________________
श्रावश्यक दिग्दर्शन उसके दो भेद हैं-~-सागार धर्म और अनगार धर्म। सागार धर्म गृहस्थ धर्म को कहते हैं, और अनगार धर्म साधु धर्म को । भगवान् महावीर ने इसी सम्बन्ध में कहा है:
चरित्त - धम्मे दुविहे पएणत्ते, तंजहाअगार चरित्त धम्मे चेव अरणगारचरित्त धम्म चेव
[स्थानांग सूत्र ] सागार धर्म एक सीमित मार्ग है । वह जीवन की सरल किन्तु छोटी पगडंडी है। वह धर्म, जीवन का राज मार्ग नहीं है। गृहस्थ संसार में रहता है, अतः उस पर परिवार, समाज और राष्ट्र का उत्तर दायित्व है। यही कारण है कि वह पूर्ण रूपेण अहिंसा और सत्य के राज-मार्ग पर नहीं चल सकता। उसे अपने विरोधी प्रतिद्वन्द्वी लोगो से संघर्ष करना पड़ता है, जीवनयात्रा के लिए कुछ-न-कुछ शोपण का मार्ग अपनाना होता है, परिग्रह का जाल बुनना होता है न्याय मार्ग पर चलते हुए भी अपने व्यक्तिगत या सामाजिक स्वार्थों के लिए कहीं न कहीं किसी से टकराना पड़ जाता है, अतः वह पूर्णतया निरपेक्ष स्वात्मपरिणति रूप अखण्ड अहिंसा सत्य के अनुयायी साधुधर्म का दावेदार नहीं हो सकता।
गृहस्थ का धर्म अणु है, छोटा है, परन्तु वह हीन एवं निन्दनीय नहीं है। कुछ पक्षान्ध लोगो ने गृहस्थ को जहर का भरा हुया कटोरा बताया है। वे कहते हैं कि जहर के प्याले को किसी भी अोर से पीजिए, जहर ही पीने में पायगा, वहाँ अमृत कैसा ? गृहस्थ का जीवन जिधर भी देखो उधर ही पाप से भरा हुया है, उसका प्रत्येक प्राचरण पारमय है, विकारमय है, उसमे धर्म कहाँ ? परन्तु ऐमा कहने वाले लोग सत्य की गहराई तक नहीं पहुँच पाए हैं, भगवान् महावीर की वाणी का मर्म नहीं समझ पाए हैं। यदि सदाचारी से सदाचारी गृहस्थ जीवन भी जहर का प्याला ही होता,'उनकी अपनी भाषा में कुत्र ही होता, तो जैन-संस्कृति के प्राण प्रतिष्ठापक भगवान् महावीर धर्म के दो भेदों में क्यो गृहय धर्म की