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आवश्यक दिग्दर्शन
था अन्धा ! वह भटकता है, यात्रा नहीं करता। यात्री के लिए अपनी पॉखे चाहिए | वह अॉख सम्यक्त्व है । इस अॉख के बिना प्राध्यात्मिक जीवन यात्रा से नहीं की जा सकती।
जब गृहस्थ . यह सम्यक्त्व की भूमिका प्राप्त कर लेता है तो कवि की प्राध्यात्मिक भाषा में भगवान् वीतराग देव का लघु पुत्र हो जाता है । यह पद कुछ कम महत्त्व पूर्ण नहीं है। बड़ी भारी ख्याति है इसकी
आध्यात्मिक क्षेत्र में । ज्ञाता धर्मकथा सूत्र में सम्यक्त्व को रत्न की उपमा दी है । वस्तुतः यह वह चिन्तामणि रत्न है, जिसके द्वारा साधक जो पाना चाहे वह सब पासकता है। अनन्त काल से हीन, दीन, दरिद्र भिखारी के रूप में भटकता हुया यात्मदेव सम्यक्त्व रत्न पाने के बाद एक महान आध्यात्मिक धन का स्वामी हो जाता है। सम्यक्त्वी की प्रत्येक क्रिया. निराले ढंग की होती हैं। उसका सोचना, समझना, बोजना और करना सब कुछ विलक्षण होता है । वह संसार में रहता हुया भी संसार से निर्विरण हो जाता है, उसके अन्तर ' में शम, संवेग, निर्वेद और अनुकम्या का अमृत मागर ठाठे मारने लगता है। विश्व के अनन्तानन्त चर अचर प्राणियों के प्रति उसके कोमल हृदय से दया का झरना बहता है और वह चाहता है कि संमार के सत्र जीव सुखी हों, क्ल्याणभागी हों। सब को यात्मभान हो, ससार से विरक्ति हो ! सम्यक्त्वी का जीवन ही अनुकम्पा का जीवन है। वह विश्व को मंगलमय देखना चाहता है । वीत राग देव, निम्रन्थ गुरु और वीतराग प्ररूपित धर्म पर उसका इतना हद अास्तिक भाव होता है कि यदि संसार भर की देवी शक्तियाँ डिगाना चाहे नत्र भी नहीं दिग सकता। अला वह प्रकाश से अन्धकार में जाए तो कैसे जाए ? प्रकाश उस के लिए जीवन है और अन्धकार मृत्यु ! उसकी यात्रा सत्य से असत्य की श्रोर नहीं, अपितु असत्य से सत्य की अोर है। यह एक महान् भारतीय दार्शनिक के शब्दों में प्रतिपल प्रतिक्षण, यही भावना भाता है कि 'भसतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय ।'
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