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'श्रमण' शब्द का निवचन
७६ प्रश्न करने पर भगवान् ने उक्त शब्दों की विभिन्न रूप से अत्यन्त सुन्दर भाव-प्रधान व्याख्या की है । .
लेखक का मन उक्त सभी नामों पर भगवान् की वाणी का प्रकाश डालना चाहता है, परन्तु यहाँ मात्र श्रमण शब्द के निर्बचन का ही प्रसंग है, अतः इनमें से केवल श्रमण शब्द की भावना ही भगवान् महावीर के प्रवचनानुसार स्पष्ट की जा रही है।
-"जो साधक शरीर आदि मे श्रासक्ति नहीं रखता है, किसी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं करता है, किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता है, झूठ नहीं बोलता है, मथुन और परिग्रह के विकार से भी रहित है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि जितने भी कर्मादान और श्रात्मा के पतन के हेतु हैं, सब से निवृत्त रहता है, इसी प्रकार जो इन्द्रियों का विजेता है, संयमी है, मोक्ष मार्ग का सफल यात्री है, शरीर के मोह ममत्त्व से रहित है, वह श्रमण कहलाता है।"
१ भगवान महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन स्वरूप उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही कहा है कि केवल मुण्डित होने मात्र से श्रमण नहीं होता, श्रमण होता है समता की साधना से । 'न वि मुदिएण समणो' 'समयाए समणो होइ ।।
करुणा मूर्ति तथागत बुद्ध ने भी धम्म पद के धम्मट्ठ वग्ग में श्रमण शब्द के निर्वचन पर कुछ ऐसा ही प्रकाश डाला है
न मुण्डकेन समणो अब्बतो अलिक भणं । इच्छालोभसमापन्नो समणो कि भविस्सति ॥॥
-जो व्रत-हीन है, जो मिथ्याभापी है, वह मुण्डित होने मात्र से भमण नहीं होता । इच्छालोभ से भरा (मनुष्य) क्या श्रमण बनेगा ?
यो च समेति पापानि अणु थूलानि सब्बसो। समितत्ता हि पापानं समणो' ति पवुच्चति ॥ १०॥
-जो सब छोटे-बड़े पाप का शमन करता है, उसे पापों का शमन-कर्ता होने के कारण से श्रमण कहते हैं।
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