन्दनादि के द्वारा उचित प्रतिपत्ति करना, गुणवत्प्रतिपत्ति है । यह वन्दन आवश्यक है।
(४) स्खलित निन्दना-संयम-क्षेत्र में विचरण करते हुए साधक से प्रमादादि के कारण स्खलनाएँ हो जाती हैं, उनकी शुद्ध बुद्धि से संवेग की परमोत्तम भावना में पहुँच कर निन्दा करना, स्खलितनिन्दना है। दोप को दोष मान लेना ही वस्तुतः प्रतिक्रमण है।
(५) व्रणचिकित्सा-कायोत्सर्ग का ही दूसरा नाम व्रणचिकित्सा है। स्वीकृत चारित्र-साधना में जब कभी अतिचाररूप दोष लगता है तो वह एक प्रकार का भावव्रण (घाव) हो जाता है। कायोत्सर्ग एक प्रकार का प्रायश्चित्त है, जो उस भावव्रण पर चिकित्सा का काम देता है।
(६)गुणधारणा-प्रत्याख्यान का दूसरा पर्याय गुणधारणा है। कायोत्सर्ग के द्वारा भावव्रण के ठीक होते ही साधक का धर्म-जीवन अपनी उचित स्थिति में आ जाता है। प्रत्याख्यान के द्वारा फिर उस शुद्ध स्थिति को परिपुष्ट किया जाता है, पहले की अपेक्षा और भी अधिक बलवान बनाया जाता है। किसी भी त्यागरूप गुण को निरतिचार रूप से धारण करना गुणधारणा है।