________________
श्रमण-धर्म
भगवती-सूत्र के १४ वे शतक में भगवान् महावीर ने साधुजीवन के अखण्ड अानन्द का उपमा के द्वारा एक बहुत ही सुन्दर चित्र उपस्थित किया है। गणधर गौतम को सम्बोधित करते हुए भगवान् कह रहे हैं- "हे गौतम! एक मास की दीक्षा वाला श्रमण निग्रन्थ वानन्यन्तर देवों के सुख को अतिक्रमण कर जाता है। दो मास की दीक्षा वाला नागकुमार आदि भवनवासी देवो के सुख को अतिक्रमण कर जाता है। इसी प्रकार तीन मास की दीक्षा वाला असुरकुमार देवो के सुख को, चार मास की दीक्षा वाला ग्रह, नक्षत्र एवं ताराश्रो के सुख को, पाँच मास की दीक्षा वाला ज्योतिष्क देव जाति के इन्द्र चन्द्र एवं सूर्य के सुख को, छः मास की दीक्षा वाला सौधर्म एवं ईशान देवलोक के सुख को, सात मास की दीक्षा वाला सनत्कुमार एवं माहेन्द्र देवों के सुख को, पाठ मास की दीक्षा वाला ब्रह्मलोक एवं लांतक देवों के सुख को, नवमास की दीक्षा वाला पानत. एवं प्राणत देवों के सुख को, दश मास की दीक्षा वाला धारण -एवं अच्युत देवों के सुख को, ग्यारह मास की दीक्षा वाला नव वेयक देवों के सुख को तथा बारह मास की दीक्षा वाला श्रमण अनुत्तरोपपातिक देवों के सुख को अतिक्रमण कर जाता है।" -भग० १४, ६ ।
पाठक देख सकते हैं-भगवान् महावीर की दृष्टि मे साधुजीवन का कितना बड़ा महत्त्व है ? बारह महीने की कोई विराट साधना होती है ? परन्तु यह तुद्रकाल की साधना भी यदि सच्चे हृदय से की जाय तो उसका अानन्द विश्व के स्वर्गीय सुख साम्राज्य से बढ़ कर होता है । सर्व श्रेष्ठ यनुत्तरोपपातिक देव भी उसके समक्ष हतप्रभ, निस्तेज एवं निम्न हैं। साधुता का दंभ कुछ और है, और सच्चे साधुत्व का जीवन कुछ और ! सच्चा साधु भूमण्डल पर साक्षात् भगवत्स्वरूप स्थिति में विचरण करता है। स्वर्ग के देवता भी उस भगवदात्मा के चरणों की धूल को मस्तक पर लगाने के लिए तरसते है। वैष्णव कवि नरसी महता कहता है