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सच्चे सुख की शोध आज से नहीं, लाखो करोडो असंख्य वर्षों से संसार के कोने-कोने में एक प्रश्न पूछा जा रहा है कि यह प्रवृत्ति, यह संघर्ष, यह दौड धूप किस लिए है ? प्रत्येक प्राणी के अन्तहदय से एक ही उत्तर दिया जा रहा है-सुख के लिए, यानन्द के लिए, शान्ति के लिए। हर कोई जीव सुख चाहता है, दुःख से भागता है। ससार का प्रत्येक प्राणी सुख के लिए प्रयत्नशील है। चोटी से लेकर हाथी तक, रंक से लेकर राजा तक, नारक से लेकर देवता तक क्षुद्र से क्षुद्र और महान् से महान् प्रत्येक संसारी प्राणी सुख को ध्रुवतारा बनाए दौडा जारहा है ! अनन्त-अनन्त काल से प्रत्येक जीवन इसी सुख के चारो ओर चक्कर काटता रहा है । सुख कौन नहीं चाहता ? शान्ति किसे अभीष्ट नहीं ? सब को सुख चाहिए। सत्र को शान्ति चाहिए ।
सुख प्राप्ति की धुन में ही मनुष्य ने नगर बसाए, परिवार बनाए । बड़े बड़े साम्राज्यो की नींव डाली, सोने के मिहासन खड़े किए । सुख के लिए ही मन प्य ने मनुष्य से प्यार किया, और द्वेप भी किया ! श्राज तक के इतिहास में हजारो खून की नदियाँ बही है, वे सत्र मुख के लिए वहीं है, अपनी तृप्ति के लिए बही हैं । सुख की खोज में भटक कर मानव, मानव नहीं रहा, साक्षात् पशु बन गया है, राक्षस होगया है । यह क्यो हुआ?
भारतीय शास्त्रकारों ने मुख को दो भागों में विभक्त किया है। एक सुख आन्तरिक है तो दूसरा बाह्य । एक आत्मनिष्ठ है