________________
यावश्यक दिग्दर्शन
मनुष्य बनकर मनुष्य का जैसा काम नहीं किया, फलतः वह मनुष्य होकर भी राक्षस कहलाया । भोग, निरा भोग मनुष्य को राक्षस बनाता है । एक मात्र त्यागभावना ही है जो मनुष्य को मनुष्य बनाने की क्षमता रखती है । भोगविलास की दल दल मे फंसे रहने वाले रावणो के लिए हमारे दार्शनिको ने 'द्विभुजः परमेश्वरः' नहीं कहा है। __यूनान का एक दार्शनिक दिन के बारह बजे लालटेन जला कर एथेंस नगरी के बाजारों में कई घंटे घूमता रहा । जनता के लिए श्राश्चर्य की बात थी कि दिन में प्रकाश के लिए लालटेन लेकर घूमना !
एक जगह कुछ हजार अादमी इकडे होगए और पूछने लगे कि "यह सब क्या हो रहा है ?"
दार्शनिक ने कहा-"मै लालटेन की रोशनी में इतने घन्टो से आदमी हूँढ रहा हूँ।"
सब लोग खिल खिला कर हँस पडे और कहने लगे कि "हम हजारों आदमी आपके सामने हैं। इन्हे लालटेन लेकर देखने की क्या बात है ?" __दार्शनिक ने गर्ज कर कहा--"अरे क्या तुम भी अपने आपको मनुष्य समझे हुए हो? यदि तुम भी मनुष्य हो तो फिर पशु और राक्षस कौन होगे ? तुम दुनिया भर के अत्याचार करते हो, छल छंद रचते हो, भाइयों का गला काटते हो, कामवासना की पूर्ति के लिए कुत्तो की तरह मारे-मारे फिरते हो, और फिर भी मनुष्य हो ! मुझे मनुष्य चाहिए, वन मानुष नहीं !" । दार्शनिक की यह कठोर, किन्तु सत्य उक्ति, प्रत्येक मनुष्य के लिए, चिन्तन की चीज है।
एक और दार्शनिक ने कहा है कि "संसार में एक जिन्स ऐसी है, जो बहुत अधिक परिमाण में मिलती है, परन्तु मनमुताबिक नहीं मिलती।" वह जिन्स और कोई नहीं, इन्सान है । जो होने को तो अत्रों