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श्रावश्यक दिग्दर्शन अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है । सुख-दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तर दायी है ।
(२) समन का अर्थ है- समता भाव, अर्थात् सभी को आत्मवत् समझना, सभी के प्रति समभाव रखना । दूसरों के प्रति व्यवहार की कसौरी ग्रात्मा है । जो बात अपने को बुरी लगती है, वह दूसरों के लिए भी बुरी है। 'प्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् -~यही हमारे व्यवहार का आधार होना चाहिए । समाज-विज्ञान का यही मूलतत्त्व है कि किसी के प्रति राग था द्वेष न करना, शत्रु और मित्र को बराबर समझना, जात पात तथा अन्य भेदो को न मानना ।
(३) शमन का अर्थ है अपनी वृत्तियो को शान्त रखना। [ मनुष्य का जीवन ऊँचा-नीचा अपनी वृत्तियो के अनुसार ही होता है । अकुशल वृत्तियाँ यात्मा का पतन करती हैं और कुशल वृत्तियाँ उत्थान | अकुशल अर्थात् दुवृत्तियों को शान्त रखना, और कुशल वृत्तियों का विकास करना ही श्रमण साधना का परम उद्देश्य है-लेखक] ___ इस प्रकार व्यक्ति तथा समाज का कल्याण श्रम, सम, और शम इन तीनों तत्वों पर आश्रित है । यह 'समण' संस्कृति का निचोड है। श्रमण संस्कृति इसका संस्कृत मे एकाङ्गी रूपान्तर है।" . अनुयोग द्वार सूत्र के उपक्रमाधिकार में भाव-सामायिक का निरूपण करते हुए श्रमण शब्द के निर्वचन पर भी प्रकाश डाला है। इस • प्रसंग की गाथाएँ बडी ही भावपूर्ण हैंजह मम न पियं दुक्खं।
जारिणय एमेव सव्व-जीवाणं । न. हणइ न हणावेइ य,
सममणइ तेण सो समणो ॥१॥ -~-~-'जिस प्रकार मुझे दुःख अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार संसार __ के अन्य सब जीवों को भी अच्छा नहीं लगता है।' यह समझ कर जो