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श्रावश्यक दिग्दर्शन
हो सकती है ? कभी नही । वह तो जितना भोग भोगेगे, उतनी प्रति पल बढती ही जायगी। मनुष्य की एक इच्छा पूरी नहीं होती कि दूसरी उठ खडी होती है । वह पूरी नहीं हो पाती कि तीसरी आ धमकती है। इच्छात्रों का यह सिलसिला टूट ही नहीं पाता। मनुष्य का मन परस्परविरोधी इच्छाओं का वैसा ही केन्द्र है, जैसा कि हजारों-लाखों उठती-गिरती लहरो का केन्द्र समुद्र ! एक दरिद्र मनुष्य कहता है कि यदि कहीं से पचास रुपए माहवारी मिलजाएं तो मैं सुखी हो जाऊँ ! जिसको पचास मिल रहे हैं, वह सौ के लिए छटपटा रहा है और सौ वाला हजार के लिए । इस प्रकार लाखों, करोडों और अरबो पर दौड लग रही है । परन्तु श्राप विचार करे कि यदि पचास मे सुख है तो पचास वाला सौ, सौ वाला हजार, और हजार वाला लाख, और लाख वाला करोड क्यो चाहता है ? इसका अर्थ है कि वैपयिक सुख, सुख नहीं है । वह वस्तुतः दुःख ही है । भगवान् महावीर ने वैषयिक सुख के लिए शहद से लिप्त तलवार की धार का उदाहरण दिया है । यदि शहद पुती तलवार की धार को चाटे तो किसनी देर का सुख ? और चाटते समय धार से जीभ कटते ही कितना लम्बा दु.ख ? इसीलिए भगवान् महावीर ने अन्यत्र भी कहा है कि 'सत्र वैषयिक गान विलाप हैं, सब नाच रंग विडंबना है, सब अलकार शरीर पर बोझ हैं, किं बहुना ? जो भी काम भोग है, सब दुःख के देने वाले है।'
सव्वं चिलपियं गीयं, __सव्वं नट्ट विडंवियं । सच्चे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ।।
(उत्तराध्ययन सूत्र १३३१६) सच्चा सुख त्याग में है । जिसने विषयाशा छोडी उसी ने सच्चा सुम्ब पाया । उससे बढ़कर संसार में और कौन मुखी हो सकता है ? जैन