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श्रावश्यक दिग्दर्शन
है। कुछ को बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है। इस पर भी कडी नज़र रखी जाती है कि कोई किसी प्रकार की दुष्टता या काम चोरी न करने पाए ! और उन प्रास्ट्रोलिया की नदियों में पाई जाने वाली निशानेबाज मछलियो की कहानी भी कुछ कम विचित्र नहीं है। यह मछली अपने शिकार की ताक में रहती है। जब यह देखती है कि नदी के किनारे उगे हुए पौधों की पत्तियो पर कोई मक्खी या मकोडा बैठा है तो चुपचाप उसके पास जाती है और मुँह में पानी भर कर कुल्ले का ठीक निशाना ऐसे जोर से मारती है कि वह मकोडा तुरन्त पानी में गिर पडता है और मछली का आहार बन कर काल के गाल में पहुंच जाता है । इस मछली का निशाना शायद ही कभी चूकता है ! वैज्ञानिकों ने इसका नाम टॉक्सेटेस रक्खा है, जिसका अर्थ है धनुषधारी ! एटलाण्टिक महासागर में उड़ने वाली मछलियाँ भी होती है। काफी लम्बा लिख चुका हूँ। अब अधिक उदाहरणों की अपेक्षा नहीं है । न मालूम कितने कोटि पशु-पक्षी ऐसे हैं, जो मनुष्य के समान ही छलछंद रचते हैं, अकल लडाते हैं, जाल फैलाते हैं और अपना पेट भरते हैं । अस्तु खाने कमाने की, मौज शौक उडाने की, यदि मनुष्य ने कुछ चतुरता पाई है तो क्या यह उसकी अपनी कोई श्रेष्ठता है ? क्या इस चातुर्य पर गर्व किया जाय ? नहीं, यह मनुष्य की कोई विशेषता नहीं हैं !
मानव जीवन का ध्येय न धन है, न रूप है, न बल है और न सांसारिक बुद्धि ही है। या ही कहीं से घूमता-फिरता भटकता यात्मा मानव शरीर में आया, कुछ दिन रहा, खाया-पीया, लड़ा झगडा, हॅसा रोया और एक दिन मर कर काल प्रवाह में आगे के लिए बह गया, भला यह भी कोई जीवन है ? जीवन का उद्देश्य मरण नहीं है, किन्तु मरण पर विजय है । अाजतक हम लोगो ने किया ही क्या है ? कहीं पर जन्म लिया है, कुछ दिन जिन्दा रहे है और फिर पॉव पसार कर सदा के लिये लेट गए हैं। इस विराट् संसार में कोई भी भी जाति, कुल, वर्ण और स्थान ऐसा नहीं है, जहाँ हमने