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श्रावश्यक दिग्दर्शन. केवल पीड़ा और-हानि पहुँचाना ही नहीं, उसके लिए किसी भी तरह की अनुमति देना भी हिंसा है। किं बहुना, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष किसी भी रूप से किसी भी प्राणी को हानि पहुँचाना हिंसा है । इस हिंसा से बचना अहिसा है। - अहिंसा और हिंसा की आगर-भूमि अधिकतर भावना पर आधारित है। मन मे हिंसा है तो बाहर में हिंसा हो तब भी हिंसा है, और हिंसा न हो तब भी हिंसा है। और यदि मन पवित्र है, उपयोग एवं विवेक के साथ प्रवृत्ति है तो बाहर में हिसा होते हुए भी अहिसा है। मन में द्वेष न हो, घृणा न हो, अपकार की भावना न हो, अपितु प्रेम हो, करुणा की भावना हो, कल्याण का संकल्प हो तो शिक्षार्थ उचित ताडना देना, रोग-निवारणार्थ कटु
-महापुरुषो द्वारा आचरण में लाए गए हैं, महान् अर्थ मोक्ष का प्रसाधन करते हैं, और स्वयं भी व्रतो में सर्व महान् हैं, अतः मुनि के अहिंसा आदि व्रत महाव्रत कहे जाते हैं।
योग-दर्शन के साधनपाद में महाव्रत की व्याख्या के लिए ३१ वॉ सूत्र है-'जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना महावतम् ।' इसका भावार्थ है-जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित सब अवस्थाओं में पालन करने योग्य यम महाव्रत कहलाते हैं।
जाति द्वारा संकुचित-गौआदि पशु अथवा ब्राह्मण की हिंसा नकरना। देश द्वारा सकुचित गंगा, हरिद्वार आदि तीर्थ भूमि में हिंसा नकरना।
काल द्वारा संकुचित-एकादशी, चतुर्दशी श्रादि तिथियों में हिंसा नहीं करना ।
समय द्वारा संकुचित-देवता अथवा ब्राह्मण आदि के प्रयोजन की सिद्धि के लिए हिसा करना, अन्य प्रयोजन से नहीं। समय का अर्थ यहाँ प्रयोजन है।
इस प्रकार की संकीर्णता से रहित सब जातियों के लिए सर्वत्र, -सर्वदा, सर्वथा अहिंसा, सत्य आदि पालन करना महावत है ।