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श्रावश्यक दिग्दर्शन
(६) भविष्य के काम भोगी की चिन्ता करना। (१०) परस्पर रतिकर्म अर्थात् सम्भोग करना ।
जैन भितु उक्त सब प्रकार के मैथुनो का पूर्ण त्यागी होता है। यह मन, वचन और शरीर से न स्वयं मैथुन का सेवन करता है, न दूसरों से सेवन करवाता है, और न अनुमोदन ही करता है। जैन भिन्तु, एक दिन की जन्मी हुई बच्ची का भी स्पर्श नहीं कर सकता। उस के स्थान पर रात्रि को कोई भी स्त्री नहीं रह सकती। भिक्षु की माता और बहन को भी रात्रि में रहने का अधिकार नहीं है। जिस मकान में स्त्री के चित्र हों उसमें भी भिन्तु नहीं रह सकता है। यही बात साध्वी के लिए पुरुषों के सम्बन्ध में है। __एक प्राचार्य चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत के २७ मंग बतलाते हैं । देवता सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी और तिर्यञ्च-सम्बन्धी तीन प्रकार का मैथुन है । उक्त तीन प्रकार का मथुन न मन से सेवन करना, न मन से सेवन करवाना, न मन से अनुमोदन करना, ये मनः सम्बन्धी ६ भंग होते हैं । इसी प्रकार वचन के ६, और शरीर के ६, सब मिलकर २७ भंग होते हैं । महाव्रती साधक को उक्त सभी भंगो का निरतिचार पालन करना होता है।
अपरिग्रह महाव्रत धन, सम्पत्ति, भोग-सामग्री आदि किसी भी प्रकार की वस्तुओं का ममत्व-मूलक संग्रह करना परिग्रह है। जब मनुष्य अपने ही भोग के लिए स्वार्थ बुद्धि से आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है तो यह परिग्रह बहुत ही भयंकर हो उठता है । आवश्यकता की यह परिभाषा है कि आवश्यक वह वस्तु है, जिसके विना मनुष्य की जीवन यात्रा, सामाजिक मर्यादा एवं धार्मिक क्रिया निर्विघ्नता-पूर्वक न चल सके । अर्थात् जो सामाजिक, आध्यात्मिक एवं नैतिक उत्थान में साधन-रूप से आवश्यक हो। जो गृहस्थ इस नीति मार्ग पर चलते हैं, वे तो स्वयं भी सुखी