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श्रावश्यक-दिग्दर्शन
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जैन-श्रमण अत्यन्त मितभाषी होता है। उसके प्रत्येक वचन से स्व-परकल्याण की भावना टपकती है, अहिंसा का स्वर गूंजता है। जन-साधु के लिए हॅसी में भी झूठ बोलना निषिद्ध है। प्राणों पर संकट-उपस्थित होने पर भी सत्य का आश्रय नहीं छोड़ा जा सकता । सत्य महाव्रती की वाणी में अविचार, अज्ञान, क्रोध, मान, माया, लोभ, परिहास
आदि किसी भी विकार का अंश नहीं होना चाहिए । यही कारण है कि साधु दूर से पशु आदि को लैंगिक दृष्टि से अनिश्चय होने पर सहसा कुत्ता, बैल, पुरुष आदि के रूप में निश्चयकारी भाषा नहीं बोलता। ऐसे प्रसंगों पर वह कुत्ते की जाति, बैल की जाति, मनुष्य की जाति, इत्यादि जातिपरक भाषा का प्रयोग करता है। इसी प्रकार वह ज्योतिष, मंत्र, तंत्र आदि का भी उपयोग नहीं करता। ज्योतिष आदि की - प्ररूपणा में भी हिंसा एवं असत्य का संमिश्रण है।
- जैन-साधु जब भी बोलता है, अनेकान्तवाद को ध्यान में रखकर '' बोलता है । वह 'ही' का नहीं, 'भी' का प्रयोग करता है । अनेकान्तवाद
का लक्ष्य रखे विना सत्य की वास्तविक उपासना भी नहीं हो सकती । जिस वचन के पीछे 'स्यात् लग जाता है, वह असत्य भी सत्य हो जाता है। क्योंकि एकान्त असत्य है, और अनेकान्त सत्य । स्यात् शब्द अनेकान्त का द्योतक है, अतः यह एकान्त को अनेकान्त बनाता है, दूसरे शब्दो में कहें तो असत्य को सत्य बनाता है। प्राचार्य सिद्धसेन की दार्शनिक एवं श्रालंकारिक वाणी में यह स्यात् वह अमोघ स्वर्णरस है, जो लोहे को सोना बना देता है । 'नयास्तव स्यात्पदलाल्छिता इमे, रसोपदिग्धा इव लोहधातवः।
एक श्राचार्य सत्य महाव्रत के ३६ भंगो का निरूपण करते है। क्रोध, लोभ, भय और हास्य इन चार कारणों से झूठ बोला जाता है। अस्तु, उक्त चार कारणो से न स्वयं मन से असत्याचरण करना, न मन से दूसरों से कराना, न मन से अनुमोदन करना, इस प्रकार मनो