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आवश्यक-दिग्दर्शन ' आपा मार जगत में बैठे नहिं किसी से काम,
उनमें तो कुछ अन्तर नाही, संत कहो चाहे राम, हम तो उन संतन के . हैं दास, _ जिन्होंने मन, मार लिया। . सन्त कबीर ने भी साधु को प्रत्यक्ष भगवान रूप कहा है और कहा है कि साधु की देह निराकार की आरसी है, जिसमें जो चाहे वह अलख को अपनी आँखों से देख सकता है। .
निराकार की आरसी, साधू ही. की देह,
लखा जो चाहे अलख को, इनही में लखि लेह ।
सिक्ख-सम्प्रदाय के गुरु अर्जुन देव ने कहा है कि साधु की - महिमा का कुछ अन्त ही नहीं है, सचमुच वह अनन्त है। वेचारा ___वेद भी उसकी महिमा का क्या वर्णन कर सकता है।
साधु की महिमा वेद न जाने, - जेता सुनै तेता बखाने । साधु की सोभा का नहिं अंत,
. साधु की सोभा सदा बे-अंत। आनन्दकन्द व्रजचन्द्र श्री कृष्णचन्द्र ने भागवत मे कहा है-सन्त ही मनुष्यों के लिए देवता हैं । वे ही उनके परम बान्धव हैं । सन्त
ही उनकी आत्मा हैं । बल्कि यह भी कहे तो कोई अत्युक्ति न होगी कि - सन्त मेरे ही स्वरूप हैं, अर्थात् भगवत्स्वरूप हैं। - देवता बान्धवाः सन्तः, सन्त आत्माऽहमेव च ।
-भाग. ११ । २६ । ३४ । जैन-धर्म में साधु का पद बडा ही महत्त्वपूर्ण है। आध्यात्मिकविकास क्रम में उसका स्थान छठा गुण स्थान है, और यहाँ से यदि