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'श्रमण' शब्द का निर्वचन
७७ न स्वयं हिंसा करता है, न दूसरों से करवाता है और न किसी प्रकार का हिंसा का अनुमोदन ही करता है, अर्थात् सभी प्राणियों में समत्व-बुद्धि रखता है, वह श्रमण है।
मूल-सूत्र में 'सममणइ' शब्द पाया है, उसकी व्याख्या करते हुए मलधारगच्छीय प्राचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं-सममणति ति-सर्वजीवेषु तुल्यं वर्तते यतस्तेनासौ समणइति ।' अण धातु वर्तन अर्थ में है,
और सम् उपसर्ग तुल्यार्थक है । अतः जो सब जीवों के प्रति सम् अर्थात् समान श्रणति अर्थात् वर्तन करता है, वह समण कहलाता है।
स्थि य से कोइ वेसो
पित्रो अ सव्वेसु चेव जीवेसु । एएण होइ समणो,
एसो अन्नो वि पज्जाओ ।।२।। • -जो किसी से द्वष नहीं करता, जिसको सभी जीव समानभाव से प्रिय हैं, वह श्रमण है । यह श्रमणं का दूसरा पर्याय है।
आचार्य हेमचन्द्र उक्त गाथा के 'समण' शब्द का निर्वचन 'सममन' करते हैं। जिसका सब जीवो पर सम अर्थात् समान मन अर्थात् हृदय हो वह सममना कहलाता है। आप प्रश्न कर सकते हैं कि यहाँ तो मूल मे 'समण' शब्द है, एक मकार कहाँ चला गया ? प्राचार्य उत्तर देते हैं कि निरुक्त विधि से सममन के एक मकार का लोप हो गया है। प्राचार्य श्री के शब्दो में ही देखिए, प्रस्तुत गाथा की व्याख्या का उत्थान और उपसंहार । तदेव सर्वजीवेयु समत्वेन सममणतीति समण इत्येक पर्यायो दर्शितः। एवं समं मनोऽस्येति सममना इत्यन्योऽपि पर्यायो भवत्येवेति दर्शयन्नाह ..........." सर्वेष्वपि जीवेषु सममनस्त्वाद, अनेन भवति स मनोऽस्येति निरुक्रविधिना समना इत्येषोऽन्योपि पर्यायः
तो समणो जइ सुमणो, . . . भावेण जइ ण होइ पाव-मणो ।