________________
श्रावक धर्म
.४६ अाखिर गृहस्थ है। वह साधु नही है, जो यावज्जीवन के लिए सत्र पाप व्यापारों का पूर्ण रूप से परित्याग कर पवित्र जीवन बिता सके । अनः उसे प्रतिदिन कम से कम ४८ मिनट के लिए तो सामायिक व्रत धारण करना ही चाहिए। यद्यपि मुहूर्त भर के लिए पापव्यापारों का त्याग करने रूर सामायिक व्रत का काल अल्प है, तथापि इसके द्वारा अहिसा एव समता की विराट झॉकी के दर्शन होते हैं । सामायिक व्रत की साधना करते समय साधारण गृहस्थ साधक भी लगभग पूर्ण । निष्पाप जैसी ऊँची भूमिका पर आरूढ हो जाता है । श्राचार्य भद्रबाहु - स्वामी ने इस सम्बन्ध मे स्पष्ट कहा है-'सामाइयम्मि उ कए, समणो
इव सावो हवइ जम्हा । अर्थात् सामायिक कर लेने पर श्रावक श्रमणजैसा हो जाता है।
यह गृहस्थ की सामायिक साधु की पूर्ण सामायिक के अभ्यास की भूमिका है । यह दो घडी का प्राध्यात्मिक स्नान है, जो जीवन को पापमल से हल्का करता है एव अहिंसा की साधना को स्फूर्तिशील बनाता है। सामायिक के द्वारा किया जाने वाला पापाश्रव-निरोध एवं आत्मनिरीक्षण साधक के लिए वह अमूल्य निधि है, जिसे पाकर आत्मा परमात्मरूप की ओर असर होता है।
१०-देशावकाशिक व्रत परिग्रह परिमाण और दिशा परिमाण व्रत की यावज्जीवन सम्बन्धी __ प्रतिज्ञा को और अधिक व्यापक एवं विराट बनाने के लिए देशावकाशिक
" व्रत ग्रहण किया जाता है। दिशा-परिमाण व्रत में गमनागमन का क्षेत्र ___ यावज्जीवन के लिए सीमित किया जाता है । और यहाँ उस सीमित 'क्षेत्र को एक दो दिन आदि के लिए और अधिक सीमित कर लिया
जाता है । देशावकाशिक व्रत की साधना में जहाँ क्षेत्रसीमा सक्नुचित • होती है, वहाँ उपभोग सामग्री की सीमा भी संक्षिप्त होती है। यदि __ साधक देशावकाशिक व्रत की प्रतिदिन साधना करे तो उस की अनारंभमय