________________
आवश्यक दिग्दर्शन दौड़ते थे। एक से एक अप्सरा सी सुन्दर रानियाँ अन्तःपुर में दीपशिखा की भाँति अन्धकार में प्रकाश रेखा सी नित्यनवीन शृगार साधना में व्यस्त रहती थी। यह सब होते हुए भी भर्तृहरि को वैभव में अानन्द नहीं मिला, उसकी आत्मा की प्यास नहीं बुझी । संसार के सुख भोगते रहे, मोगते रहे, बढ़-चढ़ कर भोगते रहे; परन्तु अन्त में यही निष्कर्ष निकला कि संसार के सब भोग क्षणभंगुर है, विनाशी हैं, कष्टप्रद है, इह लोक में पश्चात्ताप और परलोक में नरक के देने वाले हैं। जब कि संसार के इस प्रकार धनी मानी राजाओ की यह दशा है तो फिर तुच्छ अभावग्रस्त संसारी जीव किस गणना में हैं ?
जहाँ भोग तहँ रोग है, जहाँ रोग तह सोग,
जहाँ योग तहँ भोग नहिं, जहाँ योग, नहिं भोग ! बात जरा लबी होगई है, अतः समेट लूँ तो अच्छा रहेगा। सच्चा सुख क्या है, यह बात आपके ध्यान में आगई होगी। विषय सुख की निःसारता का स्पष्ट चित्र आपके सामने रख छोड़ा है। विषय सुख क्षणभंगुर है, क्योंकि विपय स्वयं जो क्षणभंगुर है। वस्तु विनाशी है तो वस्तुनिष्ठ सुख भी विनाशी है। जैसा कारण होगा, वैसा ही कार्य होगा। मिट्टी के बने पदार्थ मिट्टी के ही होंगे। नीम के वृक्ष पर श्राम कसे लग सकते हैं ? अतः क्षणभंगुर वस्तु से सुख भी क्षणभंगुर ही होगा, अन्यथा नहीं। अब रहा आत्मनिष्ट सुख । प्रात्मा- अजर अमर है, अविनाशी है, अतः तन्निप्ठ सुख भी अजर अमर अविनाशी ही होगा । अहिंसा, सत्य, संयम, शील, त्याग, वैराग्य, दया, करुणा श्रादि सब प्रात्मधर्म है। अतः इनकी साधना से होने वाला आध्यात्मिक सुख श्रात्मा से होने वाला सुख है; और वह अविनाशी सुख है, कभी भी नष्ट न होने वाला! छान्दोग्य उपनिषद् मे सुख की परिभाषा करते हुए कहा है कि 'जो अल्प है, विनाशी है, वह सुख नहीं है । और जो भूमा है, महान् है, अनन्त है, अविनाशी है, वस्नुनः वहीं सच्चा मुख है।"