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श्रमण धर्म
निरन्तर ऊर्ध्वमुखी विकास करता रहे तो अन्त में वह चौदहवें गुणस्थान की भूमिका पर - पहुँच जाता है और फिर सदा काल के लिए अजर, अमर, सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त हो जाता है। जैन-साहित्य में साधुजीवन सम्बन्धी प्राचार-विचार का बड़े विस्तार के साथ वर्णन कि गया है। ऐसा सूक्ष्म एवं नियम-बद्ध वर्णन अन्यत्र मिलना असंभव है। यही कारण है कि आज के युग में जहाँ दूसरे संप्रदाय के साधुओं क नैतिक पतन हो गया है, किसी प्रकार का संयम ही नहीं रहा है, वहाँ जन-साधु अब भी अपने सयम-पथ पर चल रहा है । आज भी उसके संयम जीवन की झॉकी के दृश्य प्राचारांग, सूत्र. कृतांग, एवं दशवैकालिक आदि सूत्रों में देखे जा सकते हैं । हजारों वर्ष पुरानी परंपरा को निभाने में जितनी दृढता जैन-साधु दिखा रहा है, उसके लिए जैन-सूत्रों का नियमबद्ध वर्णन ही धन्यवादाह है। ।
• श्रागम-साहित्य में जन-साधु की नियमोपनियम-सम्बन्धी जीवनचय का अतीव विराट एवं तलस्पर्शी वर्णन है। विशेष जिज्ञासुनो को उसी आगम-साहित्य से अपना पवित्र सम्पर्क स्थापित करना चाहिए । यहाँ हम सक्षेप में पॉच महाव्रतों' का परिचय मात्र दे रहे हैं । श्राशा है, यह हमारा' क्षुद्र उपक्रम. भी पाठकों की ज्ञान-वृद्धि एवं सच्चरित्रता में सहायक हो सकेगा।
अहिंसा महाव्रतमन, वाणी एवं शरीर से काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा भय आदि की दूषित मनोवृत्तियों के साथ किसी भी प्राणी को शारीरिक एवं मानसिक आदि किसी भी प्रकार की पीडा या हानि पहुँचाना, हिंसा है । १-आचरितानि महभिर ।
यच्च महान्तं प्रसाधयन्त्यर्थम् । स्वयमपि महान्ति यस्मान महाव्रतानीत्यतस्तानि।।
-आचार्य शुभचन्द्र