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'. आवश्यक दिग्दर्शन , भगवान् महावीर की वाणी के अनुसार साधु-जीवन न राग का' जीवन है और न द्वेष का। वह तो पूर्णरूपेण समभाव एवं तटस्थ वृत्ति का जीवन है। साधु विश्व के लिए कल्याण एवं मङ्गल की जीवित मूर्ति है। वह अपने हृदय के कण-कण में सत्य और करुणा का अपार अमृतसागर लिए भूमण्डल पर विचरण करता है, प्राणिमात्र को विश्वमैत्री का अमर सन्देश देता है। वह समता के ऊँचे से ऊँचे प्रादर्शों पर विचरण करता है, अपने मन, वाणी एवं शरीर पर कठोर नियंत्रण रखता है । संसार की समस्त भोग वासनाओं से सर्वथा अलिप्त रहता है, और क्रोध, मान, माया एवं लोभ की दुर्गन्ध से हजार-हजार कोस की दूरी से बचकर चलता है।
देवाधिदेव श्रमण भगवान् महावीर ने उपयुक्त पूर्ण त्याग मार्ग पर चलने वाले साधुओं को मेरु पर्वत के समान अप्रकंप, समुद्र के समान गम्भीर, चन्द्रमा के समान शीतल, सूर्य के समान तेजस्वी और पृथ्वी के समान सर्वसह कहा है। सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्धान्तर्गत दूसरे क्रिया स्थान नामक अव्ययन में साधु-जीवन सम्बन्धी उपमाओं की यह लम्बी शृंखला, आज भी हर कोई जिज्ञासु देख सकता है। इसी अध्ययन के अन्त मे भगवान् ने साधु जीवन को एकान्त पण्डित, प्राय; एकान्तसम्यक् , सुसाधु एवं सब दुःखो से मुक्त होने का मार्ग बताया है। 'एस.ठाणे श्रायरिए जाव सव्वदुक्खपहीण मग्गे एगंतसम्मे सुसाहू।।
भगवती-सूत्र में पाँच प्रकार के देवों का वर्णन है। वहाँ भगवान् महावीर ने गौतम गणधर के प्रश्न का समाधान करते हुए साधुओं को साक्षात् भगवान् एवं धर्मदेव कहा है। वस्तुतः साधु, धर्म का जीता-जागता देवता ही है। 'गोयमा ! जे इमे अणगारा भगवंतो इरियासमिया""जाव गुत्तबंभयारी, से तेण?णं एवं वुच्चइ धम्मदेवा।
-भग० १२ श० ६ उ.