________________
- ६०
आवश्यक दिग्दर्शन
कहीं छिद्रमात्र भी नहीं रहा है । हिंसा तो क्या, हिंसा की गन्ध भी प्रवेश नहीं पा सकती ।
एक जैनाचार्य ने बालजीवो को हिंसा का मर्म समझाने के लिए प्रथम महाव्रत के ८१ भंग वर्णन किये हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पंचेन्द्रिय-- ये नौ प्रकार के संसारी जीव हैं । उनकी न मन से हिंसा करना, न मन से हिंसा कराना, न मन से हिंसा का अनुमोदन करना । इस प्रकार २७ भंग होते हैं । जो बात मन के सम्बन्ध में कही गई है, वही बात वचन और शरीर कें के सम्बन्ध में भी समझ लेनी चाहिये । 'हॉ, तो मन के २७, वचन २७, और शरीर के २७, सब मिल कर ८१ भंग हो जाते हैं । जैन साधु की हिंसा का यह एक संक्षिप्त एवं लघुतम वर्णन है । परन्तु यह वर्णन भी कितना महान् और विराट है ! इसी वर्णन के आधार पर जैन साधु न कच्चा जल पीता है, न अग्नि का स्पर्श करता है, न सचित्त वनस्पति का ही कुछ उपयोग करता है। भूमि पर चलता है तो नंगे पैरों चलता है, और आगे साढे तीन हाथ परिमाण भूमि को देखकर फिर कदम उठाता है । मुख के उष्ण श्वास से भी किसी वायु आदि सूक्ष्म जीव को पीडा न पहुँचे, इस के लिए मुख पर मुखस्त्रिका का प्रयोग करता है। जन साधारण इसे क्रिया काण्ड में एक विचित्र अटपटेपन की अनुभूति है । परन्तु हिंसा के साधक को इस में हिंसा भगवती के सूक्ष्म रूप की झाँकी मिलती है ।
1
सत्य महाव्रत
2
वस्तु का यथार्थ ज्ञान ही सत्य है । उक्त सत्य का शरीर से काम में लाना शरीर का सत्य है, वाणी से कहना वाणी का सत्य है, और विचार में लाना मन का सत्य है । जो जिस समय जिसके लिए जैसा यथार्थ रूप से करना, कहना एवं समझना चाहिए, वही सत्य है । इनके विपरीत जो भी सोचना, समझना, कहना और करना है, वह सत्य है ।