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श्रावक धर्म
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__ आध्यात्मिक विकासक्रम में सम्यक्त्व की भूमिका चतुर्थ गुणस्थान की है। जब साधक सम्यक्त्व का अजर अमर प्रकाश साथ लेकर आध्यात्मिक यात्रा के लिए अग्रसर होता है तो देशव्रती श्रावक की पंचम भूमिका पाती है। यह वह भूमिका है, जहाँ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह भाव की मर्यादित साधना प्रारम्भ हो जाती है। सर्वथा न करने से कुछ करना अच्छा है, यह आदर्श है इस भूमिका का ! गृहस्थ का जीवन है, अतः पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्वो का बहुत बड़ा भार है मस्तक पर ! ऐसी स्थिति में सर्वथा परिपूर्ण त्याग का मार्ग तो नहीं अपनाया जा सकता । परन्तु अपनी स्थिति के अनुकूल मर्यादित त्याग तो ग्रहण किया जा सकता है । अस्तु, इस मर्यादित एवं प्रांशिक त्याग का नाम ही आगम की भाषा मे देश-विरति है ! अभी अपूर्ण त्याग है, परन्तु अन्तर्मन में पूर्ण त्याग का लक्ष्य है। इस प्रकार के देशविरति श्रावक के बारह व्रत होते हैं । आगमसाहित्य में बारह व्रतों का बडे विस्तार के साथ वर्णन किया है । यहाँ इतना अवकाश नहीं है, और 'प्रसंग भी नहीं है । अतः भविष्य मे कही अन्यत्र विस्तार की भावना रखते हुए भी यहाँ संक्षेप में दिग्दर्शन मात्र कराया जा रहा है ।
१-अहिंसा व्रत सर्व प्रथम अहिंसा व्रत है। अहिंसा हमारे आध्यात्मिक जीवन की आधार भूमि है ! भगवान महावीर के शब्दो में 'अहिंसा भगवती है।' इस भगवती की शरण स्वीकार किए विना साधक आगे नहीं बढ सकता।
अहिंसा की साधना के लिए प्रतिज्ञा लेनी होती है कि 'मै मन, वचन, काय से किसी भी निरपराध एवं निर्दोष त्रस प्राणी की जान बूझ कर हिंसा न स्वयं करूँगा और न दूसरों से कराऊँगा । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति रूप स्थावर जीवों की हिसा भी व्यर्थ एवं अमर्यादित रूप में न करूँगा और न कराऊँगा।' .