Book Title: Shravaka Pratikramana Sutra
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in ਸਰਿ ਗੁਰਮੀਤ ਨਾਗਦੀ For Private & Personal Use On Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति साहित्य रत्नमाला का ६१ वीं रत्न श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र व्याख्याकार : विजयमुनि शास्त्री, साहित्यरत्न श्री सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक : श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र व्याख्याकार : विजयमुनि शास्त्री, साहित्यरत्न प्रकाशक : सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा मुद्रक : मनोज प्रिंटिंग प्रेस, आगरा २ तृतीय प्रवेश : सन् १९८६, महावीर जयंती मूल्य : ५-०० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनकी पावन-प्रेरणा ने जिनकी सतत-भावना ने जिनकी निशदिन की रटना ने मुझे कलम पकड़ने को तैयार कर ही दिया प्रेरणा, भावना एवं रटना की उस भव्य-मूर्ति मुनि श्रीअखिलेश जी सादर सभक्ति समर्पण -विजय मुनि Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द मनुष्य की जिस मनोभूमि में विचारों के सुन्दर अंकुर प्रस्फुटित होते हैं, मनुष्य की उसी मनोभूमि में विकारों की घास-पात भी उत्पन्न हो जाती है । विचार का विकास करना और विकार का विनाश करना -- यह साधकजीवन का चरम ध्येय-बिन्दु है। उस पर पहुँचने के लिए प्रतिक्रमण की अध्यात्म-साधना-एक मंगलमय माध्यम है । __ मैं कौन हूँ ? मैं क्या हूँ ? अपने अन्दर ही अपनी इस खोज को प्रतिक्रमण कहा गया है । स्वभाव से निकल कर, विभाव में पहुँच गये हों, तो फिर वापस लौट कर, स्वभाव में आना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण, साधक जीवन की संपुष्टि के लिए अमृत है। प्रतिक्रमण की साधना, परम आवश्यक तत्व है। श्रमण और श्रावक, दोनों के लिए प्रतिक्रमण करना आवश्यक माना गया है। प्रतिदिन सायं तथा प्रातः अवश्यमेव करणीय होने के कारण ही इसको अवश्यक भी कहा है। प्रतिक्रमण आत्मसंशुद्धि का परम साधन है। प्रस्तुत पुस्तक श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र है। श्रावक-प्रतिक्रमण अनेक प्रकाशित हुए हैं, तथापि जनता की ओर से एक शुद्ध एवं व्याख्या सहित उपयोगी संस्करण की बराबर मांग रही है। श्रावक प्रतिक्रमण का सम्पादन कोई सरल काम नहीं है। विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न प्रकार के श्रावक प्रतिक्रमण प्रचलित हैं। उनमें एकरूपता का अभाव है । प्रस्तुत पुस्तक का सम्पादन कैसा हुआ है ? इसका समाधान पाठक स्वयं करें। प्रस्तुत पुस्तक के सम्पादन में पूज्य गुरुदेव के दिशादर्शन से मुझे बड़ा बल मिला है। इस कार्य की पूर्ति उनके दिशादर्शन के बिना सर्वथा असम्भव थी। पुस्तक के संकलन, सम्पादन एवं व्याख्या में भूलों का पता लगने पर अथवा पाठकों का सुझाव आने पर, सुधारने का यथोचित प्रयत्न किया जा सकेगा। -विजयमुनि Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की ओर से अध्यात्म-साधना में, प्रतिक्रमण की बड़ी महिमा है जीवनशोधन की प्रक्रिया को ही वस्तुतः प्रतिक्रमण कहा गया है । प्रतिक्रमण अध्यात्म साधना का मूल आधार है । * प० विजयमृनिजी शास्त्री ने श्रावक प्रतिक्रमण - सूत्र लिख कर एक प्रशंसनीय कार्य किया है। शुद्ध मूलपाठ, अर्थ और व्याख्या; प्रस्तुत रूप में श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र के तृतीय संस्करण को प्रकाशित करते हुए हमें बड़ा सन्तोष तथा हर्ष हो रहा है । प्रारम्भ में सामायिक सूत्र भी शुद्ध मूलपाठ, अर्थ एवं संक्षिप्त व्याख्या के साथ इसमें जोड़ दिया गया है । प्रस्तुत पुस्तक में श्रावक के बारह व्रतों की व्याख्या और प्रत्येक व्रत के अतिचारों की व्याख्या सरल तथा सुगम भाषा में दी गई है । आशा है, पाठक प्रस्तुत पुस्तक से लाभ उठा कर लेखक और प्रकाशक के श्रम को सफल करेंगे । प्रस्तुत पुस्तक को सुन्दर बनाने में, और शीघ्रता से मुद्रित करने में मनोज प्रेस के प्रबन्धकों एवं कंपोजिटरों का श्रम सराहनीय है । उन्होंने जिस उदारता का परिचय दिया है, तदर्थ उन्हें धन्यवाद है । - ओमप्रकाश जैन. मन्त्री, सन्मति ज्ञानपीठ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका पृष्ठांक mor Farm C विषय सामायिक सूत्र १. नमस्कारसूत्र २. गुरु-वन्दनसूत्र ३. सम्यक्त्वसूत्र गुरु-गुण-स्मरणसूत्र ५. आलोचनासूत्र ६. उत्तरीकरणसूत्र ७. आगारसूत्र ८. चतुर्विशतिस्तव-सूत्र ६. सामायिकसूत्र १०. प्रणिपातसूत्र ११. समाप्तिसूत्र : परिशिष्ट : श्रावकप्रतिक्रमण-सूत्र : १. उपक्रम सूत्र २. संक्षिप्त प्रतिक्रमणसूत्र (अतिचार आलोचना) ३. ज्ञानातिचार ४. दर्शनातिचार ५. प्रथम अहिंसा-अणुव्रत के अतिचार ६. द्वितीय सत्य-अणुव्रत के अतिचार ७. · तृतीय अस्तेय-अणुव्रत के अतिचार urrY Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांङ्क १६. ५१ विषय ८. चतुर्थ-ब्रह्मचर्य-अणुव्रत के अतिचार ६ पंचम अपरिग्रह-अणुव्रत के अतिचार १०. षष्ठ दिशा-परिमाणवत के भतिचार ११. सप्तम उपभोग-परिभोग परि० व्रत के अति० १२. पंच-दश कर्मादान १३. अष्टम अनर्थ-दण्ड-विरमणव्रत के अतिचार १४. नवम सामायिकव्रत के अतिचार १५. दशम देशावकाशिकब्रत के अतिचार १६. एकादश पौषधव्रत के अतिचार १७. द्वादश अतिथि-संविभागवत के अतिचार १८. संलेखना के अतिचार अष्टादश पाप-स्थान २०. निन्यानवे अतिचार २१. समग्र अतिचार-चिन्तन २२. द्वादशावतं गुरुवन्दनसूत्र श्रावकसूत्र : २३. मंगलसूत्र २४. सम्यक्त्वसूत्र २५. प्रथम अहिंसा-अणुव्रत २६. द्वितीय सत्य-अणुव्रत २७. तृतीय अस्तेय-अणुव्रत २८. चतुर्थ ब्रह्मचर्य-अणुव्रत २९. पंचम अपरिग्रह-अणुव्रत ३०. षष्ठ-दिशावत ३१ सप्तम उपभोगपरिभोग-परिमाणव्रत ३२. पंचदश कर्मादान ७१ ५ .... Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांङ्क १०० .... . . . १०७ ११३ . . . . AD WWW. W ११८ १२१ विषय ३३. अष्टम अनर्थदण्ड-विरमणव्रत ३४. नवम सामायिक-व्रत ३५. दशम देशावकाशिक-व्रत ३६. एकादश पौषधव्रत ३७. द्वादश अतिथि-संविभाग-व्रत ३८. संलेखनासूत्र ३६. आलोचना ४०. अष्टादश पापस्थान ४१. उपसंहारसूत्र ४२. पाँच पदों की वंदना (पद्य) ४३. पाँच पदों की वन्दना (गद्य) ४४. अनन्त चौबीसी ४५. समुच्चय जीवों से क्षमापना ४६. क्षमापनासूत्र ४७. आवस्सहि इच्छाकारेणं ४६. ध्यान के विषय में ४६. सामायिक आदि छह आवश्यक : परिशिष्ट : १२७ १२८ १२६ १३२ १३५ १३५ १३६ . . . . .... Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक-सूत्र Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक की परिभाषा सामाइयं नाम "सावज्ज--जोग--परिवज्जणं, निरवज्ज-जोग-पडिसेवणं च।" सावद्ययोगों का त्याग करना, और निरवद्ययोगों में प्रवृत्ति करना ही सामायिक है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल: नमस्कार-सूत्र नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं, नमो लोए सव्व-साहूणं। एसो पंच नमोक्कारो, सव्व-पावप्पणासणो मंगलाणं च सवसि । पढमं हवइ मंगलं ।। नमस्कार हो अरिहंतों को, नमस्कार हो सिद्धों को, नमस्कार हो आचार्यों को, नमस्कार हो आध्यायों को, नमस्कार हो लोक में सब साधुओं को ! यह पाँच को किरा हुआ नमस्कार, सब पापों का सर्वथा नाश करने वाला है, और संसार के सभी मङ्गलों में, प्रथम मुख्य [भाव मङ्गल है। अर्थ : Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक सूत्र व्याख्या जैन-परम्परा में नमस्कारमन्त्र का बड़ा ही गौरव पूर्ण स्थान है। इसका दूसरा नाम नवकारमन्त्र भी है। इसको पंचपरमेष्ठी मंत्र भी कहा जाता है । जिस व्यक्ति के मन में सदा नवकारमन्त्र के उदात्त भाव का चिन्तन चलता रहता है, संसार में उसका अहित कौन कर सकता है ? इतिहास साक्षी है कि इस महान् मन्त्र के स्मरण से शूली का सुन्दर सिंहासन बन गया है, और भयङ्कर विषधरसर्प फूल-माला में परिणत हो गया है । नवकार इह लोक में तथा पर-लोक में सर्वत्र सर्व सुखों का मूल है। नवकारमन्त्र मंगलरूप है । संसार में जितने भी मंगल हैं, यह उन सभी मंगलों में सर्वश्रेष्ठ मंगल है। क्योंकि यह द्रव्य मंगल नहीं, भावमंगल है। द्रव्यमंगल दधि-अक्षत आदि कभी अमंगल भी बन जाते हैं, किन्तु नवकारमन्त्र भावमंगल होने से कभी अमंगल नहीं होता। भावमंगल ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के रुप में अनेक प्रकार का होता है । नवकारमन्त्र में व्यक्ति पूजा नहीं, गुण-पूजा का उदारभाव है । इस में जिन' महान् आत्माओं के गुणों का स्मरण किया गया है, वे दो रुपों में हैं-देव और गुरु। ____संसार-बन्धन के बीज-भूत-रागद्वेष का क्षय करने वाले तथा संसारी आत्माओं को भव-दुःखो से मुक्त कराने वाले अरिहंत भगवान देव हैं। आठ कर्मों से मुक्ति पाने वाले भव-बन्धनों से सदा के लिए सर्वथा विमुक्त सिद्ध भगवान् देव हैं। स्वयं पवित्र आचार का पालन करने वाले, एवं दूसरों से भी आचार का पालन करवाने वाले आचार्य गुरु हैं। द्वादशांगी जिन-वाणी के रहस्य के ज्ञाता, विमलज्ञान का दान करने वाले और मिथ्यात्व के अन्धकार को सम्यगज्ञान के प्रकाश से दूर करने वाले उपाध्याय गुरु हैं। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या : पांच महावतों के पालन करने वाले, पाँच समिति और तीन गुप्ति के धारण करने वाले, मोक्षमार्ग के साधक साधु हैं । उक्त पाँच पदों को भाव-पूर्वक किया गया नमस्कार, सब पापों का नाशक है । संसार के समस्त मंगलों में, यह नमस्काररूप मंगल, भाव . मंगल होने के कारण, सबसे श्रेष्ठ और सब से ज्येष्ठ मंगल है। :२: गुरु-वन्दनसूत्र तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेमि, वंदामि, नमंसोमि, सक्कारेमि सम्माणेमि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेयं, पज्जुवासामि, मत्थएण वंदामि । तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, सत्कार करता हूँ, सम्मान करता हूँ, आप कल्याणरूप हो, मंगल-रुप हो, देवता-स्वरुप हो, ज्ञान-स्वरूप हो, अर्थ : Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक-सूत्र मैं आपकी पर्युपासना=सेवा करता हूँ, मस्तक झुका कर वन्दना करता हूँ। व्याख्या : अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में, गुरु का पद सब से ऊँचा है। कोई दूसरा पद इसकी समानता नहीं कर सकता। गुरु जीवन-नोका का नाविक है। संसार के काम, क्रोध एवं लोभ आदि भयंकर आवों में से वह हमको सकुशल पार ले जाता है । भारतीय-संस्कृति की अध्यात्मसाधना में, इसी कारण से गुरु को Supreme Power कहा गया 'गुरु' शब्द में दो अक्षर है-'गु' और 'ह' । 'गु' का अर्थ हैअन्धकार तथा 'रु' का अर्थ है-नाशक । गुरु का अर्थ हुआ-अन्धकार का नाश करने वाला। शिष्य के मन में रहे अज्ञान-अन्धकार को दूर करने वाला 'गुरु' कहलाता है। गुरु-वन्दन-सूत्र में गुरु को चन्दन किया गया है, औद गुरु का स्वरूप बताया है। गुरु-मंगल-रूप है, देव-रूप है, ज्ञान-रूप है-अतः मैं विनम्रभाव से उसके चरणों में वन्दन एवं नमस्कार करता हूँ। मूल: सम्यक्त्व-सूत्र अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिण-पएणत्तं तरी, इअ सम्मत्तं, मए गहियं ।। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या अर्थ: अरिहंत भगवान् मेरे देव हैं, यावज्जीवन श्रेष्ठ साधु मेरे गुरु हैं, जिन-प्ररूपित अहिंसा आदि तत्त्व मेरा धर्म है, यह सम्यक्त्व मैंने प्रहण किया। व्याख्या : यह 'सम्यक्त्व-सूत्र' है। सम्यक्त्व अध्यात्म-जीवन की प्रथम भूमिका है । आगे चल कर श्रावक आदि की भूमिकाओं में जो कुछ भी त्याग-वैराग्य, जप-तप तथा व्रत-नियम आदि साधनाएं की जाती हैं, उन सब की बुनियाद सम्यक्त्व को कहा गया है। यदि मूल में सम्यक्त्व नहीं है, तो अन्य सब तप-जप आदि क्रियाएँ केवल अज्ञान-कष्ट ही मानी जाती है, धर्म नहीं। क्योंकि वे संसार की वृद्धि करती हैं, संसार का क्षय नही करतीं। सम्यक्त्व के बिना होने वाला व्यावहारिक चारित्र, चाहे वह थोड़ा है, या बहुत, वस्तुतः कुछ है ही नहीं । सम्यक्त्व का सीधा-सादा अर्थ किया जाय तो विवेकदृष्टि होता है । सत्य और असत्य का मौलिक विवेक ही जीवन को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करता है। प्रस्तुत सूत्र में व्यवहार-सम्यक्त्व का वर्णन किया गया है। यहाँ बताया गया है, कि किसको देव समझना, किसको गुरु समझना और किसको धर्म समझना ? साधक प्रतिज्ञा करता है राग-द्वेष विजेता अरिहंत मेरे देव हैं, पञ्च-महाव्रतधारी साधु मेरेगुरु हैं और जिन-भाषित दयामय आदि सच्चा धर्म मेरा धर्म है। परन्तु निश्चय-सम्यक्त्व तत्व-रूचिरूप होता है । जीवादि ज्ञय को जानने की, संवर-निर्जरा आदि उपादेय को ग्रहण करने की और हिंसा, असत्य आदि हेय को छोड़ने को जो अभिरूचि-विशेष होती है, वह निश्चय-सम्यक्त्व है। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक सूत्र साधना का मूल सम्यक्त्व है । इसके बिना किसी भी प्रकार की साधना सच्ची नहीं हो सकती । अतः सामायिक की साधना से पूर्व सम्यक्त्व की शुद्धि आवश्यक है । : ४ : मूल : गुरु-गुण- स्मरण - सूत्र पंचिदिय-संवरणो. तह नवविह बंभचेर गुत्ति-धरो चउविह कसाय मुक्को, इअ अट्ठारस गुणेहिं संजुत्तो ॥ पंच- महव्वय-जुत्तो, पंच- विहायार - पालण - समत्थो । पंच-समिओ-तिगुत्तो, छत्तीस गुणो गुरु मम ।। अर्थ : पाँच इन्द्रियों के विषय को रोकने वाले, तथा ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों को धारण करने वाले, चार प्रकार के कषायों से मुक्त, उक्त अठारह गुणों से संयुक्त, पांच महाव्रतों से युक्त, पाँच प्रकार का आचार पालने में समर्थ, पाँच समिति और तीन गुप्ति वाले, इस प्रकार छत्तीस गुणों बाले मेरे गुरु हैं । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या व्याख्या : यह गुरु-गुण स्मरण-सूत्र है। इसमें गुरु की महिमा का गुण-गान किया गया है। प्रत्येक साधक को गुरु के प्रति असीम श्रद्धा और भक्ति का भाव रखना चाहिए। क्यों कि साधक पर सद्गुरु का इतना विशाल ऋण है, कि उसका कभी बदला चुकाया नहीं जा सकता। गुरु की महत्ता अपार है। अतः प्रत्येक धर्म-साधना के प्रारम्भ में सदगुरु को श्रद्धा-भक्ति के साथ अभिवन्दन करना चाहिए। ___सामायिक की साधना से पूर्व, सामायिक की साधना के मार्ग का बोध कराने वाले गुरु का स्मरण आवश्यक है। अतः प्रस्तुत सूत्र में गुरु का स्मरण किया गया है; गुरु का स्वरूप बताया गया है, गुरु के गुणों का परिचय दिया गया है। छत्तीस गुणों के धारक पवित्र आत्मा को ही गुरु कहा गया है। : ५: आलोचना-सूत्र मूल : इच्छाकारेण संदिसह भगवं ! इरियावहियं, पडिक्कमामि ? इच्छं ? इच्छामि पडिक्कमिउं, इरियावहियाए, विराहणाए । गमणागमणे-पाणक्कमणे, बीयक्कमणे, हरियक्कमणे, ओसा-उतिंग-पणग-दग-मट्टीमक्कडासंताणा-संकमणे । जे मे जीवा विराहिया, एगिदिया, बेइंदिया-तेइंदिया, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक-सूत्र चउरिंदिया, पंचिंदिया ! अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठोणाओ ठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । अर्थ : हे भगवन् ! इच्छा-पूर्वक आज्ञा दोजिये, ताकि मैं एक पथिको अर्थात् गमनागमन की क्रिया का प्रतिक्रमण करूं [गुरु की ओर से आज्ञा मिल जाने पर, अथवा गुरू न हों, तो अपने संकल्प से ही आज्ञा पा कर श्रावक को कहना चाहिए] आज्ञा स्वीकार है। आते जाते मार्ग में अथवा श्रावक का धर्माचार पालने में, जो कुछ भी [जीवों की विराधना हो गई हो, तो उस पाप से प्रतिक्रमण चाहता हूँ = निवृत्त होना चाहता हूँ। एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमनागमन करते हुए किसी जीव को पैरों से नीचे दबाने से, इसी प्रकार सचित्त बीज, हरितकाय = वनस्पति, अवश्याय = आकाश से पड़ने वालो ओस , उत्तिंग-चींटियों के बिल, पनग= पाँच वर्ण की शैवाल- काई, दक= सचित्त जल, सचित्त मिट्टी और मकड़ी के जालों को दबाने से। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या [किन जीवों की विराधना को हो ?] इन जीवों की मैंने विराधना की हो; जैसे की एकेन्द्रिय = एक स्पर्श इन्द्रिय वाले पृथिवी आदि पाँच स्थावर; द्वीन्द्रिय-दो स्पर्शन और रसन इन्द्रिय वाले कीड़े आदि; त्रीन्द्रिय तीन स्पर्शन, रसन, घ्राण इन्द्रिय वाले जू कीड़ी आदि; चतुरिन्द्रिय= चार स्पर्शन, रसन, ध्राण चक्षु इन्द्रिय वाले मक्खी, मच्छर आदि, पञ्चेन्द्रिय = पाँच स्पर्शन- त्वचा, रसन = जिह्वा घ्राण = नाक, चक्षु = आँख, श्रोत्र = कान इन्द्रिय वाले सर्प मैंढक आदि । ११ [ किस तरह की पीडा दी हो ?] सामने आते पैरों से मसले हों, धूल या कीचड़ आदि से ढंके हों, भूमि पर रगड़े हों, एक दूसरे से आपस में टकराए हों, छू कर पीडित किये हों, परितापित = दुःखित किये हों, मरण-तुल्य किये हों, भयभीत किये हों, एक स्थान से दूसरे स्थान पर बदले हों, किं बहुना, प्राणरहित भी किये हों, तो मेरा वह सब पाप मिथ्या निष्फल हो । व्याख्या : जैनधर्म में विवेक का बहुत महत्व है। प्रत्येक क्रिया में विवेक रखना, यतन करना श्रमण, एवं श्रावक दोनों साधको के लिए आवश्यक है । जो भी काम करना हो, सोच-विचार कर, देख-भाल कर, यतना के साथ करना चाहिए । पाप का मूल प्रमाद है, अविवेक है । साधक के जीवन में विवेक के प्रकाश का बड़ा महत्त्व है । 'आलोचना - सूत्र' विवेक और यतना के संकल्पों का जीता-जागता Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक सूत्र चित्र है। आवश्यक कार्य के लिए कहीं इधर-उधर आना-जाना आदि कार्य हुआ हो, तब यतना का ध्यान रखते हुए भी यदि कहीं प्रमाद-वश किसी जीव को पीडा पहुँची हो, तो उसके लिये इस पाठ में पश्चात्ताप किया गया है। जैनधर्म का साधक जरा-जरा-सी भूलों के लिये भी पश्चत्ताप करता है और हृदय को निष्पाप बनाने का प्रयत्न निरन्तर करता रहता है। प्रस्तुत पाठ के द्वारा आत्म-विशुद्धि का मार्ग बताया गया है। जिस प्रकार कपड़े में लगा हुआ मैल खार और साबुन से साफ किया जाता है, उसी प्रकार गमनागमनादि क्रिया करते समय अशुभ योग आदि के कारण अपने विशुद्ध समय-धर्म में किसी भी प्रकार का कुछ भी पाप-मल-लगा हो, तो वह सब पाप प्रस्तुत पाठ में चिन्तन से साफ किया जाता है । आलोचना के द्वारा अपने संयम-धर्म को पुनः स्वच्छ, शुद्ध और साफ बनाया जाता है । उत्तरीकरण सूत्र मूलः तस्स उतरीकरणेणं, पायच्छित्त-करणेणं, विसोहि-करणेणं, विसल्ली-करणे पावाणं कम्माणं निग्घायणाट्टाए, ठामि काउस्सग्गं, अर्थ : उस [व्रत या आत्मा की] विशेष शुद्धि करने के लिए, [गुरुदेव के समीप] प्रायश्चित्त करने के लिए, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या [आत्मा की विशेष निर्मलता के लिए, [आत्मा को] शल्य यानि माया से रहित करने के लिए पाप-कर्मों का मूलोच्छेद =सर्वनाश करने के लिए, मैं कायोत्सर्ग करता हूँ-शरीर की क्रिया का त्याग करता हूँ। व्याख्या : यह उत्तरीकरण-सूत्र है । इस में कायोत्सर्ग का संकल्प किया जाता है। जो वस्तु एक बार मलिन हो जाती है, वह एक बार के प्रयत्न से ही शुद्ध नहीं हो जाती। उसकी विशुद्धि के लिए बार-बार प्रयत्न करना होता है। ___ यह कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा का सूत्र है । कायोत्सर्ग में दो शब्द हैकाय और उत्सर्ग । काय अर्थात् शरीर का, उत्सर्ग अर्थात्-त्याग । अभिप्राय यह हैं, कि कायोत्सर्ग करते समय साधक अपने शरीर की ममता छोड़ कर आत्म-भाव में प्रवेश करता है। कायोत्सर्ग में शरीर की चञ्चलता के साथ-साथ मन और वचन की चञ्चलता का भी त्याग होना चाहिए। स्वीकृति व्रत की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त आवश्यक है। वह भावशुद्धि से होता है । वह भाव-शुद्धि शल्य के त्याग बिना नहीं हो सकती। और शल्य-त्याग के लिए ही कायोत्सर्ग किया जाता है। आगार-सूत्र अन्नत्थ ऊससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छीएणं जंभाइएणं, उडडुए, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक-सूक वाय-निसग्गेणं, भमलीए, पित्तमुच्छाए । सहुमेंहिं अंग-संचालहिं, सहुमेहिं खेल-संचालेहिं सुहुमहिं दिहि-संचालेहिं एवमाइएहिं आगरेहिं, अभग्गो, अविराहिओ, हुज्ज मे काउस्सग्गो। जाव अरिहंता, भगवंता, नमोक्कारेणं, न पारेमिः ताव कायं ठाणेणं, मोणेणं, झाोणं, अप्पा वोसिरामि । अर्थ : [कायोत्सर्ग में काय के व्यापारों का परित्याग करता हूँ । परन्तु जो शारीरिक क्रियाएँ स्वाभावतः हरकत में आ जाती हैं, उनको छोड़कर। [कौन-सी क्रियाओं का आगार-छूट है ?] उच्छ्वास ऊंचे श्वास से, निःश्वासनीचे श्वास से, खांसी से, छींक से, उवासी से, डकार से, वातनिसर्ग= अपान वायु से, भ्रान्ति= चक्कर से, पित्त-मूर्छा=पित्त के प्रकोप से होने वाली मूच्र्छा से सूक्ष्मरूप से अंगों के संचार=हिलने से; सूक्ष्मरूप से थूक या कफ के निकलने से; Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या सूक्ष्म रूप से दष्टि = नेत्र के पड़क जाने से; [पूर्वोक्त आगारों यानि छूटों के सिवा अग्नि आदि का उपद्रव होने पर भी जगह बदलने की छूट है, अतः] इत्यादि और भी आगारों से मेरा कायोत्सर्ग अखण्डित तथा अविराधित होवे।। कायोत्सर्ग कव तक है ?] जब तक अरिहन्त भगवान को प्रकटरूप से नमस्कार करके अर्थात् 'नमो अरिहताणं" पढ़ कर कायोत्सर्ग न पार लू । तब तक एक स्थान पर शरीर से स्थिर हो कर, वचन से मौन रख कर मन से धर्म-ध्यान में एकाग्रता ला कर, अपने आप को पाप-व्यापारों से बोसराता हूँ = अलग करता हूँ व्याख्या: यह आगार-सूत्र है । साधक- जीवन में निवृत्ति आवश्यक है,किन्तु उसकी भी एक सीमा है । कायोत्सर्ग में शरीर की क्रियाओं को रोकने का प्रयत्न है, फिर भी शरीर के कुछ व्यापार ऐसे हैं, जो बराबर होते रहते हैं । उनको किसी भी प्रकार से बन्द नहीं किया जा सकता । यदि हठात् बन्द करने का प्रयत्न होता है, तो उसमें लाभ की अपेक्षा हानि की सम्भावना अधिक रहती है । अतः कायोत्सर्ग से पहले यदि उन व्यापारों के सम्बन्ध में छूट न रखी जाय, तो फिर कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा का भव होता है । इसी बात को ध्यान में रख कर सूत्रकार ने प्रस्तुत आगार-सूत्र का निर्माण किया है । कायोत्सर्ग से पूर्व ही कुछ छूट रख लेने के कारण प्रतिज्ञा-भङ्ग का दोष नहीं लगता । इसी तथ्य को समझने के लिए आगार-सूत्र है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक-सूत्र चतुर्विंशतिस्तव-सूत्र लोगस्य उज्जोयगरे, धम्म-तित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं, चवीसं पि केवली ॥शा उसभमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुभई च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ सुविहिं च पुष्पदंतं, सीअल सिजंस वासुपुज्जं च । विमलमतं च जिए. धम्म संति च वंदामि ।।३।। कुथुअर च मल्लि, वंदे मुणिसव्वयं नमि-जिणं च । वंदामि रिट्टनेमि, पासं तह वद्धमा च ॥४॥ एवं मए अभिथुआ, विहूय-रयमला, पहीणाजरमरणा । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख्याख्या चउवीसं पि जिण-वरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५॥ किचिय-बंदिय-महिया, ___ जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरूग्ग-वोहिलाभ, . समाहिवरमुत्तमं किंतु ।।६।। चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागर-वर-गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥७॥ अर्थ : लोक-संसार में धर्म का उद्योत प्रकाश करने वाले धर्म-तीर्थ की स्थापना करने वाले, [रागद्वेष के] जीतने वाले, [ कर्मरुपी ] शत्रुओं के नाश करने वाले, केवल ज्ञानी चौबीस तीर्थङ्करों का में कीर्तन स्तवन करूंगा ॥१॥ ऋषभदेव तथा अजितनाथ को वन्दना करता हूँ । संभवनाथ, अभिनन्दन, सुमितनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, और रागद्वोष के जीतने वाले चन्द्रप्रभ भगवान् को भी वन्दना करता हूँ ॥२॥ सुविधिनाथ-पुष्पदन्त, शोतल, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, रागद्वेष के विजेता अनन्तनाथ, धर्मनाथ, तर्थव शान्तिनाथ भगवान को वन्दना करता हूँ॥३।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. सामायिक सूत्र कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत, एवं रागद्वेष के विजेता नमिनाथ को वन्दना करता हूँ । इसी प्रकार भगवान् अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान स्वामी को भी वन्दना करता हूँ ||४|| जिनकी मैंने इस भाँति स्तुति की है, जिन्होंने कर्मरूपी रज तथा मल को दूर कर दिया है, जो जरा-मरण से सर्वथा रहित हो गए हैं, वे राग-द्वेष के जीतने वाले जिनवर चौबीस तीर्थङ्कर मुझ पर प्रसन्न हों ॥२५॥ जिनकी इन्द्रादि देवों ने स्तुति की है, वन्दना की है, उपासना की है, और जो अखिल संसार में सब से उत्तम हैं, वे सिद्ध भगवान् मुझे आरोग्य, सम्यग् बोधि, तथा उत्तम समाधि प्रदान करें ||६॥ जो अनेक चन्द्रमाओं से भी अधिक निर्मल हैं, जो अनेक सूर्यों से अधिक प्रकाश करने वाले हैं, जो महासागर के समान गम्भीर हैं, वे सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि अर्थात् मुक्ति प्रदान करें ||७|| व्याख्या : यह चतुर्विंशति- स्तव सूत्र है । भक्ति-साहित्य में यह एक अनूठी रचना है । इस के प्रत्येक शब्द में भक्तिभाव का अखण्ड स्रोत्र प्रवाहित हो रहा है । दिव्यपुरुषों का स्मरण मन को पवित्र बनाता है । दिव्य आत्मा के ध्यान से मन भी दिव्य बन जाता है । प्रस्तुत पाठ में भगवान् ऋषभदेव से ले कर भगवान् महावीर तक चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति की गई है, वे हमारे इष्टदेव हैं ; अहिंसा और सत्य का मार्ग बताने वाले है, वे हमारे परम देव हैं । उनका स्मरण Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १६ करना, उनका उत्कीर्तन करना और उनका जप करना, हम सबका ही कर्तव्य है । भगवान् का ध्यान करने से, भगवान् के नाम का जा करने से और उनके द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलने से जीवन दिव्य बनता है। सामायिक सूत्र मूल : करेमि भंते ! समाइयं. सावज जोगं पच्चक्खामि । जाव नियम पज्जुवासामि, दुविहं तिविहे, मोणं-वायाए, काएणं, न करेमि, न कारवेमि, तस्स भंते ! पडिक्ककामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि ! अर्थ : हे भगवन् ! मैं सामायिक (ग्रहण) करता है, समस्त पाप-क्रियाओं का परित्याग करता हूँ। १. जावनियम के अ.गे जितनी सामायिक करनी हों, उतने ही मुहूर्त कहने चाहिएं, जैसे- जावनियम मुहूर्त एक, मूहूर्त दो आदि । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक-सूत्र जब तक मैं नियम से स्थित रह कर पर्युपासना करू, तब तक दो करण [करना, कराना, चाहिए।] और तीन योग से अर्थात् मन, वचन, और काय से (पापकर्म) न स्वयं करूँगा और न दूसरों से कराऊँगा। [जो पाप-कर्म पहले हो गए हैं, उनका] हे भगवान् ! प्रतिक्रमण करता है, आत्मसाक्षी से निन्दा करता हैं, गुरुदेव ! आप की साक्षी से गर्दा करता हूँ। अन्त में, मैं अपनी अन्तरात्मा को पाप-व्यापार से बोसराता हूँ अलग करता हूँ। व्याख्या: यह प्रतिज्ञा-सूत्र है। इसमें साधक सामयिक करने की प्रतिज्ञा करता है। सामायिक एक प्रकार का आध्यात्मिक व्यायाम है। व्यायाम भले ही थीड़ी देर के लिए हो, दो घड़ी के लिए ही हो, परन्तु उसका प्रभाव और लाभ स्थायी होता है ।। सामायिक में दो घड़ी बैठ कर आप अपना आदर्श स्थिर करते हैं । सामायिक बाह्यभाव से हट कर स्वभाव में रमण करने की कला है । सम-भाव की साधना ही सामायिक है। प्रस्तुत पाठ में सामायिक का स्वरूप बताया गया है। जब तक जीवन में सच्ची सामायिक नहीं आती, तब तक जीवन पावन नहीं बन सकता । सामायिक की साधना ही सब से मुख्य साधना है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या मूल: प्रणिपात-सूत्र नमोत्थुणं ! अरिहंताणं, भगवंताणं, आइगराणं, तित्थयराणं, सयं-संबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं, पुरिस-सीहाणं, पुरिस-वर-पुंडरियोणं,पुरिस-वर-गंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोग-नाहाणं, लोग-हियाणं, लोगपईवाणं, लोग-पज्जोयगराणं, अभयदयाणं, चक्खुदयाणं मग्गदयाणं; सरणदयाण', जीवदयाण', बोहिदयाण'; धम्मदयाण' धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं धस्मसारहीणं, धम्मवरचाउरंत-चक्कवट्टीणं; दीव-ताण-सरण-गइ-पइट्ठोणं, अप्पडिहय-वर-नाण-दसण-धराणं, वियद्वछउमाणं जिणाणं जावयाणं तिरुणाणं, तारयाणं बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोयगाणं; सबन्नुणं, सव्व-दरिसीणं, Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सामापिक सूत्र सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्बावाह---, मपुणरावित्ति-सिद्धिगइ नामधेयं ठाण संपत्ताणं, नमो जिणाणं जिय-भयाणं अर्थ : नमस्कार हो अरिहंत भगवान को, [अरिहंत भगवान् कैसे हैं ?] धर्म की आदि करने वाले हैं, धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले हैं, अपने आप ही प्रबुद्ध हुए हैं, पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, पुरुषों में सिंह हैं, पुरुषों में पुण्डरीक कमल हैं, पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती हैं, लोक में उत्तम हैं, लोक के नाथ हैं, लोक के हितकर्ता हैं, लोक में दीपक के समान हैं, लोक में धर्म का उद्योत करने वाले हैं। अभयदान देने वाले हैं, ज्ञान-नेत्र के देने वाले हैं, धर्ममार्ग के देने वाले अर्थात् बताने वाले हैं, शरण के देने वाले हैं, संयमजीवन के देने वाले हैं बोधि - सम्यक्त्व के देने वाले हैं। धर्म के दाता हैं, धर्म के उपदेशक हैं, धर्म के नेता हैं, धर्म-रथ के सारथी हैं, चार गति के अन्त करने वाले श्रेष्ठ धर्मचक्रवर्ती हैं, संसारसमुद्र में द्वीप टापू हैं, शरण हैं, गति हैं, प्रतिष्ठा है, अप्रतिहत अर्थात् किसी भी आवरण से अवरुद्ध न हो सके-ऐसे श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवल-दर्शन के अरिहंत की स्तुति में 'ठाणं संपत्ताणं के स्थान पर 'ठाणं संपाविउंकामाणं' कहना चाहिए। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या २३ धारण करने वाले हैं, मोहनीयप्रमुख घातिकर्म से तथा प्रमाद से रहित हैं, स्वयं राग-द्वेष के जीतने वाले हैं, दूसरों को जिताने वाले हैं, स्वयं संसार-सागर से तर गये हैं, दूसरों को तारने वाले हैं, स्वयं बोध पाए हुए हैं, दूसरों को बोध देने वाले हैं, स्वयं कर्म से मुक्त हुए हैं, दूसरों को मुक्त करने वाले हैं, तीन काल और तीन लोक के सूक्ष्म तथा स्थल सभी पदार्थो के ज्ञाता होने से सर्वज्ञ हैं। और इसी प्रकार सबके द्रष्टा होने से सर्वदर्शी हैं, शिव=कल्याणरूप, अचल=स्थिर, अरुज-रोग से रहित, अनन्त-अन्तरहित, अक्षय=क्षयरहित, अव्याबाध-बाधापीड़ा से रहित, पुनरागमन से भी रहित 'सिद्धि-गति' नामक स्थान विशेष अर्थात् अवस्थाविशेष को प्राप्त कर चुके हैं, [अरिहन्त के लिए 'ठाणं सपाबिउकामाणं' आता है, उसका अर्थ है-सिद्धिगति नामक स्थान को भविष्य में पाने वाले हैं] नमस्कार हो, भय के जीतने वाले, रागद्वष के जोतने वाले जिन भगवानों को ! व्याख्या: यह प्रणिपात-सूत्र है। इसमें अरिहन्त भगवान् की स्तुति की गई है। इस पाठ को शक्रस्तव भी कहते हैं । इन्द्र ने भगवान् की इसी पाठ से स्तुति की थी। अतः स्तुति-साहित्य में यह महत्त्वपूर्ण पाठ है। 'नमोऽत्थुणं' के पाठ में तीर्थकर भगवान् के विश्व-हितंकर निर्मल गुणों का अत्यन्त सुन्दर परिचय दिया गया है । ____ अरिहन्त भगवान् लोक में उत्तम हैं। लोक के नाय हैं लोक में दीपक हैं, लोक में ज्ञान का प्रकाश करने वाले हैं। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सामायिक-सूत्र अरिहन्त भगवान् धर्म के दाता हैं, धर्म के उपदेशक हैं, धर्म के नेता हैं, धर्म के सारथी हैं । ___इस प्रकार प्रस्तुत पाठ में अनेक उपमाओं द्वारा भगवान् की स्तुति की गई है। :११: ___ समाप्ति-सूत्र मूल : एयरस नवमस्स सामाइय-वयस्स, पंच अइयारा, जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा :मणदुप्पणिहोणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, सामाइयस्स सइ अकरणया, सामाइयस्स अणवाहियस्स करणया, तस्स मिच्छा मि दुक्कई । सामइयं सम्मं काएण, न फासियं,न पालियं, न तीरियं, न किट्टियं, न सोहियं, न आराहियं, आणाए अणुपालियं न भवइ, तस्स मिच्छा मि दुक्कई । १. प्रणिपात-सूत्र आदि सामायिक के पाठों की विस्तृत व्याख्या एवं विवेचन उपाध्याय श्रद्धय अमरचन्द्रजी म० कृत सामायिक-सूत्र भाष्य में देखिए। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या २५ अर्थ : प्रस्तुत नौवें सामायके व्रत के पवि अतिपारदोषविशेष हैं, जो मात्र जानने योग्य है, आचरण करने योग्य नहीं। वे पांच इस प्रकार हैंमन को कुमार्ग में लगाना, वचन को कुमार्ग में लगाना, काय को कुमार्ग में लगाना, सामायिक की ठोक स्मृति न रखना, सामायिक को अव्यवस्थित ढंग से करना, उक्त दोषों के कारण मुझे जो भी दुष्कृत पाप लगा हो, वह सब [आलोचना के द्वारा] मिथ्या=निष्फल होवे ! सामायिकव्रत सम्यकरूप से, काया से, न स्पर्शा हो, न पाला हो, पूर्ण न किया हो, कीर्तन न किया हो, शुद्ध न किया हो, आराधन न किया हो, वीतराग की. आज्ञानुसार पालन न हुआ हो, तो तत्-सम्बन्धी मेरा सब पाप निष्फल हो । ब्याख्या : यह समाप्तिसूत्र है । साधक अपनी साधना में सावधानी रखता है, फिर भी उससे भूलों का होना सहन है। पर भूल का संशोधन कर लेना उसका अपना कर्तव्य है । प्रस्तुत पाठ में सामायिक व्रत के पाँच अतिचार बताए गए हैं, जिनको जान लेना चाहिए, पर उनका आचरण नहीं करना चाहिए। . सामायिकव्रत का सम्यक्रुप से ग्रहण चाहिए, सयम्क् रूप से स्पर्शन चाहिए, सम्यक् रूप से पालन चाहिए, तभी उसकी साधना सम्यक् साधना हो सकती हैं । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक का लक्षण समता सर्व-भूतेषु, संयमः शुभ-भावना। ओर्त-रोद्र-परित्यागः, तद्धि सामायिक व्रतम् ।। सब जीवों पर सम-भाव रखना, पाँच इन्द्रियों का संयम, शुभ-भावना, आर्त-रौद्र ध्यान का परित्याग करना-सामायिक व्रत है। सामायिक-विशुद्धात्मा, सर्वथा घाति-कर्मणः। क्षयात् केवलमाप्नोति लोकालोक-प्रकाशकम् ।। सामायिक की साधना से विशुद्ध हो कर, यह आत्मा घातिकर्मो का पूर्ण क्षय करके लोक-अलोकव्यापी केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। टिप्पण-प्रस्तुत पुस्तक में सामायिक-सूत्र के सभी पाठों की व्याख्या संक्षेप में दी गई है । विस्तृत विवेचन, विस्तृत विश्लेषण के लिए देखिए, उपाध्याय श्रद्धय अमरचन्द्रजी म. कृत सभाष्य सामायिक-सूत्र। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक का स्वरुप जो समोसव्वभूएसु तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलि-भासियं ।। -आचार्य भद्रबाह जो साधक त्रस और स्थावर-समग्र जीवों पर सम-भाव रखता है, उस की सामायिक, शुद्ध सामायिक है। ऐसा केवली' भगवान् ने कहा है । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक-सूत्र परि शिष्ट Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट सामायिक करने की विधि शान्त तथा एकान्त स्थान में भूमि का अच्छी तरह प्रमार्जन कर, श्वेत तथा शुद्ध आसन लेकर, गृहस्थ-वेष पगड़ी, पजामा, कोट आदि उतार कर शुद्ध वस्त्रधोती एवं उत्तरासन धारण कर मुख पर मुख वस्त्रिका वाँध कर, पूर्व तथा उत्तर की ओर मुख करके बैठ कर या खड़े हो कर सामायिक सूत्र के पाठों को इस प्रकार से बोले ― नवकार तीन वार, सम्यक्त्वसूत्र = अरिहंतो, तीन बार, गुरु-गुण- स्मरणसूत्र = पंचिदिय, एकबार, गुरु-वन्दन सूत्र - तिक्खुत्तो तीन बार, [वन्दन कर आलोचना की आज्ञा लेना ] आलोचनासूत्र = इरियावही, एक बार, उत्तरीकरणसूत्र = तस्स उत्तरी, एक बार आगारसूत्र = अन्नत्थ, एक बार, [ पद्मासन आदि से बैठ कर या खड़े होकर ] कायोत्सर्ग = - ध्यान करना । [ कायोत्सर्ग = ध्यान में ] लोगस्स, एक बार, नमो अरिहंताणं, पढ़ कर ध्यान खोलना, गुरुवन्दनसूत्र = तिक्खुत्तो तीन बार, [गुरू से, वे न हों, तो भगवान् की साक्षी से सामायिक की आज्ञा लेना ] १. इरिया वही का ध्यान भी करते हैं । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक प्रतिज्ञासूत्र = करेमि भंते, एक बार, [ दाहिना घुटना जमीन पर टेक कर, यांचा घुटना खड़ा कर उस पर अंजलि-बद्ध दोनों हाथ रख कर ] नमोत्थुणं, दो बार पढ़े, प्रणिपात न दो नमोत्थूण में पहला सिद्धों का, दूसरा अरिहंतों का है । अरिहन्तों के नमोत्थूणं में 'ठाणं संपत्ताणं' के बदले 'ठाण 'संपाविरं कामाणं' पढ़ना चाहिए ' ४८ मिनट तक अर्थात् सामायिक के काल में स्वाध्याय, धर्मचर्चा, एवं आत्म ध्यान करना चाहिए । सामायिक पारने की विधि गुरु-वन्दन -सूत्र = तिक्खुत्तो तीन बार, आलोचना - सूत्र = इरिया वही, एक बार, उत्तरीकरण सूत्र =तस्स उत्तरी, एक बार, सामायिक सूत्र आगार-सूत्र = अन्नत्थ, एक वार, [ पद्मासन आदि से बैठ कर या खड़े हो कर कायोत्सर्ग करना ] कायोत्सर्ग में लोगस्स एक बार, नमो अरिहंताणं पढ़ कर ध्यान खोलना, प्रकटरूप से लोगस्स एक बार, [ दाहिना घुटना टेक कर बांया घुटना खड़ा कर, उस पर अंजलि-बद्ध दोनों हाथ रख कर ] प्रणिपातसूत्र = नमोत्थुणं दो बार, सामायिक - समाप्ति सूत्र - एयस्स० एक बार, नवकार मन्त्र =नी बार । - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या सामायिक के बत्तीस दोष मन के दश दोष (१) अविवेक, (२) यश को इच्छा, (३) धन आदि का लाभ चाहना, (४) गर्व, (५) भय, (६) निदान = भोगप्राप्ति के लिए धर्म की बाजी लगा देना, (७) संशय = फल के प्रति सन्देह रखना, (८) रोष = क्रोध आदि कषाय करना, (९) अविनय और (१०) अबहुमान = भक्ति की भावना न रखना। वचन के दश दोष (१) कुवचन = गन्दे वचन बोलना, (२) सहसाकार=विना विचारे यों ही ऊटपटांग बोलना, (३) असदारोपण-मिथ्या उपदेश देना या किसी पर झूठा कलंक लगाना, (४) निरपेक्ष शास्त्र से विरूद्ध बोलना, (५) संक्षेप = सूत्रपाठ को शीघ्रता वश संक्षेप से कहना, (६) क्लेश = सामायिक में किसी से झगड़ा कर बैठना, (७) विकथा = रोजा, देश, स्त्री ओर भोजन आदि की बातें करना, (८) हास्य = हँसी-मजाक करना, (६) अशुद्ध = सूत्र-पाठ को घटा बढ़ा कर या अशुद्ध बोलना,, (१०) मुण-मुण = कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट पढ़ना या बोलना। काय के बारह दोष (१) अयोग्य आसन से बैठना, (२) बार बार आसन बदलना, (३) इधर-उधर झांकते रहना, (४) पाप के काम करना, (५) बिना कारण दीवार आदि का सहारा लेना, (६) बिना कारण पैर पसारना, (७) आलस्य के कारण Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक सूत्र अंगड़ाई आदि लेना, (८) शरीर को मटकाना (8) शरीर का मैल उतारना, (१०) गृहस्थ के सीने-पिरोने आदि के काम करना, (११) नींदलेना, (१२)हाथ-पैर आदि दबवाना। सामायिक में उक्त ३२ दोषों का त्याग करना आवश्यक है । सामायिक की शुद्धि द्रव्याधुद्धि : सामायिक के लिए जो भी आसन, वस्त्र, रजोहरण या पूजनी, माला, मुखवस्त्रिका, पुस्तिका आदि साधन हैं, वे सब शुद्ध एवं साफ होने चाहिये । क्षेत्रशुद्धि : क्षेत्र का अर्थ स्थान है । अतः जिस स्थान पर बैठने से चित्त में चंचलता आती हो, स्त्री-पुरुषों के अधिक यातायात के पवित्र विचार-धारा टूटती हो, विषय-विकार उत्पन्न करने वाले शब्द तथा दृश्य होते हों, किसी प्रकार के क्लेश की संभावना हो, ऐसे ऐसे स्थान पर सामायिक नहीं करनी चाहिये । सामायिक का स्थान एकान्त तथा शान्त हो। कालशुद्धि : सामायिक का काल ऐसा हो, जब कि गृहस्थी की झंझटे न सताएं, चित्त खिन्न न हो, दूसरों के मन में तथा अपने मन में शीघ्रता, घबराहट या अरुचि न हो। इसके लिए प्रातःकाल और सायंकाल का समय ठीक है । स्थिर-चित्त का साधक कभी भी कर सकता है। भावशुद्धि : भावशुद्धि से अभिप्राय है-मन,वचन और शरीर की शुद्धि । मन, वचन एवं शरीर की शुद्धि का अर्थ है- इनकी एकाग्रता । जब तक मन, वचन और शरीर की एकाग्रता न हो, चंचलता न रुके, तब तक बाह्य विधि-विधान जीवन में विकाश नहीं ला सकते । For Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण - सूत्र उपक्रम Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण की परिभाषा स्वस्थानाद् यत् पर-स्थान, प्रमादस्य वशाद् गतः। तत्रैव क्रमणं भूयः; प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ प्रमाद-वश शुद्धपरिणतिरूप आत्म-भाव से गिर कर (हट कर) अशुद्धपरिणतिरूप पर भाव को प्राप्त करने के बाद, फिर से आत्म-भाव को प्राप्त करना, प्रतिक्रमण है । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपक्रम सूत्र मूल : आवस्सही, इच्छाकारेण संदिसह भगवं !. देवसियं पडिक्कमणं ठाएमि । देवसिय-नाण-दसणचरित्ताऽचरित्त-तवअड्यार-चिंतणत्थं करेमि, काउसग्गं । अर्थ : अवश्यमेव (आवश्यक कार्य है। इच्छापूर्वक (प्रतिक्रमण करने की) आज्ञा दीजिा, हे भगवान ! दिवस-सम्बन्धी प्रतिक्रमण करता हैं। दिवस सम्बधी ज्ञान और दर्शन, चारित्र-अचारित्र (संयमाऽसंयम), अनशन आदि द्वादश वध तप, (इस भांति स्वीकृत आचार) के दूषणों का, चिन्तन (स्मरण) करने के लिए, कायोत्सर्ग, (शरीर के ममत्वभाव का त्याग) करता हूँ। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र साधक गुरू के समक्ष उपस्थित हो कर कहता है--"भते ! आप आशा प्रदान कीजिए, जिससे मैं दिवस-सम्वन्धी प्रतिक्रमण करके दिवस-सम्बन्धी ज्ञान, दर्शन, चारित्राचारित्र (देश चारित्र) और तप के अतिचारों का चिन्तन करने के लिए कायोत्सर्ग करू।" । प्रस्तुत पाठ में यह कहा है, कि साधक को अपनी साधना में जागृत रहना चाहिए । ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की साधना में भूल-चूक से जो अतिचार अर्थात् दोष लग जाते हैं, उनका एकाग्र-भाव से चिन्तन करना चाहिए, विचार करना चाहिए । संध्याकाल में दिन के अतिचारों का और प्रातःकाल में रात के अतिचारों का चिन्तन करना चाहिए। :२: संक्षिप्त प्रतिक्रमण सूत्र मूल : इच्छामि पडिक्कमिउं, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, काइओ, वाइओ, माणसिओ, उस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो, दुज्झाओ दुविचिंतिओ, अणायारो, अणिच्छियव्वो, असावग-पाउग्गो, नाणे तह दसणे, चरित्ताचरित्ते, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या अर्थ : सुए, सामाइए; तिरह गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं, तिएहं गुणव्वयाणं, चउराहं सिक्खावयाणं, बारसविहस्स सावग-धम्मस्स जं खंडियं, जं बिराहियं, तस्य मिच्छा मि दुक्कडं। इच्छा करता हूँ, प्रतिक्रमण करने की, जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किया हो, काय का, वचन का, मन का, . उत्सूत्र (सूत्र के विरुद्ध) मार्ग के विरुद्ध (बोतराग मार्ग के विपरीत) कल्प (आचार) विरुद्ध, अकरणीय (जो करने योग्य न हो) दुनिरूप, दुश्चिन्तनरूप अनाचाररूप, अनिच्छितरुप, जो श्रावक के योग्य न हो, ज्ञान में तथा दर्शन में, संयमासंयम में, श्र त (ज्ञान) मैं, सामायिक-व्रत में, तीन गुप्तियों की, चार कषायों की पांच अणुव्रतों की, तीन गुण-व्रतों की, चार शिक्षाव्रतों की, (इस प्रकार) द्वादश प्रकार के श्रावकधर्म की, Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र जो खण्डना की हो, जो विराधना की हो, उसका, पाप मुझ को मिथ्या हो। व्याख्या : मनुष्य देव भी है, और राक्षस भी। वह सदाचार के मार्ग पर चले, तो अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है, और यदि वह दुराचार के कुमार्ग पर चले तो अपना पतन भी कर सकता है। मनुष्य के पास तीन शक्तियाँ हैं-मन, वचन और काय । प्रस्तुत पाठ में इन्हीं तीनों शक्तियों से दिन-रात में होनी वाली भूलों का परिमार्जन किया जाता है और भविष्य में अधिक सावधान रहने की सुदृढ़ धारणा बनाई जाती है। यह प्रतिक्रमण का सामान्य-सूत्र है । इसमें आचार-विचार-सम्बन्धी भूलों का प्रतिक्रमण किया जाता है। उक्त पाठ में कहा गया है, कि 'मैं स्थिरचित्त होकर कायोत्सर्ग करने की इच्छा करता हूँ। मैंने मन, वचन, काय से जो कोई अतिचार किया, सूत्र-विरुद्ध भाषण किया धर्म के प्रतिकूल आचरण किया, न करने योग्य काम लिया, आर्तध्यान एवं रौद्र-ध्यान, किया, मेरे मन में अशुभ विचार पैदा हुए, स्वीकृत नियमों का भंग किया, अयोग्य बस्तु की अभिलाषा की, श्रावकधर्म के विपरीत आचरण किया, ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की साधना में मन, वचन, और काय को स्थिर न रखा, क्रोध, मान, माया एवं लोभ-इन चार कषायों का दमन न किया। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत-श्रावक के इन बारह व्रतों की एक देश से खण्डना की हो, सर्व देश से विराधना की हो, उक्त दोषों में से किसी भी दोष का सेवन किया हो, तो वह मेरा दोष दूर हो।" Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र अतिचार की आलोचना Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रत के दूषण व्रत के चार दूषण होते हैं-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार। किसी भी स्वीकृत व्रत तोड़ने का संकल्प करना, अतिक्रम है। तोड़ने के साधन जुटाना, तैयार करना, ब्यतिक्रम है। व्रत को एक देश से, एक अंश से खण्डित करना, अतिचार है। व्रत को सर्वदेश से, पूर्णरूप से भंग करना, अनाचार है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या मूल : ज्ञानातिचार आगमे तिविहे पण्णचे । तंजहा-सुवागमे, अत्थागमे, तदुमयागमे । एयस्स सिरिनाणस्स जो मे अइयारो कओ, तं आलोएमि । जं वाइद्धं, वच्चामेलियं, हीणक्खरं, अच्चक्खरं पय-हीणं, विणय-हीणं, जोग-हीणं, घोस-हीण, सुट्ट दिन, दुठ्ठ पडिच्छियं । अकाले कओ सज्झाओ, काले न को सभाओ, असज्माए सज्झाइयं, सज्झाए न सज्झाइयं । जो मे देवसियो अइयारो कओ, तस्य मिच्छा मि दुक्कडं। अर्थ: आगम तीन प्रकार का कहा है । जैसे कि, शब्दरूप आगम, अर्थरूप आगम, उभयरूप आगम । इस ज्ञान का जो मैंने अतिचार किया हो, तो उस की मैं आलोचना करता हूँ। सूत्र को उलट-पलट कर पढ़ा हो, अन्य सूत्रों का पाठ अन्य सूत्रों से मिलाया हो, हीन-अक्षरयुक्त पाठ किया हो, अधिक,अक्षरयुक्त पाठ किया हो, पदहीन पढ़ा हो, विनयरहित पाठ किया हो, योग हीन पढ़ा हो, उदात्त भादि स्वररहित पढ़ा हो, पात्र-कुपात्र Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र का विचार लिए बिना पढ़ाया हो, दुष्ट भाव से ग्रहण किया हो। अकाल में स्वाध्याय किया हो, काल में स्वाध्याय न किया हो, अस्वाध्याय में स्वाध्याय किया हो, स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय न किया हो। जो मने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किया हो, तो उस का पाप मेरे लिए मिथ्या हो। व्याख्या : जैनधर्म में श्रु त (ज्ञान) को भी धर्म कहा है। बिना श्रु त-ज्ञान के चरित्र कैसा ? श्रु त तो साधक के लिए तीसरा नेत्र है, जिसके विना जीव शिव बन ही नहीं सकता । साधक को आगम-चक्षु कहा गया है । श्रुत की, आगम की आशातना साधक के लिए अत्यन्त भयावह है। जो श्रुत की अवहेलना करता है, वह साधना की अवहेलना करता है, धर्म की अवहेलना करता है। श्रत के लिए अत्यन्त श्रद्धा रखनी चाहिए। उसके लिए किसी प्रकार की अवहेलना का भाव रखना घातक है। प्रस्तुत पाठ में कहा गया है, कि--- "मैंने शब्दरूप, अर्थ-रुप एवं उभयरूप-तीनों प्रकार के आगम-ज्ञान के विषय में जो किसी प्रकार का अतिचार किया हो, तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ। प्रस्तुत पाठ में ज्ञान के चौदह अतिचार बताए गए हैं । जैसे-सूत्र को उलट-पलट कर पढ़ना, अन्य सूत्रों का पाठ अन्य-सूत्रों में मिला कर पढ़ना, हीन अथवा अधिक अक्षर पढ़ना, विनयरहित हो कर पढ़ना, उदात्त आदि स्वररहित पढ़ना, पात्र-अपात्र का विचार किए विना Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्याख्या ४३ स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय न करना, मृतक कलेवर आदि से युक्त अशुचि स्थान में स्वाध्याय करना और स्वाध्याय के योग्य शुचिस्थान में प्रमादवश स्वाध्याय न करना आदि ज्ञान के चौदह अतिचारों का वर्णन इस में किया गया है। दर्शनातिचार दर्शन सम्यक्त्व-रत्न पदार्थ के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ १. जिन-वचन में शङ्का की हो, २. पर-दर्शन की इच्छा की हा, ३. कर्म-फल के विषय में सन्देह किया हो, ४. पर पाखण्डी की प्रशंसा की हो, ५. पर-पाखण्डी का संस्तव (परिचय) किया हो, जो मैंने दिवस सम्बन्धी अतिचार किये हों, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । :५: प्रथम अहिंसा-अणुव्रत के अतिचार प्रथम-स्थूल प्राणातिपात-विरमणव्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ-- १. क्रोधादि-वश त्रस जीवों को गाढ़े बन्धन से बाँधा हो, २. गाढ़ा घाव किया हो, १. जिनभाषित तत्त्व में, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ३. अंगोपांगों का छेदन-भेदन किया हो, ४. प्रमाण से अधिक भार लादा हो, ५. भक्त - पान' का विच्छेद किया हो' जो मैंने दिवस सम्बन्धी अतिचार किये हों, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । : ६ : द्वितीय सत्य-अणुव्रत के अतिचार द्वितीय-स्थूल मृषावाद - विरमणव्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं आलोचना करता है, १. किसी को झूठा कलंक दिया हो, २. किसी का रहस्य प्रकट किया हो, ३. स्त्री-पुरुष का मर्म प्रकाशित किया हो, ४. किसी को मिथ्या उपदेश दिया हो, ५. कूट लेख लिखा हो, जो मैंने दिवस- सम्बन्धी अतिचार किये हों, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । श्रावक प्रतिक्रमण - सूत्र : ७: तृतीय अस्तेय - अणुव्रत के अतिचार तृतीय - स्थूल अदत्तादान - विरमणव्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ - १. चोर की चुराई वस्तु ली हो, २. चोर को सहायता दी हो, २. भोजन - पानी । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ३. राज्य - विरुद्ध काम किया हो । ४. झूठा तोल, झूठा माप किया हो, ५. वस्तु में मेल - संमेल किया हो, जो मैंने दिवस सम्बन्धी अतिचार किये हों, तस्स मिच्छामि दुक्कडं । : ८. चतुर्थ ब्रह्मचर्य - अणुव्रत के अतिचार चतुर्थ-स्थूल मैथुन- विरमण व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ१. इत्वरिक परिगृहीता से गमन किया हो, २. अपरिगृहीता से गमन किया हो, ३. अनङ्गक्रीडा की हो, ४. पर विवाह कराया हो, ५. काम भोग की तीव्र अभिलाषा की हो, - ४५ जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किये हों, तस्स मिच्छामि दुक्कडं । १. : & : पंचम अपरिग्रह - अणुव्रत के अतिचार पंचम - स्थूल परिग्रह- परिमाणव्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ :१. खेत, घर आदि के परिमाण का अतिक्रमण किया हो २. हिरण्य' सुवर्ण के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, विरोधी राज्य में व्यापार आदि के लिए प्रवेश किया हो । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. धन-धान्य के परिमाण का आतक्रमण कियाहा, द्विपद-चतुष्पद के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, कुप्य' के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, ५. जो मैंने दिवस सम्बन्धी अतिचार किये हों, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । : १० षष्ठ दिशा-परिमाण व्रत के अतिचार • षष्ठ- दिशा- परिमाण विरमणव्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ : १. ऊर्ध्वदिशा के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, २. अधोदिशा के परिमाण का अतिक्रमण किया हो, तिर्यक दिशा के परिमाण का अतिक्रमण किया हो ४. क्षेत्र - वृद्धि की हो, " ५. क्षेत्र - परिमाण के विस्तृत हो जाने से, क्षेत्रपरिमाण का अतिक्रमण किया हो, जो मैंने दिवस सम्बन्धी अतिचार किये हों, तस्स मिच्छा मिदुक्कडं 1 : ११ : सप्तम उपभोग - परिभोगपरिमाणव्रत के अतिचार सनम - उपभोग- परिभोग परिमाणव्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ : १. द्विपद = दास-दासी, चतुष्पद = गाय आदि पशु, २. बरतन आदि घर की सामग्री, ३. पूर्व, पश्चिम आदि तिरछी दिशा । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सचित्त'-प्रतिबद्ध का आहार किया हो, ३. अपक्व का आहार किया हो, ४. दुष्पक्व का आहार किया हो, ५. तुच्छ-औषधि का आहार किया हो, जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किये हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । : १२ : पंचदश कर्मादान पञ्चदश-कर्मादान के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ :इंगाल-कम्मे, वण-कम्मे, साड़ी-कम्मे भाडी-कम्मे, फोड़ी-कम्मे । दंत-वाणिज्जे, लक्ख-वाणिज्जे, रस-वाणिज्जे' केसवाणिज्जे, विस-वाणिज्जे। जंतपीलणिया-कम्मे, निल्लंच्छणिया-कम्मे, दवग्गिदावणिया-कम्मे, सर-दह-तालाव-सोसणिया-कम्मे, असइजण-पोसणिया-कम्मे । जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किए हों, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। १. मचित्त-संयुक्त, २. बड़, पीपल आदि के असार फल अथवा जिनमें डालने योग्य भाग अधिक हो, वे फल । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ श्रावक प्रतिक्रमण - सूत्र : १३ : अष्टम अनर्थदण्ड - विरमणव्रत के अतिचार अष्टम अनर्थ - दण्डविरमणव्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी में आलोचना करता हूँ :काम - कथा की हो, २. भाण्ड - चेष्टा की हो, १. ३. बिना प्रयोजन अधिक बोला हो, ४. अधिकरण जोड़ कर रखे हों, ५. उपभोग - परिभोग अधिक बढ़ाये हों, जो मैंने दिवस सम्बन्धी अतिचार किये हों, तस्य मिच्छा मि दुक्कडं | : {x: नवम सामायिक व्रत के अतिचार नवम - सामायिक व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी में आलोचना करता हूँ : १. मन का अशुभयोग प्रवर्ताया हो, २, वचन का अशुभयोग प्रवर्ताया हो, ३. काय का अशुभयोग प्रवर्ताया हो, ४. सामायिक की स्मृति न की ही, ५. सामायिक का काल पूर्ण न किया हो, Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या : १५ : दशम देशावकाशिक-व्रत के अतिचार दशम देशावकाशिक-व्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी में आलोचना करता हूँ - १. मर्यादित सीमा के बाहर की वस्तु मंगाई हो, २. मर्यादित सीमा के बाहर की वस्तु भेजी हो, ३. शब्द करके चेताया हो, ४. रूप दिखा कर अपना भाव प्रकट किया हो, ५. कंकर आदि फेंक कर दूसरे को बुलाया हो, जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किये हों, तो तस्य मिच्छामि दुक्कडं । एकादश पौषव्रत के अतिचार : १६ : एकादश - पौषधव्रत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ ૪૨ १. पौषधवत में शय्यासंथारा की प्रतिलेखना नको हो, २. उसकी प्रमार्जना न की हो ३. उच्चार- पासवणभूमि की प्रतिलेखना न की हो, ४. उसकी परिमार्जना न की हो, ५. पौषधव्रत का सम्यक् पालन न किया हो, Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : १७: द्वादश अतिथि-संविभागबत के अतिचार द्वादश अतिथि संविभागबत के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसको मैं आलोचना करता हूँ १. सूझती वस्तु सचित्त वस्तु पर रखी हो, २. अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु से ढंक दिया हो, ३. काल का अतिक्रमण किया हो, ४. अपनी वस्तु को दूसरे की बताया हो, ५. मत्सर-भाव से दान दिया हो, जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किये हों, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। संलेखना के अतिचार संलेखना के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ - १. इस लोक के सुख की वाञ्छा की हो, २. पर-लोक के सुख की वाञ्छा की हो, ३. असंयत जीवन को वाञ्छा की हो, ४. मरण की वाञ्छा की हो, ५. कामभोग की वाञ्छा की हो, जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किये हों, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टादश पापस्थानक अष्टादश पापस्थानक के विषय में, जो कोई अतिचार लगा हो, तो उसकी मैं आलोचना करता हूँ- . प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान- माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, पर-परिवाद, रति-अरति, मायामृषा, मिथ्यादर्शन शल्य इन अष्टादश पापस्थानों में से जो कोई दिवस-सम्बन्धी पापस्थान का सेवन किया हो, कराया हो, अनुमोदन किया हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । :२०: निन्यानवे अतिचार चौदह ज्ञान के, पांच सम्यक्त्व के आठ, बारह व्रतों के, पन्द्रह कर्मादान के, पांच संलेखना के, इस प्रकार निन्यानवे अतिचारों के विषय में, जो कोई दिवस-सम्बन्धी, अतिक्रम, ब्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, सेवन किया हो कराया हो, अनुमोदन किया हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । :२१: समग्र अतिचार-चितन मूल : तस्स सम्बस्स, देवसियस्स अइयारस्स, दुब्भासियस्स, दुविचिन्तियस्स, दुच्चिट्टियस्स आलोयंतो पडिक्कमामि, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमत्र-सूत्र अर्थ : उस सब की, (अर्थात्) दिवस-सम्बन्धी अतिचारों की, जो दुर्वचनरूप है, बुरे संकल्परूप हैं, काय की कुचेष्टारूप है-आलोचना करता हुआ प्रतिक्रमण करता है। प्रस्तुत पाठ में, समस्त अतिचारों की आलोचना की गई है। साधक कहता है, कि मैंने अपने मन में जो बुरा चिन्तन किया, वाणी से किसी के प्रति बुरा-भला कहा, काय से खोटी चेष्टा की हो, तो उस सब पाप की मैं आलोचना करता हूँ। प्रत्येक व्रत के अलग-अलग अतिचारों की आलोचना करने के बाद इस में समग्र-भाव से आलोचन किया गया है। : २२ द्वादशावर्त गुरु-वन्दनसूत्र मूल : इच्छामि खमा-समणो ! वंदिउं, जावणिज्जाए, निसीहियाए । अणुजाणह मे मिउग्गहं । निसीहि, अहोकायं, काय-संफासं । खमणिज्जो मे किलामो। अप्पकिलंताणं बहु-सुभेण भे दिवसो वइ. क्कतो! जत्ता मे ! जवणिज्जं च मे ! खामेमि खमा-समणो ! देवसियं वइक्कम । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या अर्थ : खमा-समणाणं देवसियाए, आसायणाए, तित्तिसन्नयराए जं किं चि मिच्छाए, मणदुक्कडाए- वय-दुक्कडाए- काय-दुक्कडाए, कोहाए, माणाए मायाए, लोहाए, सव्वकालियाए, सव्वमिच्छोवयाराएं सव्व धम्माइक्कमणाए ! जो मे (देवसियो) अइयारो कओ, तम्स खमा-समणो ! पडिक्कमामिनिंदामि- गरिहामि- अप्पाणं वोसिरामि । वन्दना की आज्ञा)। हे क्षमा-श्रमण ! यथाशक्ति पापक्रिया से निबृत हुए शरीर से (आपको) वन्दना करना चाहता हूँ। (अवग्रह-प्रवेश की आज्ञा. अतः मुझको परिमित अवग्रह की, अर्थात् अवग्रह में कुछ सीमा तक प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए। (गुरु की ओर से आज्ञा होने पर, गुरु के समीप बैठ कर) अशुभक्रिया को रोक कर (आपके) चरणों का अपनी काया से-मस्तक से और हाथ से स्पर्श (करता हूँ) (मेरे छूने से) आपको जो बाधा हुई वह क्षन्तव्य =क्षमा के योग्य है। (कायिक कुशल की पृच्छा) अल्प ग्लान वाले आप श्री का बहुत आनन्द से आज का दिन बीता ?) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र संयम-यात्रा की पृच्छा) आपकी संयम-यात्रा (निबधि है ? यापनीय की पृच्छा) और आपका शरीर, मन तथा इन्द्रियाँ पीड़ा से रहित हैं ? (गुरु की ओर से 'एवं' कहने पर स्वापराधों की क्षमा याचना) हे क्षमाश्रमण ! (मैं) दिवससम्बन्धी अपने अपराध को खमाता हूँ, चरण-करणरूप आवश्यक क्रिया करने में जो भी विपरीत अनुष्ठान हुआ हो, उससे निवृत्त होता हूँ ! (विशेष स्पष्टीकरण) आप क्षमा-श्रमण की दिवससम्बन्धिनी तैतीस में से किसी भी आशातना के द्वारा (आशातना के प्रकार) जिस किसी भी मिथ्या-भाव से की हुई, दुष्ट मन से की हुई, दुष्ट वचन से की हुई, क्रोध से की हुई, मान से की हुई, माया से की हुई, शरीर की दुश्चेष्टाओं से की हुई, लोभ से की हुई, सब काल में की हुई सब प्रकार के मिथ्या-भावोंसे पूर्ण सब धर्मों को उल्लंघन करने वाली आशातना से। जो भी मैंने (दिवस में) अतिचार किया हो, उसका प्रतिक्रमण करता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, विशेष निन्दा करता हूँ, आशातनाकारी अतीत आत्मा का पूर्ण रूप से परित्याग करता हूँ। १ जहाँ दिवस-सम्बन्धी प्रतिक्रमण हो, वहाँ 'देवसिओ' जहाँ राचि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या व्याख्या : यह गुरुवन्दनसूत्र है । षट् आवश्यक में तीसरा आवश्यक वन्दन है । गुरु को विनम्रभाव से वन्दन करना और सुख-शान्ति पूछना, शिष्य का परम कर्तव्य है । साधक पर गुरु का महान् उपकार होता है, क्योंकि गुरु ही साधना-पथ का निर्देशक होता है । अरिहन्तों के बाद में गुरु ही आध्यात्मिक साम्राज्य के अधिपति हैं । गुरु को वन्दन करना, भगवान् को वन्दन करना है । प्रस्तुत पाठ में गुरुवन्दन की पद्धति का वर्णन है । . आज का मानव धर्म - कर्तव्य से शून्य होता जा रहा है । उसके जीवन में स्वच्छन्दता की प्रवृत्ति बढ़ रही है । विनय एवं नम्रता के स्थान में अहंकार जागृत हो रहा है। आज वह पुरानी आदर्श पद्धति कहाँ है, कि गुरु के आते ही खड़ा हो जाना, सामने जाना, आसन अर्पण करना, और कुशलक्षेम पूछना | गुरु का विनय करने से तथा गुरु की सेवा करने से शास्त्र के गम्भीर ज्ञान की प्राप्ति होती है । ५५ शिष्य का गुरु के प्रति क्या कर्तव्य है ? गुरु को वन्दन कैसे किया जाता है ? कैसे उनकी सुख-शान्ति पूछी जाती है । यही वर्णन प्रस्तुत पाठ में किया गया है । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक की परिभाषा श्रद्धालुतां श्राति शृणोति शासनम्, दानं वपेदाशु वृणोति दर्शनम् । करोति संयमं, कृन्त त्यपुण्यानि तं श्रावकं प्राहुरी विचक्षणाः ॥ 'श्रावक शब्द में तीन अक्षर हैं- 'श्री' 'व' तथा 'क' | जो श्रद्धा-शील है, जो यथा शक्ति दान करता है, जो पाप का क्षय करता है, और जो संयम की साधना में संलग्न है - वस्तुतः वही सच्चा श्रावक है । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र श्रावक सत्र Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रमण जं दुक्कडं ति मिच्छा, तं भुज्जो कारणं अपूरेतो। तिबिहेणं पडिक्कतो; __ तस्स खलु दुक्कडं मिच्छा ।। जो साधक त्रिविध योग से प्रतिक्रमण करता है, जिस पाप के लिए मिच्छा मि दुक्कडं दे देता है, फिर भविष्य में उस पाप को नहीं करता है-वस्तुतः उसीका दुष्कृत मिथ्या अर्थात् निष्फल होता है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल-सूत्र मूलः चत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलि-पएणत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमाअरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि-पएणत्तो धम्मो लोगुत्तमो । चत्तारि सरणं पब्वज्जामिअरिहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि साहू सरणं पब्बज्जामि, केवलि-पएणचं धम्म सरणं पव्वज्जामि । अर्थ : संसार में चार मंगल हैं अरिहंत, सिद्ध, साधु और जिन-भाषित धर्म । संसार में चार उत्तम हैंअरिहंत, सिद्ध, साधु और जिन-भाषित धर्म । संसार में चार शरणरूप हैंअरिहन्त,सिद्ध, साधु और जिन-भाषित धर्म । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र व्याख्या: मंगल की अभिलाषा किसको नहीं है । संसार का प्रत्येक प्राणी मंगल चाहता है । संसार में सर्वश्रेष्ठ मंगल चार ही हैं, ये कभी भी अमंगल नहीं होते । ये सदा मंगलरूप हैं । संसार में उत्तम क्या है ? धन, जन, तन, ? कभी नहीं। ये सब नश्वर तत्त्व हैं ? आज हैं, कल नहीं । अतः ये सब श्रेष्ठ (उत्तम) नहीं हो सकते । उत्तम चार ही हैं, ये कभी अनुत्तम नहीं होते। . संसार में जितने भी पदार्थ हैं, वे मनुष्य को शरण नहीं दे सकते । धम, जन, राज्य एवं वैभव-ये सब मिथ्या हैं, क्षणिक हैं । फिर शरण क्या देंगे ? सच्चे शरण चार हैं, जो कभी अशरण रूप नहीं होते । :२४: सम्यक्त्व-सूत्र मूल : अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सु-साहुणो गुरुणो । जिणपएणत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मए गहियं ।। एयस्स सम्मत्तस्स समणोवासएणं पंच अइयारा पेयाला जाणियब्वा, न समायरियव्वा । तं जहा--संका, कंखा, वितिगिच्छा, पर-पासंडपसंसा, पर-पासंड-संथवो । जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या अर्थ : अरिहंत मेरे देव" हैं, जीवनपर्यन्त शुद्ध साधु मेरे गुरू हैं, जिन-भाषित तत्व मेरा धर्म है । इस सम्यक्त्व को मैंने ग्रहण किया है। श्रमणोपासक को इस सम्यक्त्व के पांच अतिचार प्रधानरूप से जानने योग्य हैं,किन्तु आचरण के योग्य नहीं हैं। जैसे कि-शका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर-पाखण्डप्रशंसा, पर-पाखण्ड-संस्तव । जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किया हो, उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो। व्याख्या। प्रस्तुत पाठ में सम्यक्त्व का स्वरूप बताया गया है, और उसके पांच अतिचार भी बताए गए हैं। जब तक सम्यक्त्व की संशुद्धि नहीं हो जाती, तब तक व्रतों की आराधना एव पालना भी सम्यक्प से नहीं हो सकती । 'दसण-मूलो धम्मो',धर्म का मूल सम्यक्त्व है । अतः बारह व्रतों के स्वरूप से पूर्व दर्शन का स्वरूप बताया गया है । बारह व्रत भी दर्शन-मूलक ही होते हैं। : २५ प्रथम अहिंसा अणुव्रत मूल : पढ़म अणुव्वयं थूलाओ पाणाइवायाओ वेर मणं । . तस-जीवे-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियपंचिंदिय-जीवे संकप्पओ हणण-हणावणपच्चक्खाणं । स-सरीरं स-विसेस-पीडाकारिणो, Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र स-सम्बन्धिय स-विसेस पीड़ाकारिणो वा वज्जिऊण, जावज्जीवाए, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसो, कायसा । एयरस थूलग-पाणाइवाय वेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा पेयाला जाणियध्वा, न समायरियव्वा । तं जहा-बंधे, वहे, छविच्छेए, अइभारे, भत्त-पाण-विच्छेए । जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । अर्थ : प्रथम अणुव्रत है-स्थूल प्राणातिपात से (जीवहिंसा से) विरत होना, अलग होना । स जीव-द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय जीवों को, संकल्प पूर्वक, मारने मरवाने का प्रत्याख्यान (त्याग) है । स्व-शरीर को विशेष पीड़ा देने वाले को, तथा स्व परिजन के शरीर को विशेष पीड़ा देने वाले को छोड़ कर, जीवनपर्यन्त दो करण तीन योग से(स्थूलहिंसा) न करूं', न करवाऊँ. मन से, वचन से, काय से। इस स्थूल प्राणातिपात-विरमणव्रत के श्रमणोपासक को (श्रमणोपासिका को) पाँच अतिचार प्रधान (मुख्य) जानने योग्य हैं, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं हैं। १, श्राविका 'समणोवासियाए' पाठ याद करे Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या जैसे -बन्ध = : बाँधना, वध = मारना, छविच्छेद = चमड़ी का छेदन, अतिभार X अधिक भार लादना, भक्त पान विच्छेद = खाने-पीने में अन्तराय डालना । जो मैंने दिवस सम्बन्धी अतिचार किये हों, तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो । ६३ कमाख्या : विचार : वस्तु तत्व को समझने के लिए विचार की, ज्ञान की आवश्यकता है । संसार के सब क्लेश एक मात्र आत्मा के अज्ञान पर ही आधारित हैं । अज्ञान को दूर करने का साधन, आत्मज्ञान के सिवा, अन्य क्या हो सकता है ? आत्मा का स्वरूप क्या है ? कर्म क्या है ? बन्धन क्या है ? कर्म आत्मा के क्यों लगते हैं ? आदि प्रश्नों का सुन्दर समाधान सम्यग्ज्ञाम है । जव तक Right Knowledge न हों, तब तक आत्मा भव-बन्धनों से विमुक्त नहीं हो सकता । आचार : विचार का फल, ज्ञान का फल है - आचार अर्थात् विरति । ज्ञान होने पर भी यदि विषयों मे विरक्ति नहीं आए, तो समझना चाहिए वह ज्ञान ही कैसा ? सूर्योदय हो जाने पर भी अन्धकार बना रहे, यह कैसे ? विचार जब क्रिया का रूप लेता है, तब उसको आचार कहा जाता है । साधक - जीवन में जब तक Right Conduct न हो, तव तक ज्ञान पाना भी सार्थक नहीं होता । अतः शास्त्रकार कहते हैं - 'ज्ञानस्य फलं विरतिः ।' आचार - विरति के भेद विरति के दो भेद हैं - देश - विरति और सर्व-विरति । देश - विरति को अणुव्रत और सर्व-विरति को महाव्रत कहते हैं । देश विरति को Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र शास्त्र में श्रावक-धर्म और सर्व-विरति को श्रमण-धर्म भी कहा गया है। श्रावक के पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत होते हैं। श्रावक द्वादशवती होता है, और श्रमण पंच महाव्रती होता हैं। चरित्ररूप धर्म के ये दो भेद पात्र अर्थात्. अधिकारी की न्यूनाधिक योग्यता के आधार पर किए गए हैं, वैसे धर्म तो अपने आप में एक अखण्ड तत्व होता है। अहिंसा: प्रत्येक प्राणी को अपना जीवन प्रिय है। सब अपने जीवन की सुरक्षा चाहते हैं। परन्तु यह सुरक्षा बिना अहिसा के केस हो सकेगी? अत: अहिंसा आध्यात्मिक जीवन की नींव है। व्रतों में यह सब से पहला व्रत है। भगवान् महावीर ने अहिंसा को भगवती कहा है । सब धर्मो में यह श्रेष्ठ धर्म है। अहिंसा का मार्ग-खांडे की धार पर चलने जैसा है। अहिंसा से शान्ति प्राप्त होती है। क्या हिंसा से भी कभी शान्ति मिल सकती है ? Nothing good ever comes of violence. हिंसा में से कभी अच्छा परिणाम नहीं आया है और जिसमें से अच्छा परिणाम न आए, वह धर्म कैसे हो सकता? क्रू र व्यक्ति अहिंसा का पालन नहीं कर सकता । अहिंसा के पालन के सदस्य हृदय ही विशेष रूप से अपेक्षित है। Paradise is open to all kind hearts. स्वर्ग के द्वार दयाशील व्यक्तियों के लिए सदा खुले रहत है । हिसा में अपार शक्ति है । प्रथम अणुव्रत __स्थूल प्राणातिपात (हिंसा) से विरत हो जाना पहला अणुव्रत है । यहाँ पर स्थूल शब्द से द्वीन्द्रिय जीव से पञ्चेन्द्रिय जीव तक ग्रहण किए गए हैं। किसी जीव के प्राणों का अतिपात (विनाश) प्राणातिपात कहा जाता है । प्राणतिपात दो प्रकार का होता है-संकल्पज और आरम्भज सवरुप अर्थात् जान-बूझ कर द्वीन्द्रिय आदि त्रसजीवों का मांस, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या अस्थि,चर्म,नख, केश, दांत आदि के लिए या वैर-पूर्ति के लिए मारना संकल्पज प्राणातिपात है । आरम्भ से पैदा होने वाले प्राणातिपात को आरम्भज कहते हैं-जैसे, भूमि खोदने, घर बनाने, व्यापार करने आदि के रूप में । प्रथमव्रत की साधना करने बाला श्रावक, उक्त दोनों हिसाओं में से जान-बूझ कर निरपराध प्राणियों की संकल्पज हिंसा का तो जीवन भर के लिए त्याग कर देता हैं । परन्तु आरम्भज हिंसा को श्रावक पूर्णरूप से नहीं छोड़ सकता । क्योंकि गृहस्थ-जीवन में स्थावर (पृथ्वी, जल, तेजस् वायु और वनस्पतिकाय) की हिसा से पूर्णरूप में बचा नहीं जा सकता । अतः स्थावर-हिंसा की वह अपनी परिस्थिति के अनुसार उचित मर्यादा कर सकता है। अतिचार: प्रथम अणुव्रत के पाँच अतिचार हैं। अतिचार व्रत का दूषण है। अतः वह जानने योग्य तो है, पर आचरण करने योग्य नहीं होता। अतः उसका आचरण नहीं करना चाहिए । अतिचार का सेवन करने से गृहीत व्रत दूषित हो जाता है । अहिंसा-अणुव्रत का पालन करने वाले श्रावकों को निम्नलिखित दोषों से बचना चाहिए। बन्ध: रज्जु आदि से किसी प्राणी को बाँधना, बन्ध कहलाता है । बन्ध के दो भेद होते हैं-द्विपद-बन्ध और चतुष्पद-बन्ध । दासी आदि का बन्ध, तोता मैना आदि का बन्ध, द्विपद-बन्ध है । गाय, भैस और घोड़ा आदि का बन्ध, चतुष्पदबन्ध है । उक्त बन्ध दो कारणों से होता है - प्रयोजन के लिए, अर्थ के लिए । और बिना प्रयोजन के (अनर्थ के लिए) बिना प्रयोजन के बिना मतलब के श्रावक किसी को बाँधता नहीं है, क्योंकि वह अनाचार हो जाएगा। अर्थ (प्रयोजन) बन्ध के भी दो भेद Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र है-निरपेक्ष और सापेक्ष । दया-शून्य कठोर बन्ध को, गाढ़बन्ध को निरपेक्षबाध कहते हैं यह अतिचार है। इस प्रकार का बन्ध भी श्रावक का धर्म नहीं। दूसरा सापेक्षबन्ध है। प्रयोजन आने पर जो कोमल भाव से बन्ध किया जाता है, उसको सापेक्षवन्ध करते हैं। दास-दासी और पशु आदि को यदि वे उद्दण्डता आदि करते हों, तो उनको सुधारने के लिए जो अन्तर में कोमल-भाव रखते हुए बाहर में मर्यादित कठोर बन्धन किया जाता है, उसको सापेक्षबन्ध कहते हैं। वध : वधका अर्थ है-ताड़ना, पीटना और मारना । प्राणों का अपहरण किए बिना मनुष्य, पशु एवं पक्षी आदि का जो दण्ड आदि साधनों से ताडन किया जाता है, वह वध है। इसके भी दो भेद हैं -- अर्थ के लिए और अनर्थ के लिए। उसके फिर दो भेद हैं.--सापेक्ष और निरपेक्ष । अपराधी या उद्दण्ड आदि व्यक्ति को दण्ड देने के लिए, कोमल-भाव से सुधारने की भावना से, जो ताड़न किया जाता है, वह अतिचाररूप नहीं होता । अतिचार की सीमा निरपेक्षता में है, सापेक्षता में नहीं छविच्छेद : छवि (त्वचा) आदि का छेदन करना। इसके भी दो भेद हैं-सापेक्ष और निरपेक्ष । करुणा-रहित हो कर किसी की त्वचा (चमड़ी) आदि का छेदना, काटना, निरपेक्ष छविच्छेदन है । और करुणा रखते हुए किसी रोगी की चीर-फाड़ करना सापेक्ष छविच्छेद कहा जाता है । अतिभार : किसी मनुष्य अथवा किसी पशु पर शक्ति से अधिक भार लादना, अतिभार नामक अतिचार है। श्रावक को गाड़ी आदि से अपनी आजीविका नहीं चलानी चाहिए। यदि कभी प्रयोजनवशं चलानी ही पड़े तो सापेक्ष और निरपेक्ष का ध्यान अवश्य रखना चाहिए । मनुष्य, पशु आदि पर इतना भार नहीं लादना चाहिए, जिसको उनको अतिपीड़ा हो, और उनके अंग-भंग हो जाने की सम्भावना हो। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या भक्त-पान- विच्छेद : भक्त (भोजन) और पान (पानी); इनके विच्छेद (अन्तराय) को भक्त-पान-विच्छेद करते हैं । इसके भी दो भेद हैं - सापेक्ष और निरपेक्ष श्रावक का यह कर्तव्य है, कि अपने आश्रित मनुष्य एवं पशु आदि के भोजन-पान का यथावसर पूरा ध्यान रखे । निरपेक्ष हो कर किसी के भक्त-पान में अन्तराय नहीं डालनी चाहिए। हाँ, रोगादि कारण से भक्त-पान न देना हो तो वह सापेक्ष है, सप्रयोजन है । अत: उसकी गणना अतिचार में नहीं की जाती । : २६ : मूल : ૬૭ द्वितीय सत्य-अणुव्रत बीयं अणुव्वयं धूलाओ मुसावायाओ वेरमणं । से मुसावाए पंचविहे पन्नते । 1 तंजा - कन्नालीए, गवालीए, भोमालीए, णासावद्वारे (थापणमोसे), कूड - सक्खिज्जे । इच्चेव माइयस्स धूल- मुसावायस्स पच्चक्खाणं । जावज्जीवाए, दुविहं तिविहेणं, न करेमि न न कारवेमि' मणसा' वयसा' कायसा । एयस्स बीयस्स धूलग मुसावायवेरमणस्स समगोवास एवं पंच अइयारा जाणियव्वा' न समायरियव्वा । तं जहा - सहसान्भवखाणे, रहस्साब्भक्खाणे, Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र 'सदारमंत-भेए, मोसोवएसे' कूडलेह-करणे । जो मे देवसिओ अइयारो कओ' तस्स मिच्छा मि दक्कडं। अर्थ: द्वितीय अणुव्रत है- स्थूल मृषावाद (झूठ) से विरत होना-अलग होना। और वह मृषावाद पांच प्रकार का कहा गया है। जैसे - कन्या-सम्बन्धी झूठ, गाय-सम्बन्धी झूठ, भूमिसम्बन्धी झूठ, धरोहर-सम्बन्धी झूठ, झूठी साक्षी(गवाही सम्बन्धी झूठ) । इत्यादि स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान (त्याग) जीवन-पर्यन्त, दो करण तीन योग से-न बोलू, न बुलाऊँ, मन से, वचन से काय से । इस द्वितीय स्थूल मृषावादविरमणव्रत के श्रमणोपासक को (श्रमणोपासिका को) पाँच अतिचार जानने के योग्य हैं, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं हैं। जैसे-सहसाभ्याख्यान-बिना सोचे विचारे किसी पर कलंक लगाना, रहस्याभ्याख्यान = रहस्य की (गुप्त) बातों को प्रकट करना, स्वदारा-मंत्र-भेद= स्वपत्नी के मन्त्र (गुप्त मर्म) को प्रकट करना, मृषो. पदेश मिथ्या उपदेश करना, कूट-लेख=करण = झठा लेख लिखना। जो मैं ने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किए हों, तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो । श्राविका (सभत्तार-मंतभेए) पाठ याद करें। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ६७ व्याख्या : सत्य : . सत्य परम धर्म । सत्य से बढ़कर अन्य दूसरा कोई धर्म नहीं है । भगवान् महावीर ने सत्य को 'भगवान्' कहा है । 'त सच्चं खु भगवं ।' अर्थात् सत्य ही भगवान् है । सत्य में स्थिर रहने वाला व्यक्ति मृत्यु को भी जीत लेता है । सत्य-चिन्तन सत्य-भाषण और सत्य आचरण से जीवन पवित्र बन जाता है । There is nothing so delightful as the hearing or the speaking of th: truth. इस विगट विश्व में सत्यवचन सुनने और सत्यवचन बोलने से अधिक मधुर आनन्द कुछ भी नहीं हैं सत्य, लोक का सार है। द्वितीय अणवत: स्थूल मषावाद (असत्य) से विरत हो जाना, अलग हो जाना द्वितीय अणुव्रत है । सत्य धर्म है, और असत्य पाप है । असत्य के पांच भेद हैं । अयवा जिन कारणों से मनुष्य असत्य बोलता है वे असत्य के कारण पाँच हैं, जो ये हैंकन्यालीक: ___ कन्या के लिए अलीक (असत्य) बोलना, कन्यालीक है । यहाँ कन्या के विषय में जो झूठ बोलने का निषेध है, वह समस्त मनुष्यजाति के विषय में झूठ बोलने का निषेध समझना चाहिए। गुण-सम्पन्न कन्या या वर को गुण-हीन कहना, और गुण-होन को गुण-सम्पन्न कहना, कन्या-सम्बन्धी असत्य है। गवालीक: गाय के विषय में अलीक (असत्य) कहना । गाय से यहाँ पर अन्य पशुओं का भी ग्रहण हो जाता है। अच्छी गाय को बुरी और बुरी को अच्छी कहना। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र भूमि-अलीक: भूमि के लिए अलीक बोलना, असत्य बोलना । भूमि के अन्य अचित्त वस्तुओं का ग्रहण कर लिया जाता है। सोना चॉदी-आदि के विषय में भी असत्य नहीं बोलना चाहिए । न्यासापहार : किसी को धरोहर रखी वस्तु के लिए इन्कार कर देना । धरोहर को न लौटाना । इसकी न्यास ( रखी हुई) वस्तु का अपहरण (चुराना) कहते हैं। कूट-साक्ष्य : अपने लाभ के लिए और दूसरे की हानि के लिए, जो न्यायाधीश अथवा पंच के सम्मुख झूठी गवाही दी जाती है, उसको कूट-साक्ष्य, कूटसाक्षी कहते हैं। अतिचार : प्रथम अणुव्रत की भाँति इसके भी पांच अतिचार है। व्रत के चार दूषण होते हैं-अतिक्रम-गृहीत व्रत को तोड़ने का मन में संकल्प करना, व्यतिक्रम-व्रत को भंग करने के लिए साधन जुटाना, अतिचार, व्रत तोड़ने की तैयारी, पर अभी तक तोड़ा नहीं, अनाचार-स्वीकृत मर्यादा का सर्वथा लोप कर देना । द्वितीय अणुव्रत के पाँच अतिचार है, जो जानने योग्य हैं । (परन्तु) आचरण योग्य नहीं हैं। सहसाभ्याख्यान : सहसा (विना बिचारे) अभ्याख्यान किसी के सम्बन्ध में कुछ का कुछ कह देना, मिथ्या दोष लगाना, झूठा कलंक देना। १. बिचार किये बिना ही आवेश में आ कर झट किसी पर मिथ्या आरोप लगा देना सहसाभ्याख्यान है। जैसे-'तू चोर है, जारसुत्र है !, - पूज्य धासी लालजीम० कृत उपासक-दशांग टीका पृ० २८६ सहसा (बिना विचारे) बोला हो। -कांन्फरेन्स द्वारा प्रकाशित प्रतिक्रमण-सूत्र पृ० २४ ।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ७9 रहस्याभ्याख्यान : किन्हीं से व्यक्तियों को रहसि. (एकान्त स्थान में). बाल-चीत करते देख कर कहना, कि 'ये राज्य-विरुद्ध , आदि मन्त्रण कर रहे थे।' किसी पर व्यर्थ का सन्देह करना । स्वदारामंत्रभेद : स्वदारा (अपनी पत्नी) के मन्त्र (मर्मभरी बात) को भेद (प्रकट) करना । इसी प्रकार पत्नी के लिए स्व-पति-मन्त्र-भेद भी त्याज्य है। मृषोपदेश : मृषा (असत्य पूर्ण) झूठा उपदेश (शिक्षा) करना । जैसे 'यज्ञ करो' तुम्हें स्वर्ग मिलेगा, आदि कहना । झूठे उपदेश से भोला मनुष्य गलत रास्ते पर लगता है। कूट (असत्यभूत) झूठा, लेख (हस्ताक्षर वा मुद्रांकन) जाली दस्तखत करना । बनावटी हस्ताक्षर करना, नकली मुहर बनाना आदि कूटलेखकरण है। : २७ : तृतीय अस्तेय-अणुव्रत मूल : तइयं अणुव्वयं थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं । से य अदिएणादाणे पंचविहे पन्नते। तंजहा-खत्त-खणणं- गठि-भेअणं, जंतुग्घोडणं, पडियवत्थुहरणं ससामिअवत्थुहरणं । इच्चेवमाइयस्स थूल-अदिएणादाणस्स पच्चक्खाणं । जावज्जीवाए, दुविहं तिविहेणं न करेमि, Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ : श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र न कारवेमि मणसा, वयसा, कायसा । एयस्स तइयस्स थूलग-अदिण्णादाण-वेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियब्बा, न समायरियव्वा । तंजहा-तेनाहडे, तक्करप्पओगे, विरुद्ध-रज्जाइक्कमे, कूडतुल्ल-कूडमाणे, तप्पडिस्वगववहारे । जों मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। तृतीय अणवत है--स्थूल अदत्तादान (चोरी) से विरत होना। अदत्तादान (चोरी) पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार से है-खात खनना-दीवार आदि में सेंध लगाना, गांठ खोलना, ताला तोड़ना, पड़ी हुई वस्तु को लेना, दूसरे की वस्तु को लेना इत्यादिक स्थूल अदत्तादान (चोरी) का प्रत्याख्यान (त्याग) करना। जीवनपर्यन्त, दो करण तीन योग से, न करू', न करवाऊँ, मन से, वचन से, काय से । इस तृतीय स्थूल अदत्तादान-विरमणव्रत के श्रमणोपासक को पांव अतिचार जानने योग्य हैं, (किन्तु) आचरण करने योग्य नहीं हैं। जैसे कि-स्तेन (चोर) द्वारा आहृत (चुराई हुई) वस्तु ली हो, तस्कर (चोर) को प्रयोग (प्रेरणा दी) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या हो, सहायता दी हो, विरुद्ध (विरोधी) राज्य में अतिक्रम (व्यापार आदि निमित्त) प्रवेश किया हो, कूट (झूठा) तोल कूट (झठा) नाप किया हो, वस्तु में तत्प्रतिरूपक (तत्-सदृश) वस्तु का व्यवहार (मिलावट) किया हो। जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किया हो, तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो । व्याख्या : अस्तेय : - दूसरे की सम्पत्ति पर अनुचितरूप में अधिकार करना चोरी है। मनुष्य को अपनी आवश्यकता, अपने श्रम के द्वारा प्राप्त साधनों से ही पूर्ण करनी चाहिए। यदि किसी अवसर पर दूसरे की किसी वस्तु को लेना भी हो, तो बिना उसकी अनुमति के नहीं लेना चाहिए । बिना उसकी आज्ञा के अथवा बल-प्रयोग से लेना स्तेय है, चोरी है । गृहस्थजीवन में साधक पूर्णरूप से चोरी का त्याग नहीं कर सकता, तो कम से कम सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टि से सर्वथा अनुचित चोरी का त्याग तो करना ही चाहिए। जीवन को अधिक से अधिक प्रामाणिक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए । मनुष्य को अपने क्षणिक लाभ एवं स्वार्थ के लिए अपने धर्म को भी नहीं भूलना चाहिए । Dishonesty is a forsaking of permanent for temporary advantages. अप्रमाणिक होना अथवा चोरी करना, क्षणिक लाभ के लिए शाश्वत श्रेय को नष्ट करना है। तृतीय अणव्रत : तृतीय अणुव्रत है-स्थूल अदत्तादान (चोरी) से विरत होना । दत्त का आदान धर्म है, और अदत्त का आदान अधर्म । चोरी पाच प्रकार से की जाती है। जैसे-संध लगाना, गाँठ खोलना, किसी का Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र ताला तोड़ना, किसी की पड़ी हुई वस्तु को ले लेना तथा दूसरे की वस्तु को बिना अनुमति के उठा लेना ! अतिचार : इस तृतीय अणुव्रत के पाँच अतिचार है। इसके चार दूषण भी हैं-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । व्रत का एक देश से ण्डित होना अतिचार है और सर्वदेश से भंग होना अनाचार है। प्रस्तुत अणुवत के पाँच अतिचार इस प्रकार से हैं, जो श्रमणोपासक को जानने के योग्य तो हैं, (परन्तु) आचरण योग्य नहीं हैं। स्तेनाहत : चोर द्वारा चुराई वस्तु को लेना, स्तेन-आहृत है। चोरी की वस्तु सदा सस्ती बेची जाती है। जिससे लेने वाले को लोभ आ जाता है । चोर की चुराई वस्तु को लेना अतिचार है। तस्कर-प्रयोग : चोर को चोरी करने की प्रेरणा देना, तस्कर-प्रयोग है। चोरी करने वाले के समान चोरी कराने वाला भी पाप का भागी है। चोर को चोरी करने में सहायता देना भी तस्कर प्रयोग है। विरुद्ध-राज्यातिक्रम : जो राजा या देश परस्परविरोध रखते हैं, लड़ते हैं, उन राज्यों को विरुद्धराज्य कहते, हैं। विरुद्ध राज्य में जाने-आने को विरुद्ध राज्य का अतिक्रम, उलंघन कहते हैं । अथवा विरुद्ध राज्य में व्यापार आदि के लिए चोरी से प्रवेश करना । कूट-तोल कूट-मान : ___ कम तोलना और कम नापना, कूट-तोल एवं कूट-मान है। किसी से कोई वस्तु लेते समय अधिक तोलना, अधिक नापना और देते समय कम तोलना और कम नापना । लेने-देने के नाप-तोल अलग-अलग रखना भी पाप है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या प्रतिरूपक व्यवहार : ___वस्तुओं में नेल-सभेल करना- मिलावट करना, प्रकिरूपक व्यवहार हैं, इसको तत्प्रतिरूपक व्यवहार भी कहते हैं.। अच्छी वस्तु में बुरी वस्तु मिला देना, अच्छी दिखा कर बुरी देना, यह सब तत्प्रतिरूपक व्यवहार है। । २८ : चतुर्थ ब्रह्मचर्य-अणुव्रत मूल : चउत्थं अणुव्वयं थूलाओ मेहुणाओ बेरमणं । सदार, संतोसिए अवसेस-मेहुण-विह्नि-पच्चक्खाणं । जावज्जीवाए दिव् दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवमि, मणसा,वयसा कायसा। माणस्सं तिरिक्ख-जोणियं, एगविहं एगविहेणं, न करेमि, कायसा । एयस्स चउत्थस्स थूलग-मेहुण-वेरमणस्स, समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्या, न समायरियब्वा । तंजहा-इत्तरिय-परिग्गहियागमणे. रिग्गहिया-गमणे, अणंग-क्रीड़ा पर-विवाहकरणे, काम-भोग-तिव्वाभिलासे : १ श्राविका 'सभत्तार-संतोसिए' पढ़े। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ : श्रावक प्रतिक्रमण-सून जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । चतुर्थ अणुव्रत है-स्थूल मैथुन (संभोग) से विरत होना। स्वपत्नी में संतोष रख कर, (स्त्री स्व-पति में संतोष रख कर) अन्य सब प्रकार की मैथुन विधि (अबह्मचर्य) का प्रत्याख्यान (त्याग) करना। जीवनपर्यन्त देवता-सम्बन्धी, दो करण तीन योग, से न करूं', न कराऊँ, मन से वचन से, काय से । मनुष्य तथा तिर्यचं-सम्बन्धी, एक करण, एक योग, से न, करूं, काय से। इस चतुर्थ स्थल मैथुल-विरमण-व्रत के श्रमणोपासक को पाँच अतिचार जानने योग्य है, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं हैं। जैसे कि-इत्त्वरिक (अल्पकालिक) परिगृहीता (रखैल स्त्री) से गमन (व्यभिचार) करना, अपरिगृहीता (वेश्या आदि) से गमन (व्यभिचार) करना, अनंग (अप्राकृतिक रीति) से क्रीड़ा (कामचेष्टा) करना, पर (दूसरे के लड़के-लड़की) का अथवा पर (स्वयं अपना ही दूसरा) विवाह करना, कामभोग की तीव्र अभिलाषा करना। जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किए हों, तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ख्यिा ७७ व्याख्या : ब्रह्मचर्य : ____ ब्रह्मचर्य सब तपों में सबसे बड़ा तप है । ब्रह्मचर्य, शील और सदाचार जीवनविकास के लिए आवश्यक है । ब्रह्मचर्यव्रत सदाचार के लिए है, और सदाचार ही जीवन की आधारशिला है । मनुष्य के पास विद्वता हो या न हो, उसके पास लक्ष्मी हो या न हो, परन्तु उसमें सदाचार अवश्य होना चाहिए । Not education,but charac ter is man's greatest need and man's greatest saf eguard. शिक्षण नहीं, पर चारित्र ही मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता है, और सदाचार से ही मनुष्य की रक्षा होती है। काम वा सना से मनुष्य के अध्यात्म-जीवन का विनाश हो जाता है । अतः वासना पर संयम रखने के लिए ब्रह्मचर्य को आवश्यक्ता है । गृहस्थजीवन में पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन शक्य नहीं है । अतः उसे स्व-दारसन्तोष व्रत और स्त्री को स्वपतिसन्तोषव्रत का पालन करना चाहिए। चतुर्थ अणवत: चतुर्थ व्रत है-स्थूल मैथुन (संभोग) से विरत होना,पुरुष को स्वपत्नी में सन्तोष रख कर,स्त्री को स्व-पति में सन्तोष रखकर अन्य सब प्रकार के मैथुनों का त्याग करना । स्वदार-सन्तोष-व्रत की साधना करने वाले गृहस्थ की वासना सीमित हो जाती है, जिससे वह असीम कामेच्छा से बच जाता है । उक्त व्रत का पालन करने से दाम्पत्य-मर्यादा भी सुरक्षित होती है। पति एवं पत्नी में परस्पर विश्वास पैदा होता है । प्रस्तुत व्रत के भी चार दूषण हैं-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । अनाचार में व्रतभङ्ग हो जाता है, अतिचार में व्रत देशनः खण्डित होता है । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र अतिचार : __ ब्रह्मचर्यव्रत के पाँच अतिचार हैं, जो श्रमणोपासक को जानने योग्य तो हैं, (परन्तु) आचरण के योग्य नहीं । वे इस प्रकार से हैंइत्वरिक-परिगृहीतागमन : कुछ समय के लिए पैसा देकर रखैल स्त्री को पत्नी के रूप में रखना, और उसके साथ गमन करना । स्त्री भी रखैल पति रख लेती हैं, जैसे आजकल पश्चिम के देशों में है । उक्तव्रतकी साधना करने वाले को ऐसा करना उचित नहीं है । अपरिगृहीता-गमन : जो विवाहित न हो, ऐसी वेश्या तथा विधवा, परित्यक्ता आदि स्त्री के साथ कामभोग का सेवन करना । स्त्री का विधुर आदि के साथ सम्बन्ध रखना । यह भी व्रत की सीमा से बाहर है । अतः त्याज्य है । अनंग-क्रीड़ा : ____ अप्राकृतिक रीति से कामचेष्टा करना । कामसेवन के लिए जो प्राकृतिक अंग हैं, उनके अतिरिक्त शेष समस्त अंग, काम सेवन के लिए अनंग हैं । उन से कामक्रीड़ा करना अनंग-क्रीड़ा है । पर-विवाहकरण : दूसरे के लड़के लड़कियों का विवाह कराना । कर्तव्य-वश अपने कुटुम्बीजनों के लड़के-लड़कियों का विवाह करना पड़े, तो वह अतिचार में नहीं होगा। परन्तु किसी लोभ वश दूसरों के विवाह का जोड़१. बेश्या, विधवा या परि यक्का.......! -'गृहस्थ-धम' में पूज्य जवाहरलालजी म. - भाग २, पृ० २१० पाणि-ग्रहण की हुई पत्नी से भिन्न वेश्या, कन्या, विधवा...... ! -डपासकदशांग' में पूज्य घासीलालजी म० पृ० २६८ । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या तोड़ लगाया जाए, तो वह अतिचार है । कुछ बिचारक पर-विवाद का एक अर्थ यह भी करते हैं, कि अपना स्वयं का दूसरा विवाह न करना। तीव्र-काम-भोगलिभाषा: कामाभिलाषा को मन्द करना चाहिए, क्षीण करना चाहिए । तीव्र कामाभिलाषा के व्रतभंग होने की सम्भावना रहती है। अतः वासना पर संयम रखने का प्रयत्न करना चाहिए। स्वदार-सन्तोष-व्रत का उद्देश्य भी यही है, कि भोगभिलाषा मन्द हो। : २६ : पञ्चम अपरिग्रह-अणुव्रत मूल : पंचमं अणव्वयं थूलाओं परिग्गहाओ वेरमणं खेत-वत्थूणं जहापरिमाणं, हिरण्ण-सुवण्णाणं जहापरिमाणं धण-धन्नाणं जहापरिमाणं, दुप्पय-चउप्पयाणं, जहापरिमाणं कुप्पस्स: जहापरिमाणं। एवं मए जहा परिमाणं कयं, तओ अइरित्तस्स परिग्गहस्स पच्चक्खाणं । जावज्जीवाए, एगविहं तिविहेणं, न करेमि, मणसा, वयसा, कायसो । एयस्स पंचमस्स थूलग-परिग्गह-परिमाण व्वयस्स समणोवासएणं पंच आइयारा जाणि यव्वा, न समायारियव्वा । १. कुवियस्स' भी पाठ है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० अर्थ : श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र हिरण तंजढा-खेत-वन्युत्पमाणा हक्कम, सुवण्णप्पमाणा इक्कम, धण-धन्नष्यमाणा इक्कमे, दुष्पय- चउप्ययप्पमाणा इक्कम, गाइक्कम । कुष्पप्पमा जो मे देवसियो अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मिदुक्कडं | पञ्चम अणुव्रत है— स्थूल परिग्रह से विरत होना । क्षेत्र वस्तु ( खेत और घर आदि) का यथापरिमाण (जो परिमाण किया है), हिरण्य ( चाँदी) सुवर्ण (सोना) का यथापरिमाण धन-धान्य का यथापरिमाण, द्विपद ( दास-दासी आदि का और चतुष्पद, (गाय, भैंस घोड़ा आदि पशु का यथापरिमाण, कुप्प ( बरतन ) आदि) का अथवा घर की सामग्री, का यथापरिमाण । इस प्रकार मैंने जो परिग्रहपरिमाण (मर्यादा) किया है, उसके अतिरिक्त रखने का प्रत्याख्यान (त्याग) करना । जीवनपर्यन्त, एक करण तीन योग से, न करू, मन से, वचन से, काय से । इस पञ्चम स्थूल परिग्रह-परिमाण व्रत के श्रमणोपासक को पाँच अतिचार जानने योग्य हैं, ( किन्तु ) आचरण के योग्य नहीं हैं । जैसे कि - क्ष ेत्र (खेत आदि) और वास्तु ( घर आदि) के प्रमाण का अतिक्रमण करना, हिरण्य ( चाँदी ) और सुवर्ण ( सोने) के प्रमाण का अतिक्रमण करना, धन-धान्य के प्रमाण का अतिक्रमण करना, द्विपद (दास दासी) के और चतुष्पद (गाय, भैंस, घोड़ा. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या बैल, ऊंट, बकरी आदि के प्रमाण का अतिक्रमण करना, कुप्य (बर्तन आदि घर की सामग्री) के प्रमाण का अतिक्रमण करना। जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किये हों तो उनका पाप मेरे लिए निष्फल हो । व्याख्या: अपरिग्रह : परिग्रह सब पापों की जड़ है। यह भव-बन्धन का मुख्य कारण हैं । जब तक परिग्रह पर नियन्त्रण नहीं रखा जाएगा, तब तक दूसरे पाप भी कम नहीं होंगे। संग्रह-वृति और पूजीवादी मनोवृत्ति ही संसार में अशान्ति पैदा करती है। मनुष्य सोचता है कि धन, सम्पत्ति और सुख-भोग के साधनों का संग्रह करके मैं सुखी रहूँगा, परन्तु यह कोरी मिथ्याकल्पना है। वित्तण ताणं न लभे' धन-वैभव से जीवन की रक्षा नहीं हो सकती। अर्थमनर्थ भावय नित्यम् ।' धन सचमुच अनर्थ ही है। Cur incomes are like shoes. If too small they gall and pinch us. If too large they make as to stumble and to triP. गृहस्थ की आय उसके जूते के समान है। जूते अगर छोटे होते हैं, तो वे पेरों में छाले डाल देते हैं, और बड़े होते हैं, तो वे मनुष्य को गिरा देते हैं। इसी प्रकार धन की कमी गृहस्थ को परेशान करती है, और धन की अधिकता उसको विलासी बनाती है । अतः परिग्रह एक बहुत बड़ा पाप है, सब पापों का जनक है। पञ्चम अणुव्रत : - पञ्चम अणुव्रत है-स्थूल परिग्रह से विरत होना । गृहस्थ जीवन में परिग्रह का सर्वथा त्याग नहीं किया जा सकता । परिग्रह का परिमाण Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र किया जा सकता है । परिग्रह के दो भेद हैं -बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्यपरिग्रह के दो भेद हैं - जड़ और चेतन । जड़ में वस्त्र. पात्र, सोना-चाँदी, सिक्का, मकान एवं खेत आदि का समावेश हो जाता है, और चेतन में मनुष्य पशु, पक्षी एवं बृक्ष आदि समस्त सजीव पदार्थों का ग्रहण हो जाता है। उक्त व्रत के भी चार दोष हैं-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । व्रत को तोड़ने का संकल्प अतिक्रम, तोड़ने की तैयारी व्यतिक्रम, व्रत को एकदेश से खण्डित करना अतिचार और सर्वथा भंग करना अनाचार है। आगे के सभी व्रतों में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार एवं अनाचार का यही क्रम और यही अर्थ समझ लेना चाहिए। अतिचार: इस पञ्चम-स्थूल परिग्रह-परिमाण-व्रत के श्रमणोपासक को पांच अतिचार जानने योग्य तो हैं, किन्तु आचरण के योग्य नहीं हैं । वे अतिचार इस प्रकार हैं :क्षेत्र-वास्तु-प्रमाणातिक्रम : खेन आदि की खुली भूमि और घर आदि की ढंकी भूमि के विषय में जो मर्यादा की गई थी, उसका पूर्णतः तो नहीं, पर अंशरूप में उल्लंघन करना । जैसे किसी व्यक्ति के पास पहले चार खेत की मर्यादा थी, फिर चार और मिलने पर बीच की मेड़ को तोड़ कर एक कर लेना ओर चार की संख्या बनाए रखना । इसी प्रकार घर की मर्यादा के सम्बन्ध में भी समझ लेना। हिरण्य-सुवर्ण-प्रमाणातिक्रम : चाँदी-सोना अथवा चाँदी-सोने की बनी चीजों के विषय में जो मर्यादा की गई थी, उसका अंश रुप में उल्लंघन करना । मर्यादा से बाहर मिली इन वस्तुओं को अपने पास रखना नहीं चाहिए । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या धन्य-धान्य-प्रमाणातिक्रम : सम्पत्ति और अनाज के विषय में जो मर्यादा की गई थी, उसका अंशरूप में उल्लंघन करना। मर्यादा से बाहर धन-धान्य मिले तो, उसे रखना नहीं चाहिए। द्विपद-चतुष्पद-प्रमाणातिक्रम : दास-दाली आदि मनुष्य और गाय, घोड़ा आदि पशु के विषय में जो मर्यादा की गई थी, उसका अंश रूप में उल्लंघन करना। प्रमाण से अधिक रखना। कुप्य-प्रमाणातिक्रम : 'कुप्य' शब्द का अर्थ है-घर की सामग्री, अथवा पात्र (बर्तन) आदि वस्तु । पात्र आदि घर की सामग्री के विषय में जो मर्यादा की गई थी, उसका अशरूप में उल्लंघन करना । प्रमाण से अधिक वस्तुओं का संग्रह करके रखना भी इस व्रत का दूषण है षष्ठ दिशापरिमाण-व्रत मूल : छठें दिसिव्वयं, उड्ढ-दिसाए जहापरिमाणं, अहो-दिसाए जहापरिमाणं, तिरिय-दिसाए जहापरिमाणं । एवं मए जहापरिमाणं कयं, तओ अइरित्तं सेच्छाए कारणं गंतूण पंच आसवासेवणस्स पच्चक्खाणं । जावज्जीवाए, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवमि, मणसो, यसा, कायसा । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र अर्थ : एयस्स छट्ठस्स दिसिब्वयस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियबा, न समायरियब्बा, तंजहा-उड्ढ-दिसिप्पमाणाइक्कमे, अहो-दिसिप्पमाणाइक्कमे, तिरिय-दिसिप्पमाणाइक्कमे, खेत्त-कुड़ी, सइ-अन्तरद्धा । जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। षष्ठ दिशा परिमाण व्रत है-ऊर्ध्व-(ऊँची) दिशा में यथा-परिमाण, अधो (नीची) दिशा में यथापरिमाण, तिर्यग् तिरछी) दिशा में यथापरिमाण। इस प्रकार मैंने जो परिमाण किया है, उसके अति रिक्त अपनी इच्छा से शरीर के द्वारा जा कर पांच आश्रव-सेवन का प्रत्याख्यान (त्याग) करना। जीवनपर्यन्त दो करण तीन योग से, न करून कराऊँ, मन से वचन से, काय से । इस षष्ठ दिशा-परिमाण-व्रत के श्रमणोपासक को पाँच अतिचार जानने के योग्य हैं (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं हैं। जैसे कि- उर्ध्व दिशा के परिमाण का अतिक्रमण करना, अधोदिशा के परिमाण का अतिक्रमण करना, तिर्यदिशा के परिमाण का अति क्रमण करना, क्षेत्र (स्थान) सम्बन्धी स्वीकृति मर्यादा की वृद्धि करना, नियम का स्मरण न रहने से मर्यादा में वृद्धि करना। . जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किए हों, तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्ष्याख्या ध्याख्या: दिशा : दिशा का अर्थ है-दिक् । दिशाएँ तीन हैं-ऊर्ध्वदिशा, अघोदिशा और तिर्यदिशा । अपने से ऊपर की ओर को ऊर्ध्वदिशा, नीचे की ओर को अधोदिशा, तथा दोनों के बीच की तिरछीदिशा को तिर्यदिशा कहते हैं । तिर्यदिशा के चार भेद हैं-पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण । चार दिशाओं के चार कोणों को ईशान आदि चार विदिशा कहते हैं, ये भी तिर्यदिशा हैं। चार दिशा, चार विदिशा तथा ऊर्ध्व और अधः ; इन सबको मिला कर दश दिशाएँ होती हैं। षष्ठ दिशा-परिमाण-व्रत : षष्ठ दिशा-परिमाण-व्रत हैं-ऊँची नीची और तिरछी दिशा का परिमाण करना। पापाचरण के लिए गमन-आगमन आदि क्षेत्र को विस्तृत करना साधक के लिए निषिद्ध हैं। राजा जिधर भी दिग्विजय को निकलते हैं, संहार मचा देते हैं। व्यापारी व्यापार को निकलते हैं, तो राष्ट्रों का शोषण कर लेते हैं अतः भगवान ने दिशा व्रत का विधान किया है, कार्यक्षेत्र की मर्यादा बांधो जाती हैं, जिससे जीवन संयमित होता है। अतिचार : षष्ठ दिशा-परिमाण-व्रत के श्रमणोपासक को पाँच अतिचार जानने योग्य हैं, किन्तु आचरण के योग्य नहीं। वे इस प्रकार हैंऊर्ध्वदिशा-परिमाणातिक्रम : ____ ऊर्ध्व दिशा में यातायात करने के लिए जो क्षेत्र मर्यादा में रखा है, उस क्षेत्र का भूल से उल्लंघन हो जाना । अधोदिशा-परिमाणातिक्रम : . नीची दिशा में जाने-आने के लिए जो क्षेत्र मर्यादा में रखा है, उस क्षेत्र का भूल से उल्लंघन हो जाना। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र तिर्यग्-दिशा-परिमाणातिक्रम : तिरछी दिशा में जाने-आने के लिए जो क्षेत्र मर्यादा में रखा है, उस क्षेत्र का भूल से उल्लंघन हो जाना। क्षेत्र-बृद्धि : एक दिशा की स्वीकृत मर्यादा में कमी कर के दूसरी में मिलाने को क्षेत्र की वृद्धि कहते हैं । यह व्रत का दूषण है । स्मति-भ्रंश : क्षेत्र की स्वीकृत मर्यादा को भूल कर मर्यादित क्षेत्र से आगे बढ़ जाना, अथवा गृहीत मर्यादा का ही स्मरण न रहना स्मृति-भ्रश है । सप्तम उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रत मूल : सत्तमे वए उपभोग-परिभोग-विहि पच्चक्खा यमाणे, उल्लणियाविहिं, दंतवणविहिं, फलविहि, अब्भंगण-विहि, उव्वट्टण-विहिं, मज्जणविहिं, वत्थ-विहि, विलेवण-विहिं, पुप्फ विहिं, आभरण-विहिं, धूवण-विहिं, पेज्ज-विहिं, भक्खण-विहि, ओदण-विहि, सूव-विहि, विगयविहिं, साग-विहि, महुर-विहिं जेमण-विहिं, पाणीय-विहिं, मुह-वास-विहिं, वाहण-विहिं, सयण-विहि, उवाहण-विहि, सचित्त-विहिं, दव्व-विहिं करेमि । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या इच्चाईणं जहापरिमाण कयं, तओ अइरित्तस्स उवभोग-परिभोगस्स पच्चक्खाणं । जावज्जीवाए, एमविहं तिविहे. न करेमि, मणसा, वयसा, कायसा । सत्तमे उवभोग-परिभोगबए दुविहे पन्नते । तंजहा-भोयणाओ य, कम्मओ य । तत्थ एवं भोयणाओ समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियब्बा, न समायरियन्वा । तं जहा-सचित्ताहारे, सचित्त पडिबद्धाहारे, अप्पओलिओसहि-भक्खणया, दुप्पओलिओसहि-भक्खणया, तुच्छोसहि-भक्खणया । जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । सप्तम उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रत है-उपभोगपरिभोगविधि का प्रत्याख्यान करना । उल्लणिया (अङ्ग पौंछने का वस्त्र) विधि उसकी जाति एवं संख्या) की मर्यादा करना, दन्तवन (दतौन) विधि की (मर्यादा) करना, फलों की मर्यादा करना, अभ्यंगन (मालिश) की मर्यादा करना, उद्वर्तन (उवटन) की मर्यादा करना, मज्जन (स्नान) की मर्यादा करना, वस्त्र की मर्यादा करना, विलेपन (लेपन या लेप) की मर्यादा करना, फूलों की मर्यादा करना, आभूषणों की मर्यादा करना, धूप की अर्थ : Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८. श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र मर्यादा करना, पेय (पीने योग्य पदार्थों) की मर्यादा करना, भक्ष्य (खाने योग्य पदार्थों) की मर्यादा करना, ओदन (चावल) की मर्यादा करना, सूप (दाल) की मर्यादा करना, विकृति (विगय) की मर्यादा करना, शाक (साग) की मर्यादा करना; मधुर (मीठे फल आदि) की मर्यादा करना, जेमन (भोजन) की मर्यादा करना, पानीय (जल) को मर्यादा करना, मुख-वास (पान सुपारी, इलायची आदि) की मर्यादा करना, वाहन (सवारी) की मर्यादा करना, शयन) (शय्या आदि) की मर्यादा करना, उपानत (जूतों) की मर्यादा करना, सचित्त पदार्थों की मर्यादा करना, द्रब्य (विविध पदार्थों) की मर्यादा करना। इत्यादि जो परिमाण (मर्यादा) किया, उससे अधिक उपभोग-परिभोग के सेवन का प्रत्याख्यान (त्याग) करना। जीवनपर्यन्त, एक करण तीन योग्य से, न करू मन से, वचन से, काय से । सप्तम उपभोग-परिभोग-व्रत दो प्रकार का है । वह इस प्रकार से-भोजन से और कर्म (व्यापार) से । उसमें भोजन-सम्बन्धी व्रत के पांच अतिचार श्रमणोपासक. को जानने के योग्य है, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं है। जैसे कि त्यागी हुई सचित्त वस्तु का आहार (भोजन) करना, सचित्त-संयुक्त वस्तु का आहार करना अप्पओलि (कम पकी या अधयकी) औषधि (फली या धान्य आदि) का भक्षण (सेवत) करना, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ८९ दुप्पओलि (दुष्पक्वदेर में पकने वालो या अधिक पकी) औषधि (फली या धान्य आदि) का भक्षण (सेवन) करना । तुच्छ (असार) अर्थात् जिसमें डालने योग्य भाग अधिक हो और खाने योग्य कम हो, ऐसी ओषधि (फली या धान्य आदि) का भक्षण (सेवन) करना। जो मैंने दिवस सम्बन्धी अतिचार किए हों, तो उस का पाप मेरे लिए निष्फल हो । :३२: पंचदश कर्मादान मूल : कम्मओ णं समणोवासएणं पन्नरस कम्मा दाणाई, जाणियव्वाई, न समायरियव्बाइ तं जहा-ईगाल-कम्मे, वण-कम्मे, साडीकम्मे, भाडी-कम्मे, फोडी-कम्मे । दंत-वाणिज्जे, केस-वाणिज्जे, रस-वाणिज्जेलक्ख-वाणिज्जे, विस-वाणिज्जे । जंतपीलणकम्मे, निल्लंकण-कम्मे, दवग्गिदावणया-कम्मे, सर-दह-तलाय-परिसोसणयाकम्मे, असइजण-पोसणया-कम्मे । जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्य मिच्छा मि दुक्कडं । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र अर्थ : कर्म (व्यापार) से श्रमणोपासक को पन्द्रह कर्मादान (कर्म के आदान हेतु) जानने के योग्य हैं। (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं हैं। जैसे कि-अंगार (कोयलों) का कर्म (व्यापार) करना, वन (वन काटने) का कर्म (व्यापार) करना, साड़ो (गाड़ी बनाने) का कर्म करना, भाड़ी (भाड़े पर घोड़ा बैल आदि), चलाने का कर्म करना, फोडी (जमीन खोद कर खान आदि का कर्म (व्यापार) करना। दांतों का व्यापार करना, केश, (केशवती-दासी आदि) का व्यापार करना, रस (मदिरा आदि) का व्यापार करना, लाख का ब्यापार करना, विष का व्यापार करना। यन्त्र (कोल्हू) से पीडन (पीलने आदि) का कर्म करना, खस्सी का कर्म करना वन में आग लगाने का कर्म करना, सरोवर, तालाब आदि के सूखाने का कर्म करना, वेश्या आदि कुलटा नारियो का पोषण करके उन से आजीविका चलाने का कर्म (व्यापार) करना । जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अति चार किए हो तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो । व्याख्या : उपभोग-परिभोग : जीवन भोग से भरा हुआ है । जव तक जीवन है, भोग का सर्वथा त्याग तो नहीं किया जा सकता। हाँ, आसक्ति को कम करने के लिए भोग की मर्यादा की जा सकती है । जैन धर्म गृहस्थ के लिए भोगाशक्ति कम करने तथा उस के लिए उपभोग-परिभोग में आने वाले भोजन Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या पान, वस्त्र आदि पदार्थों के प्रकार एवं संख्या को मर्यादित करने का विधान करता है । यह नवादा एक-दो दिन आदि के रूप में सीमित काल तक अथवा जीवन पर्यन्त के लिये की जा सकती है । जैन साधना का शुद्ध उद्देश्य है :- भोग से त्याग की ओर जाना । यदि एक दम पूर्ण त्याग न हो सके, तो धीरे-धीरे त्याग की ओर गति होती रहनी चाहिए। उपभोग एवं परिभोग के योग्य वस्तुओं की मर्यादा करना श्रावक का आवश्यक धर्म है। क्योंकि जीवन केवल भोग के लिए ही नहीं है, उससे परमार्थ की साधना भी करनी चाहिए। उपभोग-परिभोगपरिमाण-व्रत : सप्तम उपभोग-परिभोगपरिमाण व्रत है-उपभोग-परिभोग के योग्य वस्तुओं की मर्यादा करना । जो वस्तु एक बार भोगी जा चुकने के बाद फिर न भोगी जा सके-उस पदार्थ को भोगना, काम में लेना-उपभोग हैं । जैसे भोजन, पानी, अंग रचना एवं विलेपन आदि । जो वस्तु एक बार से अधिक बार काम में ली जा सके,--उस वस्तु को काम में लेना-परिभोग कहाता है। जैसे वस्त्र, अलङ्कार आदि । अतिचार : उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत दो प्रकार का है-भोजन-सम्बन्धी और कर्म-सम्बन्धी । भोजनसम्बन्धी व्रत के पाँच अतिचार हैं, जो श्रमणोपासक को जानने के योग्य तो हैं, किन्तु आचरण के योग्य नहीं हैं। वे इस प्रकार हैंसचित्ताहार: सचित्त पदार्थ का आहार । जैसे-धान्य, बीज, जल एवं वनस्पति आदि । उक्त वस्तुएँ जो सचित्त-त्याग के रूप में त्याग कर दी गई हैं, उन्हें भूल से खाना । सचित्त-प्रतिबद्धाहार : वस्तु तो अचित्त है, परन्तु उसको प्रत्याख्यात सचित्त वस्तु से सम्बन्धित कर के खाना, सचित्त प्रतिबद्ध आहार है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र अपक्व'. ओषधि-भक्षणता : जो वस्तु पूर्ण पक्व नहीं हैं, और जिसे कच्ची भी नहीं कह सकते, ऐसी अधपकी चीज को खाना । दुष्पक्व ओषधिभक्षणता : ___ जो वस्तु पकी हुई तो है, परन्तु बहुत अधिक पक गई है, और पक कर विगड़ गई है, अथवा देर में पकने वाली ऐसी वस्तु को खाना । तुच्छ-ओषधिभक्षणता : जिसमें क्षुधा-निवारक भाग कम है, और व्यर्थ का भाग अधिक है, ऐसी चीज को खाना । जैसे-मूग आदि की कच्ची फली, जिससे पौष्टिक तत्व बहुत कम होता है। पन्द्रह कर्मादान व्याख्या: १. अंगार-कर्म : कोयले बना कर बेचना, उससे अपनी आजीविका चलाना। इस कार्य में षटकाय के जीवों की बहुत अधिक हिंसा होती है, ओर लाभ कम होता है । कोयले के लिए हरे-भरे वृक्ष काट डाले जाते हैं। १. जो वस्तु पूर्ण पक्व नहीं है,..........और जिसे कच्ची भी नहीं कह सकते, ऐसी अर्धपक्व चीज खाना........! -'गृहस्थ-धर्म' भाग ३, पृ० ४५ अपक्ब अर्थात् अल्प (थोड़ी पकी हुई वनस्पति का भक्षण करना । -पू० घासीलालजी कृत उपासकदशांग टीका पृ. ३०८ २. 'गृहस्थ-धर्म' भाग ३ पु० ४६ । चिरकाल से अग्नि की आँच द्वारा सीझने वाली तूम्वी, चमलेकी फली आदि का भक्षण करना। पूज्य घासीलालजी, उपासक"टो० पृ० २०९ । | Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या २. वन-कर्म : जङ्गल में से हरी लकडी, बांस आदि काटकर बेचना, और उस से अपनी आजीविका चलाना । इस में त्रस जीवों की भी बहुत बड़ी हिंसा होती है। ३. साडी-कर्म: बैल-गाड़ी अथवा घोड़ा-गाड़ी आदि द्वारा भाड़ा कमाना । अथवा गाड़ी आदि बाहन बनवा कर बेचना । किराये पर चलाना । इस में भी त्रस जीवों की वहुत हिंसा होती है। ४. भाड़ी-कर्म: जिस प्रकार अंगार कर्म और वन कर्म का परस्पर सम्बन्ध है, उसी प्रकार साड़ी कर्म और भाड़ी कर्म का भो आपस में सम्बन्ध है । साडीकर्म में गाडी आदि वाहन मुख्य हैं और भाडी-कर्म में भाड़ा कमाने का दृष्टि से घोडे-ऊँट एवं बैल आदि पशु मुख्य हैं। ५. फोडी-कर्म : हल, कुदाली एवं सुरंग आदि से पृथ्वी को फोड़ना और उस में से निकले हुए पत्थर, मिट्टी एवं धातु आदि खनिज पदार्थ को बेचना स्फोट-कर्म है । अथवा भूमि खोदने का ठेका लेकर भूमि खोदना । उससे आजीविका करना । कृषि कर्म, फोडी-कर्म नहीं है। वह श्रावकत्व के लिए सर्वथा वर्जित भी नहीं है। ६. दन्त-वाणिज्य : .. दांत का व्यापार करना । दाँत लेना, खरीदना, और खरीद कर उसकी अन्य वस्तुएँ बनाकर बेचना । इस में दांत वाले पशु का. वध होता है, अतः इसमें त्रसजीवों की बहुत बड़ी हिंसा होती है । लक्ष-वाणिज्य : लाख का व्यापार करना । लाख वृक्षों का रस है । लाख निकालने में त्रसजीवों की बहुत हिंसा होती है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र ८. रस-वाणिज्य : ... रस का ब्यापार करना। यहाँ रस से मतलब मदिरा आदि से है। नशीले पदार्थो का ब्यापार नहीं करना चाहिए,। मदिरा पान से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है । दूध एवं घी आदि का ब्यापार रस-वाणिज्य में नहीं है । क्योंकि ये पदार्थ तो सात्विक हैं, जीवन का पोषण करते हैं । ६. विष-वाणिज्य : _ विष का व्यापार करना । संखिया अफीम, आदि जीवन नाशक पदार्थों की गणना विष में हैं । इसमें त्रसजीवों की हिंसा की सम्भावना बहुत अधिक है । १०. केश-वाणिज्य : केश का ब्यापार करना । यहाँ केशवाणिज्य से मतलब लक्षणा द्वारा केश वाली दासियों का खरीदना और बेचना है । इस प्रकार का व्यापार श्रावक के लिए वर्जित है। ११. यन्त्रपीलन-कर्म : __यन्त्र द्वारा पीलने का कर्म करना १ तिल का तेल और गन्ने आदि का रस पील कर बेचना । इसमें उसजीवों की हिंसा की संभावना है। १२. निल्लंच्छण-कर्म : पशुओं को खस्सी करके आजीविका करना । इस व्यवसाय से पशुओं को भयंकर वेदना होती है, और साथ में उनकी. नस्ल भी खराब होती है। १३. दवाग्नि-दापनिकाकर्म : वन दहन करना । भूमि को साफ करने में श्रम न करना पड़े, इसलिए वन में आग लगा देना। इसमें त्रसजीवों की बहुत अधिक हिंसा होती है। | Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १४, सर-ह्रद-तडाग-शोषण-कर्म : सरोवर, तालाब एवं नदी आदि के जल का सुखाना । इस से जल में रहने वाले त्रस जीर्णो की बहुत अधिक हिंसा होती है । १५. असती-जन-पोषण-कर्म : ५. कुलटा स्त्रियों को रखकर उनका पोषण कर के उन के द्वारा आजीविका चलाना । वेश्यावृत्ति करवाना । यह धंधा महान् पापपूर्ण है । अतः वर्जित है। पन्द्रह कर्मादानों में दश कर्म हैं, और पांच वाणिज्य हैं । श्रावक के लिए ये सब के सब त्याज्य है । श्रावकों को महान् पापं से, महारम्भ से बचाने के लिए तथा उन्हें सभ्य सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कराने के लिए भगवान् ने कर्मादानों को निषिद्ध कहा है। पन्द्रह कदिान का त्याग श्रावक के मूल-व्रतों में गुण उत्पन्न करने वाला है, त्याग बुद्धि को निर्मल-बजाने बाला और-चित्त को समाधि में रखने वाला है। - मे.पन्दरह कर्मादान सातवें व्रत के अतिचारों में हैं । सातवें व्रत के बीस अलिचार हैं, जिन में पांच तो भोजन सम्बन्धी हैं, और पन्दरह धधा सम्वन्धी हैं । श्रावक को ये जानने के योग्य तो हैं । किन्तु आचरण के योग्य नहीं हैं। छब्बीस बोल को मर्यादा व्याख्या : १, उल्लणिया-विधि-परिमाण : प्रातः काल जब मनुष्य उठ.कर, शौच आदि से निवृत: हो कर, अपने हाथ-मुह को धोता है, तक पौंछने के लिए, वस्त्र-खण्ड की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार के वस्त्र की मर्यादा करना । २. दन्त-धावनविधि-परिमाण : रात में सो कर उठे हुए मनुष्य के मुख में सांस-उसांस के आने-जाने Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र से मल संचित हो जाता है, उसको साफ करने के लिए दन्त धावन किया जाता है । दातुन किया जाता है। दातुन के विषय में मर्यादा करना। ३. फल-विधि-परिमाण : मस्तिष्क और बालों को स्वच्छ तथा शीतल करने के लिए प्राचीन युग में आंवले आदि फलों का प्रयोग किया जाता था । आंवला एवं त्रिफला आदि की मर्यादा करना। . ४. अभ्यगन-विधि-परिमाण : __त्वचा (चमड़ी) आदि के विकारों को दूर करने के लिए तथा शरीर को बलवान रखने के लिए तैल से शरीर की मालिश करना, अभ्यंगन कहा जाता है । मालिश करने में प्रयुक्त होने वाले तैल की मर्यादा करना । ५. उवटन-विधि-परिमाण : शरीर पर लगी तैल की चिकनाहट को दूर करने के लिए, मैल को दूर करने के लिए तथा शरीर में स्फूर्ति लाने के लिए, प्राचीन काल में उबटन लगाया जाता था, आज के युग में साबुन का प्रयोग किया जाता है । इस प्रकार के उवटन की मर्यादा करना । ६. मज्जन-विधि-परिमाण : __ अभ्यंगन तथा उबटन करने के बाद में स्नान किया जाता था। स्नान के पानी की और स्नान की मर्यादा करना । ७. वस्त्र-विधि-परिमाण : प्राचीन युग में मनुष्य बहुत कम वस्त्रों का उपयोग किया करता था। एक अधोवस्त्र और दूसरा डत्तरीय, बस, पुरुष के दो ही वस्त्र होते थे । और स्त्री के कंचुकी-सहित तीन । आज तो वस्त्रों की कोई सीमा नहीं रही है । वस्त्र स्वच्छ तो हों, परन्तु विकार पैदा करने वाले न हों। वस्त्रों की मर्यादा करना। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याख्या ८. विलेपन.विधि-परिमाण : शरीर को शीतल तथा सुशोभित करने के लिए चन्दन, केशर एवं कुंकुम आदि के विलेपन का प्रयोग किया जाता था और आज भी पाउडर आदि का प्रयोग होता है । इस प्रकार के पदार्थों की मर्यादा करना । ६. पुष्प-विधि-परिमाण : ___ फूलों के प्रति मनुष्य का बड़ा ही आकर्षण रहा है । वह माला बना कर पहनता है, एवं गुलदस्ते सजा कर रखता है । अस्तु, कोन से फूल लेना और कौन-से न लेना और वह भी किस रूप में तथा कितनी मात्रा में लेना, इस प्रकार पुष्प की मर्यादा करना । १०. आभरण-विधि-परिमाण : प्राचीन युग में स्त्री और पुरूष दोनो ही अपने शरीर को अलंकृत करने के लिए आभूषणों का प्रयोग करते थे, और आज भी करते हैं। इस प्रकार आभूषणों की मर्यादा करना । ११. धूप-विधि-परिमाण : घर में, स्वास्थ्य की दृष्टि से वायु आदि की शुद्धि के लिए धूप एवं अगरबत्ती आदि का प्रयोग किया जाता है। ऐसे पदार्थी की मर्यादा करना। १२. पेय-विधि-परिमाण : पीने योग्य परार्थो को पेय कहते हैं । अतः दूध, चाय एवं रस आदि पदार्थो की मर्यादा करना । १३. भक्षण-विधि-परिमाण : ... खाने योग्य पदार्थों को भक्षण कहा जाता है । अतः मिष्ठान एवं पाक आदि पदार्थों की मर्यादा करना । १४. ओदन-वधि-परिमाण : ओदन चावल (भात) को कहते हैं । वे अनेक प्रकार के होते हैं। उनकी मर्यादा करना । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १५, सूप-विधि-परिमाण : सूप को अर्थ है - दाल । दाल अनेक प्रकार की है मूंग, डड़द आदि की। उनकी मर्यादा करना । १६. विंगय-विधि-परिमाण : . दुग्ध, दहि, धृत, तेल एवं मिठाई आदि पदार्थ विकार उत्पन्न करने के कारण विकृत ; अर्थात विगय कहलाते हैं । ये सामान्य विगय हैं । मधु और मक्खन विशेष विगय है । मद्य और मांस महाविगय हैं । श्रावक के लिए मदिरा और माँस का तो मूलतः ही निषेध होता है। शेष विकृतियों की मर्यादा करनी चाहिए । १७. शाक-विधि-परिमाण : - भोजन के साथ व्यञ्जन-रुप में खाए जाते हैं, वे शाक होते हैं । उनकी मर्यादा करना। १८. मधुर-विधि-परिमाण : आम, जामुन, केला एवं अनार आदि हरे फलों को और दाख, बादाम एवं पिश्ता आदि सूखे फलों को मधुर कहते हैं । डनकी मर्यादा करना। १६. जेमन-विधि-परिमाण : ___ जो पदार्थ भोजन के रूप में खाए जाते हैं, उनको जेमन कहते हैं । रोटा, बाटी पूरी आदि । उनकी मर्यादा करना । २०. पानी-विधि-परिमाण : ___ खारापानी, मीठा पानी, गरम पानी, और ठंडा पानी, नदी का पानी आदि अनेक प्रकार का जल है । उनकी मर्यादा करना । २१. मुख-वास विधि-परिमाण : इलायची, पान एवं सुपारी आदि पदार्थों को मुख-वास कहते हैं । ये भोजन के बाद स्वाद के लिए खाए जाते हैं । इस प्रकार के पदार्थों की मर्यादा करना। | Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या २२. उपानविधि-परिमाण : पैर में पहनने के योरयें जूते, खड़ाऊँ स्लीपर आदि को उपानत् कहते हैं । उनकी मर्यादा करना । २३. वाहन-विधि-परिमाण वाहन का अर्थ है-सवारी । घोड़ा, उँट, हाथी, रथ, बैलगाड़ी, रेल, मोटर एवं साइकिल आदि । इनकी मर्यादा करना । २४. शयन विधि-परिमाण . सोने के प्रयोग में आने वाले पदार्थ शयन में आ जाते हैं; खाट, पाट, आसन विछौना, आदि, उपलक्षण से कुर्सी, मेज आदि भी ।उनकी मर्यादा करना। २५. सचित्त-विधि-परिमाण : सचित्त पदाथों का अधिक-से-अधिक त्याग करना, साधक जीवन का लक्ष्य है । परन्तु सम्पूर्ण रूप में जब तक सचित्त पदार्थो का त्याग न हो सके, तो उनकी मर्यादा करना । इसको सचित्त की मर्यादा करना । २६. द्रव्य-विधि-परिमाण : संसार में उपभोग्य पदार्थ अनन्त है । मनुष्य अपने सीमित जीवन में उन सभी का उपभोग नहीं कर सकता। ऐसा होना सम्भवित भी नहीं है । अतः द्रव्यौं (पदार्थो) की मर्यादा करनी चाहिए। इससे जीवन संयत बनता है । पूर्वोक्त २५ बोल के अतिरिक्त शेष सभी पदार्थ उक्त २६ वें बोल में आ जाते हैं। ____ छब्बीस बोलों में पहले से ग्यारह तक के बोल शरीर को स्वच्छ, स्वस्थ एवं सुशोभित करने वाले पदार्थो से सम्बन्धित हैं । बीच के दश खाने-पीने में आने वाले पदार्थो से सम्बन्धित हैं, और अन्त के शेष बोल शरीर आदि की रक्षा करने वाले पदार्थों से सम्बन्धित हैं । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र मूल : ( ३३ ) अष्टम अनर्थ-दण्ड-विरमण-व्रत अट्ठमं वयं अणट्ट-वेरमणं । से य अणटदंडे चउविहे पन्नत्त । तं जहा-अवज्झाणाचरिए, पमायाचरिए, हिंसप्पयाणे, पाव-कम्मोवएसे । इच्चेवमाइयस्स अणहदंडासेवणस्स पच्चक्खाणं । जावज्जीवाए, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा। एयस्स अट्ठमस्स अणट्ठदंड-वेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा । तं जहा-कंदप्पे, कुक्कुइए, मोहरिए, संजुत्ताहिगरणे, उवभोग-परिभोगाइरिगे । जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छामि दुक्कडं । अष्टमवत है-अनर्थदण्ड से विरत होना। वह अनर्थ-दण्ड चार प्रकार का है। जैसे कि-अपध्यान (बुरा चिन्तन) आचरित करना, प्रमाद का आचरण करना, हिंसाकारी शस्त्र आदि का बनाना एवं देना, पापकर्म का उपदेश करना। अर्थ : Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या इत्यादि अनर्थदण्ड के सेवन का प्रत्याख्यान (त्याग) करना। जीवनपर्यन्त, दो करण, तीन योग्य से न करूं', न कराऊं, मन से, वचन से, काय से । इस अष्टम अनर्थ-दण्डविरमण-व्रत के श्रमणोपासक को पांच अतिचार जानने के योग्य हैं, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं है। जैसे कि-काम-उद्दीपक-कथा करना, भाण्ड की तरह कुचेष्टा करना, बिना प्रयोजन के अधिक बोलना, अधिकरण (हिंसाकारी साधन) का संग्रह करना, उपभोग-परिभोग की वस्तुओं का मर्यादा से अधिक रखना। जो मैंने दिवससम्बन्धी अतिचार किए हों, तो उस का पाप मेरे लिए निष्फल हो । व्याख्या : अनर्थदण्ड मनुष्य यदि अपने जीवन को विवेक-शून्य एवं प्रमत्त रखता है, तो बिना प्रयोजन भी वह हिंसा आदि कर बैठता है । मन, वचन और काय को सदा संयत रखना चाहिए। प्रत्येक क्रिया विवेक तथा यतना से करनी चाहिए । अप्राप्त भोगों के लिए मन में लालसा रखना। प्राप्त भोगों की रक्षा के लिए चिन्ता करता । बुरे विचार एवं बुरे संकल्प रखना। पापकार्य के लिए किसी को प्रेरणा देना, परामर्श देना । होथ एवं मुख आदि से अभद्र चेष्टाए करना । कामभोगसम्बन्धी वार्तालाप में रस लेना, बात-बात में गाली-गलौज करना । व्यर्थ में हिंसाकारक शस्त्रों का संग्रह करना । आवश्यक्ता से अधिक भोग-सामग्री एकत्र करना । तेल एवं घृत आदि के पात्र बिना ढ़के खुले मह रखना। यह सब अनर्थ-दण्ड है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र बिना प्रयोजन की हिंसा है । साधक को उक्त सब अनर्थ-दण्डों से निवृत रहना चाहिए। अनर्थ-दण्डविरमण-व्रत ____ अष्टम व्रत है-अनर्थदण्ड से विरत होना । वह अनर्थ-दण्ड चार प्रकार का है.। जैसे कि---- अपध्यानाचरितः जो ध्यान अप्रशस्त है, बुरा है-वह अपध्यान है । ध्यान का अर्थ है-किसी भी प्रकार के विचारों में चित्त की एकाग्रता । व्यर्थ के बुरे संकल्पों में चित्त को एकाग्र क्रूजे, से जो अनर्थ-दण्ड होता है, उसको अपध्यानाचरित अनर्थदण्ड कहते हैं । अपध्यान के दो भेद हैं-आर्त-ध्यान और रौद्रध्यान् । प्रमादाचरित : प्रमाद का आचरण करना । प्रमाद से आत्मा का पतन होता है। प्रमाद पांच हैं-मद, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा । ये पांच प्रमाद अनर्थ-दण्डरूप हैं । अमर्यादितरूप निद्रा भी साधक के लिए त्याज्य है। हिंस्र-प्रदान : हिंसा में सहायक होना । जितसे हिंसा होती है, ऐसे अस्त्र, शस्त्र आग, विष आदि हिंसा के साधन अन्य विवेकहीन ब्यक्तियों को दे देना, हिंसा में सहायक होना है। पापोपदेश : पापकर्म का उपदेश देना है । जिसः उसदेश से पाप-कर्म में प्रवृति हो, पाप-कर्म की अभिवृद्धि हो, उपदेश सुनने वाला पाप-कर्म करने लगे, वह उपदेश अनर्थ-वण्डरूप है। अतिचार : अनर्थ-दण्ड-विरमणव्रत के पांच अतिचार हैं, जो श्रमणोपासक को Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १०३ जानने योग्य तो है, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं है। वे इस प्रकार कन्दर्प : कामवासना प्रवल करने वाले तथा मोह उत्पन्न करने वाले शब्दों को हास्य में या व्यङ्ग में, दूसरे के लिए उपयोग करना । कौत्कुच्य : आंख, नाक, मह, भृकुटि आदि अपने अंगों को विकृत बना कर भाण्ड एवं विदूषक की भाँति चेष्टाएँ करना। मौखर्य : बिना प्रयोजन के अधिक बोलना, अनर्गल बातें करना, व्यर्थ की बकवास करना और किसी की निन्दा-चुगली करना । संयुक्ताधिकरण : कूटने और पीसने आदि के काम में आने वाले घर के साधनों का जैसे-ऊखल, मूसल, चक्की एवं लोढ़ी आदि वस्तुओं का- अधिक तथा निष्प्रयोजन संग्रह करके रखना। उपभोग-परिभोगातिरिक्त : उपभोग-परिभोग-परिमाणवत स्वीकार करते हुए जो पदार्थ मर्यादा में रखे हैं, उनमें अत्यन्त आसक्त रहना, उनका बार-बार उपयोग करना उनका उपयोग स्वाद के लिए करना । जैसे भूख न होने पर भी स्बाद के लिए खाना । शरीर रक्षा के लिए नहीं, मौज-शौक के लिए वस्त्र पह. नना आदि । नवम सामायिक-व्रत नवमं सामाइयवव्यं सावज्ज-जोग-वेरमण रुवं । जावनियमं पज्जुवासामि । दुविहं Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र अर्थ: तिविहेणं, न करेमि न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा। एयस्स नवमस्स सामाइव्वयस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समाय रियव्वा । तं जहा–मण-दुप्पणिहाणे, वय-दुप्पणिहाणेकोय-दुप्पणिहाणे, सामायस्स सइ अकरणया सामाइयस्स अणवट्टियस्स करणया । जो मे देवसियो अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । नवम सामायिक व्रत है-सावधयोग से विरत होना। जब तक नियम में रह कर पर्युपासना करूं, तब तक दो करण तीन योग से, (पापकर्म) न करूं, न कराऊँ मन से, वचन से, काय से। इस नवम सामायिक व्रत के श्रमणोपासक को पांच अतिचार जानने के योग्य हैं, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं है। जैसे कि-मन से दुष्प्रणिधान (सावद्यव्यापार का चिन्तन) करना, वचन से सावधव्यापार-सम्बन्धी भाषण करना, काय से सावधव्यापार करना, सामायिक करने की स्मृति न रखना, सामायिक अव्यवस्थित रूप में करना, (समय से पूर्व हो पार लेना आदि, या समय पर न करना आदि)। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्याख्या १०५ जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किए हों तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो । व्याख्या : सामायिक : जैन-धर्म की साधना में सामायिक का बड़ा महत्व है । सामायिक का अर्थ है-समभाव की साधना । संसार के प्रपंचों से अलग हो कर, राग-द्वेष के द्वन्द्वों से हट कर, जीवन को निरवद्य, निष्पाप एवं पवित्र बनाना ही समत्व-भाव है, समताभाव है । परन्तु गृहस्थ जीवन में समभाव की साधना कितनी और कैसी हो सकती है ? यह एक प्रश्न है । गृहस्थ -एक गृहस्थ है, वह साधु नहीं है, जो जीवनभर के लिए सब पाप-व्यापारों का पूर्ण रूप से परित्याग करके, पूर्ण समभाव का पवित्र जीवन बिता सके । अतः उसे प्रतिदिन कम से कम अमुक मर्यादा के साथ एक मुहूत (अड़तालीस मिनट) के लिए तो सामायिक व्रत धारण करना ही चाहिए । गृहस्थ की सामायिक -साधु की पूर्ण सामायिक के अभ्यास की भूमिका है। वह दो घड़ी का आध्यात्मिक स्नान है। जो जीवन को निष्पाप, निष्कलंक एवं पवित्र बनाता है । सामायिक-व्रत : नवम सामायिक व्रत है-सावद्ययोग से विरत होना । सामायिक व्रत एक अध्यात्मसाधना है, परन्तु उसे करने से पूर्व शुद्धि की आवश्यकता है । शुद्धि चार प्रकार की होती है, जो इस प्रकार से हैद्रव्य-शुद्धि : सामायिक के लिए जो उपकरण हैं; जैसे--वस्त्र, पुस्तक, रजोहरणी, मुखवस्त्रिका एवं आनस आदि --उन सभि का द्धशु एवं उपयोगी ना होआवश्यक है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्रावक का प्रतिक्रमण-सूत्र क्षेत्र-बुद्धि : ____ जहाँ सामायिक की जाती है, उस स्थान को क्षेत्र कहते है । शान्त वातावरण और एकान्तरूप में क्षेत्र की शुद्धि भी आवश्यक है। काल-शुद्धि : ___ सामायिक प्रातःकाल आदि ऐसे शान्ति के समय में करनी चाहिए, ताकि वह अनुद्वग, शान्त और निर्विघ्नता के साथ हो सके । इसका भी विचार रखना चाहिए कि सामायिक के काल में ही सामायिक की जाए भाव-शुद्धि : सामायिक करते समय भाव-शुद्धि भी आवश्यक है । मन की पवित्रता एवं शुभ संकल्प रखना भाव-शुद्धि है । अतिचार सामायिकव्रत के पाँच अतिचार हैं, जो श्रमणोपासक को जानने योग्य तो हैं, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं । वे इस प्रकार हैंमनो-दुष्प्रणिधान : मन में बुरे संकल्प विकल्प करना । मन को सामायिक में न लगा कर सांसारिक कार्य में लगाना । वचन-दुष्प्रणिधान : ___ सामायिक में कटु,कठोर, निष्ठुर, असभ्य तथा सावध वचन बोलना, किसी की निन्दा करना, आदि । कास-दुष्प्रणिधान : सामायिक में चंचलता रखना। शरीर से कुचेष्टा करना, बिना कारण शरीर को फैलाना और समेटना अन्य किसी प्रकार की साबद्य चेष्टा करना, आदि : सामायिक-भतिभस : 'मेंने सामायिककी है', इसबात को ही भूल जाना, सामायिक कब Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ली और वह कब पूरी होगी, इस बात का ध्यान न रखना, अथवा समय पर सामायिक करना ही भूल जाना। सामायिकानवस्थिति : सामायिक की साधना से ऊबना, सामायिक का काल पूर्ण हुए बिना ही सामायिक पार लेना । सामायिक के प्रति आदर-बुद्धि न रखना, आदि । :३७: दशम देशावकाशिक-व्रत मूलः दसमं देसावगासियव्वयं दिण-मज्झे पच्चूस कालाओ आरब्भ पुवादिसु छस्सु दिसासु जावइयं परिमाणं कयं,तओ अइरिच सेच्छाए काएण गंतूणं, अन्न वा पहिऊण, पंच आसवा-सेवणस्य पच्चक्खाणं । जाव अहोरलं, दुविहं तिविहेणं- न करेमिन कारवमि- मणसा- वयसा- कायसा । अह य छस्सु दिसासु जावइयं परिमाणं कयंतम्मझे वि जावइयाणं दब्वाणं परिमाणं कयं- तओ अइरित्तस्स उवभोग-परिभोगस्स पच्चक्खाणं । जाव अहोर- एगविहं तिविहेर्ण- न करेमि मणसा- वयसा- कायसा । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अर्थ: श्रावक प्रतिक्रमण -सूत्र एयस्य दसमस्य देसावगा सियव्वयस्स समणोवासएणं पंच अइयोरा जाणियव्वान समायरियव्वा । तं जहा - आणवणप्पओगे - पेसवणप्पओगेसहाणुवाए, रूवाणुवाए, बहियापुग्गल पक्खेवे । जो मे देव सिओ अइयारो कओतस्स मिच्छा मि दुक्कडं । दशम देशावकाशिक व्रत है - दिन में प्रातः काल से लेकर पूर्वादि छह दिशाओं में जितनी भूमि का परिमाण (मर्यादा) किया, उसके अतिरिक्त अपनी इच्छा से स्वयं शरीर से जा कर, अथवा अन्य को भेज, कर, पाँच आश्रव के सेवन का प्रत्याख्यान (त्याग) करना । यावत् दिन-रात - पर्यन्त, दो करण तीन योग से, ( आश्रव - सेवन ) न करू, न कराऊँ, मन से, वचन से, काय से । अथवा छह दिशाओं में जितना परिमाण किया, उस में भी जितने द्रव्यों का परिमाण किया, उसके अतिरिक्त उपभोग - परिभोग का प्रत्याख्यान (त्याग) करना । यावत् दिन-रात तक, एक करण तोन योग से, (हिंसा, असत्य आदि आश्रव सेवन ) न करू, मन से, वचन से, काय से । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ հի) इस दशम देशावकाशिक-व्रत के श्रमणोपासक को पाँच अतिचार जानने योग्य हैं, (किन्तु) आचरण करने के योग्य नहीं है। जैसे कि - मर्यादित क्षेत्र से वाहर की वस्तु मंगाना, मर्यादित क्षेत्र से बाहर वस्तु भेजना, शब्द के द्वारा मनोगत भाव का ज्ञान कराना, रुप' दिखा कर मनोगत भाव प्रकट करना, कंकर आदि पुद्गल (वस्तू) फेंक कर मनोगत भाव प्रकट करना। जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किए हों, तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो। व्याख्या देशावकाणिक : परिग्रहपरिमाण-व्रत, दिशापरिमाण-व्रत और उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत की जीवन भर की प्रतिज्ञा को और अधिक व्यापक एवं विराट् बनाने के लिए देशावकाशिक-व्रत ग्रहण किया जाता है। दिशापरिमाण-वत में गमन-आगमन का क्षेत्र जीवन पर्यन्त के लिए सीमित एवं मर्यादित किया जाता है । प्रस्तुत व्रत में उस सीमित क्षेत्र को एक दो दिन आदि के लिए और अधिक सीमित कर लिया जाता है। देशावकाशिक-व्रत की साधना में क्षेत्र-सीमा का संकोच होता है, साथ में उपभोग्य सामग्री की सीमा भी सकुचित हो जाती है। देशावकाशिकव्रत की प्रतिज्ञा हर रोज की जाती है। देशावकाशिक-व्रत : दशम देशावकाशिक-व्रत है-प्रतिदिन क्षेत्र आदि की मर्यादा को कम करते रहता । जैन-धर्म त्याग-लक्षी है । जीवन को अधिक से अधिक त्याग की ओर झुकाना ही साधना का मुख्य ध्येय है। प्रस्तुत व्रत में इस ओर विशेष ध्यान दिया गया है । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र अतिचार: देशावकाशिक व्रत के पाँच अतिचार हैं, जो श्रमणोपासक को जानने योग्य तो हैं. (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं है । वे इस प्रकार हैंआनयन-प्रयोग : मर्यादित भूमि से बाहर रहे हुए सचित्तादि पदार्थ किसी को भेज कर अन्दर में मंगवाना, अथवा समाचार मैंगवाना । प्रेष्य-प्रयोग : मर्यादा से बाहर की भूमि में अन्दर में से किसी दूसरे के द्वारा कोई पदार्थ अथवा सन्देश भेजना। शब्दानुपात: मर्यादा के बाहर की भूमि से सम्बन्धित कार्य के आ पड़ने पर, मर्यादा की भूमि में ही रह कर शब्द के द्वारा, अर्थात् खंखार कर, चुटकी आदि बजा कर, दूसरे को अपना भाव प्रकट कर देना, जिससे वह व्यक्ति विना कहे ही संकेतानुसार कार्य कर सके । यह उक्त व्रत का दूषण है । रूपानुपात : मर्यादा में रखी हुई भूमि के बाहर का यदि कोई कार्य आ पड़ें, तो शरीर की चेष्टा करके, ऑन्ख का इशारा करके या शरीर के अन्य किसी अङ्ग के संकेत से दूसरे व्यक्ति को अपना भाव प्रकट करके, विना कहे ही उससे काम करा लेना । बाह्य पुद्गल-प्रक्षप : मर्यादित भूमि के बाहर का कार्य आ जाने पर कंकर मार कर; ढ़ेला फेक कर, अथवा अन्य कोई वस्तु फेंक कर दूसरे को अपना संकेत करना, आदि। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १११ श्रावक के चौदह नियम श्रमण-संस्कृति का मूल लक्ष्य है -भोग से त्याग की ओर जाना। श्रावक के जीवन में विवेक का कश होना चाहिए । विना विवेक के हेय एवं उपादेय का बोध नहीं हो सकता। क्या छोड़ने योग्य है, और क्या ग्रहण करने योग्य है ? यह जानना परम आवश्यक है। विवेकी श्रावक की सदा यह भावना रहा करती है, कि मैं आरम्भ और परिग्रह का त्याग करके असंयम से संयम की ओर बढ़ता रहूँ । श्रावक के लिए प्रतिदिन चौदह नियम चिन्तन करने की जो परम्पर। है' वह इस देशावकाशिक व्रत का ही एक रूप है। श्रावक के चोदह नियत इस प्रकार हैं१. सचित्त : पृथ्वी, जल, वनस्पति, अग्नि और फल-फूल, धान, बीज आदि सचित्त वस्तुओं का यथाशक्ति त्याग करना । २. द्रव्य : जो वस्तुएँ स्वाद के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से तैयार की जाती हैं, उनके सम्बन्ध में यह परिमाण करे, कि आज मैं इतने द्रव्यों से अधिक द्रव्य उपभोग में न लू गा। ३. विगय : शरीर में विकृति एवं विकार को उत्पन्न करने वाले पदार्थों को विगय कहा गया है । जैसे-दुग्ध, दधि, घृत, तेल तथा मिठाई । उक्त पदार्थों का यथाशक्ति त्याग करे, अथवा मर्यादा करे, कि इससे अधिक न लूगी । ये पांच सामान्य विगय है, और मधु एवं मक्खन-ये दो विशेष विगय हैं । इन विशेष विगयों का बिना कारण के उपभोग करने का त्याग करे, और कारणवश उपभोग करने की मर्यादा करे। मदिरा एवं मांस-ये दो महाविगय हैं। श्रावक को इन दोनों का जीवन भर के लिए सर्वथा त्याग करना चाहिए । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र ४. पन्नी : 'पन्नी' शब्द प्राकृत का है । इसका अर्थ है-उपानत् अर्थात् जूते , बूट, खड़ाऊँ तथा मौजे भी पन्नी में आते हैं, इनका त्याग करे, अथवा मर्यादा करे। ५. ताम्बूल : ताम्बूल का अर्थ है-पान । भोजन के बाद में मुखशुद्धि के लिए पान खाया जाता है । पान की, तथा उपलक्षण से सुपारी एवं इलायची आदी मुखवास की मर्यादा करे। ६. वस्त्र : पहनने, ओढ़ने तथा बिछाने के कपड़ों की मर्यादा करे। ७. कुसुम : फूल, फूलों की काला और इतर-तेल आदि सुगन्धित पदार्थों की मर्यादा करे। ८. वाहन : वाहन का अर्थ है-पवारी । गज, अश्व, ऊँट, गाड़ी, तांगा, रिक्शा, मोटर, रेल, जहाज, नाव एवं वायुयान आदि सवारी के साधनों का यथाशक्ति त्याग कर या मर्यादा करे । ९. शयन : शय्या, पलंग, खाट, बिस्तर, मेज, बेंच और कुर्सी आदि की मर्यादा करे। १०. विलेपन : शरीर पर लेप करने योग्य पदार्थों का-जैसे, केशर, कस्तूरी अगर-तगर, चन्दन, साबुन और तेल आदि-त्याग करे, या मर्यादा करे । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्याख्या ११३ ११. ब्रह्मचर्य : __ स्थूल ब्रह्मचर्य- स्वदार-सन्तोषरूप एवं परदार-वर्जनरूप व्रत स्वीकार करते समय जो अमुक दिनों की मर्यादा रखी है, उसका भी यथाशक्ति त्याग करे, या उसमें संकोच करे। १२. दिशा-मर्यादा : दिशापरिमाण-व्रत स्वीकार करते समय गमन एवं अगमन के लिए जो क्षेत्र-मर्यादा की थी, उस क्षेत्र को और अधिक मर्यादित करे, संकोच करे। १३. स्नान श्रावक शरीर-शुद्धि के लिए स्नान करता है । वह स्नान दो प्रकार का है-देशस्नान एवं सर्वस्नान । शरीर के कुछ भाग को धोनाजैसे हाथ धोना, पैर धोना एवं मुह धोना-यह देशस्नान है। शरीर के समस्त भाग को धोना सर्वस्नान है । स्नान की मर्यादा करना, अथवा सर्वथा त्याग कर देना । १४. भक्त: भोजन-पानी के सम्बन्ध में भी मर्यादा करे, कि आज मैं इतने से अधिक म खाऊंगा, न पीऊंगा। उक्त चौदह नियम श्रावक के दैनिक कर्तव्यरूप में हैं। यथा-शक्ति उक्त पदार्थों का त्याग करना, अथवा त्याग न कर सके तो मर्यादा करना। चौदह नियमों का पालन श्रावक अपनी त्यागशक्ति को विकसित करने के लिए ही करता है । वह इन नियमों का पालन कर के धीरे,धीरे भोग से त्याग की ओर बढ़ता है । :३८ : एकादश पौषध-व्रत एक्कारसमं पोसहोववासव्ययं। असण-पाणखाइम-साइम-पच्चक्खाणं । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्रांवतिक्रण मप्र अबंभ-पच्चक्खाणं, मणि-सुवरणाइ-पच्चक्खाणं,सतला-वएणग-विलेवणाइ-पच्चक्खा, मुसलाइ-सावज्ज-जोग-पच्चक्खाणं । जाव अहोरत्त, पज्जुवासोमि । दुविहं तिविहेणं, न करेमि न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा | एयस्स एक्कारसमस्स पोसहोववासव्वयस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा । तं जहा-अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहियसिच्जासंथारए, अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय सिज्जासंथारए, अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय उच्चारपासवणभूमि, अप्पमज्जिय - दुप्पमज्जिय उच्चार-पासावणभूमि, पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणया । जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मिया पोषधोपना (खाने अर्थ : ग्यारहवां पौषध या पोषधोपवास-व्रत है-अशन (भोजन) पान (पानी), खादिम (खाने योग्य), स्वादिम ( स्वाद योग्य ) वस्तुओं का प्रत्याख्यान (त्याग) करना। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ११५ अब्रह्मचर्य (मैथुन) सेवन का त्याग करना, मणि (रत्न)सोना आदि का त्याग करना, माला, रंग, विलेपन आदि का त्याग करना, शस्त्र मुसल' आदि सावध व्यापार का त्याग करना। यावत् अहोरात्र (दिन-रात तक) पौ का धषतवपालन करना। दो करण तीन योग से (अब्रह्यसेवन आदि) न करून कराऊँ, मन से, वचन से, काय से. इस एकादश पौषधोपवास व्रत के श्रमणोपासक को पाँच अतिचार जानने योग्य हैं, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं है। जैसे कि-शय्या-संथारे का मूलतः प्रतिलेखन (निरीक्षण) न किया हो, अथवा विवेक से ठीक तरह न किया हो, शय्या-संथारे की प्रमार्जन (यतना) न की हो, अथवा विवेक से ठोक तरह न की हो, उच्चारण-पासवण (मल-मूत्र) की भूमि (स्थान) का प्रतिलेखन न किया हो, अथवा विवेक से ठीक तरह न किया हो, उच्चार-पासवणभूमि का प्रमार्जन न किया हो, अथवा विवेक से प्रमार्जन न किया हो, पौषधोपवासव्रत का विधिवत् पालन न किया हो। जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किए हों, तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो। व्याख्या : पौषध : पौषध सांसारिक जीवन-संघ की सीमा को और अधिक संकुचित कर देता है । एक अहोरात्र के लिए सचित्त वस्तुओं का, शस्त्र का, पाप Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण,सूत्र व्यापार का, भोजन,पान का तथा अब्रह्मचर्य का परित्याग करना पौषध व्रत है । पौषध में साधक की दशा प्रायःसाधु जैसी हो जाती है । संसार के प्रपञ्चों से सर्वथा अलग रह कर, एकान्त में स्वाध्याय, ध्यान तथा आत्म,चिन्तन आदि धार्मिक क्रियाएं करते हुए जीवन को पवित्र बनाना इस व्रत का लक्ष्य है । साधक इसमें साधु-जैसी चर्या का पालन करता है । उसका वेष भी प्रायः साधुतुल्य रहता है । ध-व्रत : ग्यारहवाँ पौषध-व्रत है-आहार आदि का त्याग करके एकान्त 'थान में रह कर, धर्म-चर्या का पालन करना । पौषध-व्रत के चार अंग हैं। वे इस प्रकार। आहार-पौषध : चारों आहारों का त्याग करना । भौजन-पान आदि खाद्य एवं पेय सभी आहार-सम्बन्धी द्रव्यों का त्याग करके आत्म-भाव की साधना में लीन होना। शरीर-संस्कार-पौषध : __ स्नान, उबटन, विलेषन पुष्प, गन्ध,आभूषण, और वस्त्र आदि से शरीर को सजाने का त्याग करना । ब्रह्मचर्य-पौषध : तीव्र मोहोदय के कारण वेद-जन्य चेष्टारूप मैथुन एवं मैथुन के अंगों का त्याग करना, और आत्म-भाव में रमण करना तथा धर्म का पोषण करना। अव्यापार-पौषध : समस्त गृहकार्य आदि सावधव्यापार का त्याग करके संवर-भाव की साधना में लीन रहना । सचित्त का संघट्टा भी न करना । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ११७ __ पौधवत की साधना को एकमात्र यही उद्देष्य है, कि जीवन में भोग ही न रह कर त्याग भी आए । अतिचार : पौधवत के पाँच अतिचार हैं, जो श्रमणोपासक को जानने के योग्य तो हैं, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं । वे इस प्रकार हैंअप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्या-संस्तारक : पौषध-काल में काम में लिए जाने वाले शय्या=मकान, पाट, बिछौना, एवं संथारा आदि का तथा उपकरणों का प्रतिलेखन न करना अथवा विधि-पूर्वक प्रतिलेखन न करना । अप्रमाजित-दुष्प्रमार्जित-शय्या-संस्तारक ____ मकान, पाट, विस्तर एवं धर्मोपकरण आदि का प्रमार्जन ना अथवा विधि-पूर्वक प्रमार्जन न करना । . अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रसवगभूमि : .. शरीरधर्म से निवृत्ति होने के लिए" अर्थात् मल-मूत्र के त्याग के लिए भूमि का प्रतिलेखन न किया हो, अथवा विधिपूर्वक न किया हो । अप्रमाजित-दुष्प्रमार्जित-उच्चार-प्रस्रवणभूमिः ___मल-मूत्र के त्यागने के लिए भूमि का प्रमार्जन न किया हो, अथवा विधि-पूर्वक प्रमार्जन न किया हो। पौषधोपवास-समननुपालन : पौषधवत का विधिवत् पालन न करना, अथवा सम्यक् रीति से पूरा न करना । समय से पूर्व ही पौषध पार लेना आदि । विशेष ज्ञातव्य : यह पौषध चौविहार या तिविहार दोनों तरह से हो सकता है। जब तिविहार करना हो, तो पाठ में 'पाण' शब्द का प्रयोग न करना Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र चाहिए। कुछ लोग पानी लेने पर दसवाँ पौषध मानते हैं और इसके लिए देशावकाशिक-व्रत का पाठ पढ़ते हैं । परन्तु यह धारणा गलत है, दशवां व्रत पौषध-व्रत नहीं हैं। और आज-कल जो दया का रूप प्रचलित है, यह भी पौषध ही है । इसीलिए इसे दया-पौषा भी कहा जाता है । उक्त क्रिया में 'असणपाण-खाइम-साइम-पच्चक्खाणं' यह पाठांश न कहना चाहिए । शेष अंश ज्यों का त्यों है। मूल : द्वादश अतिथि-संविभाग-व्रत बारसमं अतिहि-संविभागव्वयं समणे निग्गंथे फासुएणं, एसणिज्जेणं, असण-पाण-खाइमसाइमेणं, वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पाय-पंछोणं, पाडिहारिएणं पीढ़-फलग-सिज्जा-संथारएणं ओसह-भेसज्जेणं य पडिलामेमाणे विहरामि । एयस्स बारसमस्स अतिहि-संविभागव्वयस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियब्वा, न समायरियव्या। तं जहा-सचिन-निक्खेवणया, सचित्तपिहणया, कालाइक्कमे, पर ववएसे, मच्छ रिया। जोमे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ११६ अर्थ : द्वादशवाँ अतिथि-संविभाग व्रत है-श्रमण निर्ग्रन्थ को अचित्त (प्रासुक) तथा एषणीय (कल्पनीय) भोजन, पानी, खादिम (खाने योग्य), स्वादिम (स्वाद योग्य) वस्त्र, प्रतिग्रह (पात्र), कम्बल, पाद-प्रोञ्छन (पर पोंछना, प्रातिहारिक (जो वस्तु गृहस्थ को वापिस लोटाई जा सके ऐसे) पीठ, फलक (पट्टा), शय्या (वसति आदि), संथारा (घास का बिछौना मादि), औषधि, भैषज्य (अनेक औषधियों का एक संमिश्रण) आदि का प्रतिलाभ (दान) देना ।। इस बारहवें अतिथिसंविभागवत के पांच अतिचार श्रमणोपासक को जानने योग्य हैं, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं है। जैसे कि-अचित्त वस्तु को सचित्र वस्तु पर रखन अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु से ढांकना काल क अतिक्रमण करना, अपनी वस्तु को (न देने की इच्छा से) दूसरे की बताना, मत्सरभाव से (ईभिाव से। दान देना । जो मने दिवस सम्वन्धी अतिचार किए हों, तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो । व्याख्या: अतिथि-संविभाग : अतिथि-संविभाग का अर्थ है-अतिथि के लिए विभाग करना । अतिथि का सत्कार करने के लिए अपने भोजन आदि पदार्थों में से उचित विभाग प्रदान करना-अतिथि-संविभाग है। गृहस्थ के घर का द्वार जन सेवा के लिए सदा खुला रहना चाहिए । यदि कभी साधुसाध्वी आएँ, तो भक्तिभाव के साथ उनको योग्य कल्पनीय आहार आरि Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२.. श्रावक प्रतिक्रमणे-सूत्र देना चाहिए। यदि कोई अन्य अतिथि भी आए, तो उसका भी योग्य आदर होना चाहिए । गृहस्थ के द्वार पर से यदि कोई व्यक्ति भूखा एवं निराश लीट कर जाता है, तो यह समर्थ गृहस्थ के लिए एक पाप है । अतिथिसंविभाग-व्रत इसी पाप से बचने के लिए है। अतिथि-संविभागवत : द्वादशवां अतिथि,संविभाग व्रत है-द्वार पर आए अतिथि का अपने भोजन आदि में से विभाग करना । मनुष्य संग्रह हा संग्रह न करता रहे साथ में देना भी सीखे । लेने के साथ देना भी आवश्यक है । प्रस्तुत व्रत में त्याग की शिक्षा दी गई है । मनुष्य को अपनी सम्पत्ति आदि का व्यामोह होता है और निरन्तर संगह भी करता रहता है। परन्तु यदि त्यागना नहीं सीखेगा, तो फिर वह जीवन पवित्र को केसे बनाएगा? परिग्रह का बन्धन संसार में सब से बड़ा बन्धन है । त्याग के द्वारा उस बन्धन को तोड़ना, यही उद्देश्य प्रस्तुत व्रत का है । इसमें दान देने की शिक्षा दी गई है। अतिचार: अतिथिसंविभाग व्रत का मुख्य सम्बन्ध त्यागी साधु से है । अतः तत्सम्बन्धी पांच अतिचार है, जो श्रमणोपासक को जानने योग्य तो हैं,. कन्तु) आचरण के योग्य नहीं हैं। वे इस प्रकार हैंसचित्त-निक्षेप : जो पदार्थ अचित्त होने के कारण मुनि के ग्रहण करने के योग्य है, उस को सचित्त पदार्थों पर रख देना, जिससे कि सचित्त-संस्पर्श का भी त्यागी होने से मुनि ग्रहण न कर सके । सचित-परिधान:: ___ सचित्त पदार्थ को सचित्त पदार्थ से ढकना, यह भि उत्त का वृत दुषण है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १२१ कालातिक्रम : भोजन का यथाप्राप्त समय टाल कर भोजन बनाना और खाना जिससे कि भोजन के संभावित अवसर पर कोई अतिथि आ जाय, तो न देना पड़े। परोपदेश : वस्तु देनी न पड़ जाए, इसलिए यह कहना कि यह वस्तु तो मेरी नहीं है; यह भी व्रत का दोष है। मात्सर्य : स्वयं को तो सहजभाव से देने की भावना नहीं है; परन्तु दूसरों को दान देते देखकर ईर्ष्याभाव से दान करना, कि ये करते हैं, तो मैं भी करूं। मैं दान करने में दूसरों से कम नहीं हूँ। अहंकार से दान निर्मल नहीं रहता। :४०: संलेखना-सूत्र विधि-सूत्र : अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-समये पोसहसालं पडिलेहित्ता, पोसह-सालं पमज्जित्ता, दब्भाइ-संथारयं संथरित्ता, दुरुहित्ता, उत्तरपुरत्याभिमुहे संपलियंकाइ-आसणे निसीइत्ता करयल-परिग्गहियं, दस-नहं सिरसावत्रं, मत्थए अंजलिं कटु एवं वइस्सामि । नमोऽत्थु णं अरिहंताणं- भगवंताणं जाव संपत्ताणं । मल अपश्मिा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२. श्रावक प्रतिक्रमण - सूत्र नमोत्थु णं मम धम्मायरियस्स जाव संपाविउं कामस्स । वन्दामि णं भगवंतं तत्थ-गयं, इहगए, पासउ मे भगवं ! तत्थ - गए, हइ-गयं ति कटूड वंदिता नमंसित्ता, एवं वइस्सामि । । प्रतिज्ञा-सूत्र : पुव्विं च गं मए पागाइवाए, पच्चक्खाए, जाव मिच्छादंसण-सल्लं पच्चक्खाए । इयाणिं पिणं अहं सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि । सव्वं मुसावायं पच्चक्खामि । सव्वं अदिन्नादाणं पच्चक्खामि ! सव्वं मेहूणं पच्चक्खामि । सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि । सव्वं कोहं जाव मिच्छादंसण सल्लं अकर णिज्जं जोगं पच्चक्खामि | जोवज्जीवाए, तिविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेम करतं पि अन्न ं न समणुजाणामि | मणसा, वयसा, कायसा । सव्वं असण- पाण- खाइम - साइमं चउव्विहं पि आहारं पंच्चक्खामि । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १२३ जावज्जीवाए-जं. पि य इमं सरीर इठें, कंत, पियं, मणुएणं मणामं धिज्जं, वेसासियं, सम्मयं, अणुमयं, बहुमयं, भण्ड-करण्डगसमाणं, मा णं सीयं, मा णं उएहं, मा एवं खुहा, मा ण पिवासा, मा एवं बाला, मा ण चारा, मा एवं दंसा, मा णं मसगा, मा एवं वाइयं पित्तियं-सभिमं, सनिवाइयं, विविहा रोगायंका, परिसहोवसग्मा, फुसंतु चि कटु एवं पि णं चरिमेहि, उस्सास-नीसासेहिं, वोसिरामि ति कटु, एवं पिरणं संलेहणा, भूसणा असिचा, काल अण्णवकंखमाणे विहरामि । एवं मे सद्दहणा, परूवणा अणसणावसरे पचे, अणसणे कए।.फासणाए सुद्धो हविज्जा । अतिचार-सूत्र: एवं अपच्छिम-मारपिय-संलेहणा असणाआराहणाए, पंच अइयारा जाणियब्वा, न समायरियव्वा । तं जहा-इहलोगासंमप्पओगे, पर-लोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे । तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ अर्थ : श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र संलेखना विधि: (जीवन के अन्त में) मारणान्तिक संलेखना के समय में, पौषध-शाला का प्रतिलेखन करके, पौषध-शाला का प्रमार्जन करके, दर्भ आदि का संथारा (बिछौना) बिछा कर उस पर चढ़ कर, पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके पर्यक तथा पद्मासन आदि आसन से बैठ कर, दश अंगुली-सहित दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोलेनमस्कार हो, अरिहंत भगवान् को, यावत् सिद्धिस्थान को, जो प्राप्त हो गए हैं। नमस्कार हो, मेरे धर्माचार्य को, यावत् सिद्धि-स्थान की प्राप्ति के लिए साधना करने वाले को । मैं यहाँ से वहाँ रहे भगवान को वन्दना करता हूँ, भगवान् मुझे देख रहे हैं, मेरी वन्दना को स्वीकार करें। वन्दना एवं नमस्कार करके इस प्रकार बोलेप्रतिज्ञा पहले भी मैंने प्रणातिपात यावत् मिथ्या-दर्शन-शल्य तक सब पापों का त्याग किया था। अब भी मैं सर्व प्रकार के प्राणातिपात का, मृषावाद का, अदत्तादान का मैथुन का और परिग्रह का त्याग करता हूँ। समस्त क्रोध यावत् मिथ्या-दर्शन-शल्य तक के न करने योग्य सावद्ययोगों का त्याग करता हूँ। जीवनभर के लिये तीन करण और तीन योग से, न करूंगा न करवारूगा और न करते हुओं का अनुमोदन करूंगा मन से, वचन से और काय से। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १२५ अशन, पान खाद्य एवं स्वाद्य-सम्बन्धी समस्त चार आहारों का त्याग करता हूँ । जीवनपर्यन्त - मैंने अपने इस शरीर का पालन एवं पोषण किया है - जो मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरम, अवलम्बनरूप, विश्वासयोग्य, सम्मत, अनुमत, बहुमत, आभूषण की पेटी के समान प्रिय रहा है, और जिसकी मैंने सर्दी से, गर्मी से, भूख से, प्यास से, सर्प से, चोर से, डांस से, मच्छर से, वात, पित्त, कफ एवं संनिपात आदि अनेक प्रकार के रोग तथा आतंक से, परीषह तथा उपसर्ग आदि से रक्षा की है । ऐसे इस शरीर का भी मैं अन्तिम साँस उसाँस तक त्याग करता हूँ । इस प्रकार शरीर के ममत्वभाव को त्याग कर, संलेखनारूप तप में अपने आप को समर्पित करके एवं जीवन और मरण की आकांक्षा रहित हो कर विहरण करूँगा । मेरी श्रद्धा एवं प्ररूपणा यह है, कि मैं अनशन के अवसर पर अनशन करू, स्पर्शना से शुद्ध बनूँ । अतिचार : इस प्रकार मारणान्तिक संलेखना के पांच अतिचार हैं, जो श्रमणोपासक को जानने के योग्य तो हैं, (किन्तु ) आचरण के योग्य नहीं हैं। वे इस प्रकार हैंइस लोक के सुखों की इच्छा की हो, परलोक के सुखों की इच्छा की हो, अधिक जीने की इच्छा की हो, शीघ्र मरने की इच्छा की हो, काम-भोगों की इच्छा की हो, तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो । ----- Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र व्याख्या : संथारा : .. जैन-धर्म की निवृत्ति प्रधान साधना में 'संथारा' अर्थात् संस्तारक का बहुत बड़ा महत्व है । जीवनभर की अच्छी बुरी क्रियाओं का लेखाजोखा लगा कर अन्त समय में, समस्त पापप्रवृत्तियों का त्याग करना, मन, वचन एवं काय को संयम में रखना, ममत्व-भाव से मन को हटा कर आत्म-चिन्तन में लगाना, भोजन पानी तथा अन्य सब उपाधियों को त्याग कर आत्मा को निर्द्वन्द्व एवं निःस्पृह बनाना-संथारा का महान आदर्श है । जैन धर्म का आदर्श है-जब तक जीओ विवेकपूर्वक धर्माराधन करते हुए आनन्द से जीओ, और जब मृत्यु आ जाए, तो विवेकपूर्वक धर्माराधना में आनन्द से ही मरो । साधक-जीवन का आदर्श हैसंयम की साधना के लिए अधिक से अधिक जीने का प्रयत्न करो, और जब देखो कि अब जीवन की लालसा में अपने धर्म से विमुख होना पड़ रहा है, तो अपने धर्म पर, अपने संयम में सुदृढ़ रहो, समाधिमरण के लिए तैयार रहो । इसी को संथारा की साधना कहते हैं । अतिचार : संलेखना के पांच अतिचार हैं, जो श्रमणोपासक को जानने तो चाहिए, (किन्तु) उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार हैंइहलोकाशंसा-प्रयोग : इस लोक के सुख-साधनों की इच्छा करना। जैसे- मैं राजा बनू, मैं चक्रवर्ती बन्। परलोकाशंसा-प्रयोग : परलोक सुख-साधनों की इच्छा करना । जैसे-मैं देव बनू, मैं इन्द्र बनू । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १२७ जीविताशंसा-प्रयोग : _. अधिक दिनों तक जीवित रहने की इच्छा करना। मेरी प्रशंसा हो रही है ; मैं जीवित रहूँ, ताकि सुदीर्घ संथारा के महत्व से मेरी और अधिकाधिक प्रशंसा होती रहे । मरगाशंसा-प्रयोग : शीघ्र मरने की इच्छा करना । भूख-प्यास से अथवा रोग आदि से व्याकुल हो कर यह सोचना, कि मैं कब मरूँगा ? जल्दी ही मर जाऊँ, तो इस झंझट से छुटकारा मिले । काम-भोगाशंसा-प्रयोग : ____काम-भोगों की इच्छा करना । शब्द एवं रूप को काम कहा जाता है और गन्ध, रस तथा स्पर्श को भोग कहा जाता है। काम-भोग की अभिलाषा करना, साधना का दूषण है। आलोचना :४१: इस प्रकार ज्ञान, दर्शन और बारह व्रत, संलेखना सहित चारित्र के ६६ अतिचार सम्बन्धी अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार अनाचार । जानते-अजानते, मन, वचन, काय से सेवन किया हो, कराया हो, करते को भला जाना हो, तो अनन्त सिद्ध केवली भगवान् की साक्षी से तस्स मिच्छा मि दुवकडं । अष्टादश पाप-स्थान प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, रति-अरति, पैशुन्य, पर-परिवाद, माया-मृषावाद, मिथ्यादर्शन-शल्य । | Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र इन अष्टादश पाप स्थानों से किसी भी पापस्थान का सेवन किया हो, कराया हो, करते को भला जाना हो, तो अनन्त सिद्ध केवली भगवान की साक्षी से तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । :४३ : उपसंहार-सूत्र तस्स धम्मस्स, केवलो-परणतस्स, अब्भुट्टिओमि, आराहणाए । विरओमि, विराहणाए। तिविहेणं पडिक्कतो, वन्दामि जिण चउव्वीस । अर्थ : केवलो भगवान द्वारा भाषित धर्म की आराधना में, मैं स्थित हैं। विरधना से अलग हैं। तीन योगों से, मन से, वचन से, काय से, प्रतिक्रान्त होता हुआ, पापाचरण से पीछे की ओर हटता हुआ, स्व-स्वरूप में स्थित होता हुआ, मैं चौबीस तीर्थङ्करों को वन्दन करता हूँ। व्याज्या: प्रस्तुत पाठ 'उपसंहार-सूत्र' है, इसमें बताया गया है, कि मैं धर्म की आराधना में स्थिर हूँ और धर्म की विराधना से विरत हूँ। धर्म की विराधना से, मैं, मन से, वचन से, एवं काय से-तीन योग से प्रतिक्रान्त हो कर, दोषों से पीछे हटकर पूर्वगृहीत-संयम सम्बन्धी नियमों में स्थिर हो कर महान् उपकार करने वाले २४ तीर्थङ्करों को व-दन करता हूँ। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या पांच पदों की वन्दना नमो अरिहंताणं : नमस्कार हो, अरिहन्तों को। अरिहन्त कैसे है ? चार घाती कर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, और अन्तराय का क्षय करने वाले हैं । चार अनन्त-चतुष्टय-अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन अनन्तचारित्र, और अनन्तवीर्य के धारण करने वाले हैं । देव-दुन्दुभि, भा-मण्डल, स्फटिक-सिंहासन, अशोक-वृक्ष, पुष्प-वृष्टि, दिव्य-ध्वनि, छत्र चामर-इन आठ महाप्रातिहार्यों से सुशोभित हैं । अरिहंत भगवान् उक्त, बारह गुणों से युक्त हैं, और अठारह दोषों से रहित हैं। चौसठ इन्द्रों के पूजनीय हैं । चौतीस अतिशय, पैंतिस वाणी के गुण और शरीर के एक-सौ आठ उत्तम लक्षणों से युक्त हैं। वर्तमान काल में जघन्य बीस, उत्कृष्ट एक-सौ साठ, अथवा एकसौ सत्तर तीर्थङ्कर तथा जघन्य दो करोड़ उत्कृष्ट नव करोड़ सामान्य केवली, पांच महाविदेह क्षेत्रों में विहरमाण अरिहंत 'भगवानों को वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, तथा जानते अजानते किसी भी प्रकार की अविनय एवं आशातना हुई हो, तो तीन करण और तान योग से क्षमा चाहता हूँ। नमो सिद्धा: नमस्कार हो, सिद्धों को। सिद्ध कैसे हैं ? ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, अन्तरायइन आठ कर्मों को क्षय करके जिन्होंने अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शनअनन्तसुख, क्षायिक-भाव, अक्षय अवगाहनत्व, अमूर्तित्व, अगुरु Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्रावक प्रतिक्रमण - सूत्र लघुत्व, अनन्तवीर्य रूप आठ गुण प्राप्त किये हैं । इकत्तीस गुणों से युक्त हैं। सिद्धों में वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, रस नहीं, स्पर्श नहीं, संस्थान नहीं, वेद नहीं, काया नहीं, कर्म नहीं, जन्म नहीं, जरा नहीं, मरण नहीं, पुनरागमन नहीं । अस्तु, पन्द्रहभेदी सिद्ध भगवानों को वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, तथा जानते अजानते किसी भी प्रकार की अविनय एवं अशानता हुई हो, तो तीन करण और तीन योग से क्षमा चाहता हूँ । नमो आयरियाणं : नमस्कार हो, आचार्यों को । आचार्य कैसे हैं ? पांच आचार पाँच महाव्रत, पाँच इन्द्रिय-जय, चार कषाय-जय, नव वाड सहित शुद्ध-शील, पांच समिति, तीन गुप्ति- इन छत्तीस गुणों से युक्त हैं, और जो श्र त सम्पदा, शरीर - सम्पदा, वचन सम्पदा, मति-सम्पदा, प्रयोग- सम्पदा, वाचना- सम्पदा, संग्रह - सम्पदा, आचार-सम्पदा इन आठ सम्पदाओं से सम्पन्न हैं, तथा अन्य अनेक गुणों से संयुक्त हैं, उन आचार्य महाराज को वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, तथा जानते-अजानते किसी भी प्रकार की अविनय एवं आशातना हुई हो, तो तीन करण और तीन योग्य से क्षमा चाहता हूँ । नमो उवज्झायाणं : לי नमस्कार हो, उपाध्यायों को । उपाध्याय कैसे हैं ? जो ग्य ह अंग - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताध मंकथांग, उपासकदशांग, अन्तकृतदशांग, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्न- व्याकरण, विपाक त, और बारह उपांग- औप पातिक, रायपसेणिय, जीवा जीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बू-दीप Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्य-प्रज्ञप्ति, निश्यावलिया, कप्पिया, कप्पवडिसिया, पुफिया, पुप्फचूलिया, वहीदसा को स्वयं पढ़त हैं और दूसरों को भी पढ़ाते हैं । चरण सत्तरी एवं करण-सत्तरी का पालन करते हैं। जो उक्त पच्चीसगुणों से विभूषित है । निशीथ, व्यवहार, बृहत्करूप, दशाश्रु तस्कन्ध- इन चार छेद सूत्रों के, तथा दशवेकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी, अनुयोगद्वार - इन चार मूल सूत्रों के और आवश्यक सूत्र के ज्ञाता हैं । S उपाध्याय महाराज को वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, तथा जानते अजानते किसी भी प्रकार की अविनय एवं आशातना हुई हो, तो तीन करण और तीन योग से क्षमा चाहता हूँ । नमो लोए सव्वसाहूणं : नमस्कार हो, लोक में समस्त साधुओं को । साधु कैसे हैं ? पाँच महाव्रत के धारक हैं । पाँच इन्द्रिय और चार कषायों के विजेता हैं । भावसत्य, करणसत्य एवं योगसत्य से युक्त हैं । क्षमाशील है, वराग्यवान् हैं । मनः समाधारणता, धारणता एवं कारसमाधारणता से युक्त हैं । दर्शनसम्पन्नता तथा चरित्र सम्पन्नता से युक्त हैं, शीत, उष्ण आदि वेदना सहन करते हैं। मारणान्तिक उपसर्ग सहन करते हैं । उक्त सत्ताईस गुणों से युक्त हैं । दश प्रकार के यति-धर्म को धारण करते हैं । सत्तरह प्रकार का संयम पालते हैं । अठारह पाप के त्यागी हैं । बाईस परिषह के जीतने वाले हैं । क्यास दोष टाल कर आहार लेते हैं । अढ़ाई द्वीप की कर्मभूमि के पन्द्रह क्षेत्रों में अरिहन्त भगवान् की आज्ञा के अनुसार जघन्य दो हजार करोड़ एवं उत्कृष्ट नव हजार करोड़ साधु विहरण करते हैं । १३१ वचन - समाज्ञानसम्पन्नता, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण - सूत्र ऐसे साधु महाराज को वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हैं, तथा जानते - अजानते किसी भी प्रकार की अविनय एवं आशातना हुई हो, तो तीन करण और तीन योग से क्षमा चाहता है । : ४५ : अरिहंत-वन्दना १३२ नमो श्री अरिहंत, करमों को किया अंत, हुवा सो केवलवंत, करुणा भण्डारी है; अतिशय चौंतीसधार, पेंतीस वाणी उच्चार समझावे नरनार, पर उपकारी हैं । शरीर सुन्दराकार, सूरज-सो झलकार, गुण हैं अनंन्त सार, दोष परिहारी है: कहत है तिलोक रिख, मन वच काय करि झुकी झुकी बारंबार वन्दना हमारी है ।। - सिद्ध-वन्दना : सकल करम टोल, वश कर लियो काल, मुकति में रह्या माल, आतमा को तारी है? देखत सकल भाव, हुआ है जगत्-राव, सदा ही क्षायिक भाव-भय अविकारी हैं । अचल अटल रूप आवे नहीं भव- कूप, अनूप स्वरूप ऊप, ऐसी सिद्ध धारी हैं Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या कहत है तिलोकरिख, बताओ ए वास प्रभु, सदा हि उगंत सूर, वन्दणा हमारी है। आचार्य-वन्दना : गुण हैं छतीस पूर, धरत धरम उर, मारत करम कूर, सुमति विचारी है। शुद्ध सो आचारवंत, सुन्दर है रूप कन्त, भणिया सभी सिद्धान्त, वाचणी सु प्यारी है। अधिक मधुर वैण, कोई नहिं लोपे केण, सकल जीवों का सेण, कीरति अपारी है। कहत है तिलोकरिख, हितकारी देत सिख, ऐसे आचारज तार्क, वंदणा हमारी है ।। उपाध्याय-वन्दना: पढ़त इग्यारे अंग, कर्मोसं करे जंग, पाखंडी को मान भंग. करण हशियारी है। चउदे पूरव धार, जाणत आगम सार, भवियन के सुखकार, भ्रमणा निवारी है। पढ़ावे भविक जन, स्थिर कर देत मन, तप कर तावे तन, ममता निवारी है। कहत है तिलोकरिख, ज्ञान भानु परतिख, ऐसे उपाध्याय ताकुं, वंदना हमारी है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ साधु-वन्दना : आदरी संजम भार, सुमति गुपति धार, जया करे काय, बुझाय कषाय लाय, ज्ञान पढ़े आढ़ों याम, लेवे भगवंत नाम, धरम को करे काम; ममता को मारी है; कहत हैं तिलोकरिख, कर्मा को टाले विख, ऐसे मुनिराज ताकुं, वन्दणा हमारी है ।। गुरुदेव - वन्दना : श्रावक प्रतिक्रमण - सूत्र करणी करे अपार, विकथा निवारी है; सावद्य न बोले वाय, किरिया भण्डारी है । जैसे कपड़ा को थाण, दरजी वेतत् आण खंड-खंड करे जाण, देत सो सुधारी है; काठ के ज्यू सूत्रधार, हेमको कसे सुनार, माटी के जो कुम्भकार, पात्र करें त्यारी है । धरती के करसाण, लोहे के लुहार जाए, सीलवट सीला आण, घाट घड़े भारी है, कहत है तिलोकरिख, सुधारे ज्यू गुरु शिष्य, गुरु उपकारी, नित लीजे बलिहारी है ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या गुरु मित्र गुरु मात, गुरु सगा, गुरु तात, गुरु भूप, गुरु प्रात, गुरु हितकारी है, गुरु रवि, गुरु चन्द्र, गुरु पति, गुरु इन्द्र, गुरु देव दे आणंद, गुरु पद भारी है। गुरु सिखात ज्ञान-ध्यान, गुरु. देत दान मान गुरु देत मोक्ष-भान सदा. उपकारी है, कहत है तिलोकरिख, भली-भली देवे सिख, पल-पल गुरुजी को, वंदणा हमारी है ।। :४६ : अनन्त' चौबीसी ते नमू, सिद्ध अनन्ता कोड़ । केवली ज्ञानी थेवर सभी; वंदू बे कर जोड़ ॥ दो कोड़ी केवलधरा, विहरमान जिन बीस । सहस युगल कोड़ो नमू; साधू वंदू निस दोस । :४७.: समुच्चय जीवों से क्षमापना सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अप्काय, सात लाख तेजस्काय, सात लाख वायुकाय । ___ दश लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारण वनस्पतिकाय । दो लाख द्वीन्द्रिय, दो लाख त्रीन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय । चार लाख देवता, चार लाख नारक, चार लाख तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय और चौदह लाख मनुष्य । १७ यह पाठ कहीं पढ़ा जाता है, कहीं नहीं । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र इस प्रकार चार गति, चौरासी लाख जीवयोनि के किसी भी जीव को हना हो, हनाया हो हनते को भला जाना हो, तो १८, २४, १२० बार तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । सब जीवों से मन, वचन और काय से क्षमा-याचना करता हूँ। सब जीव मुझे क्षमा करें। :४८: क्षमापना सूत्र मूल : खामेमि सव्वे जीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मिती मे सव्व-भूएसु, वरं मझ न केाइ । एवमहं आलोइअ, निदिय गरिहिअ दुगुछिउं सम्म तिविहेणं पडिक्कतो; वन्दामि जि-चउव्वीसं । अर्थ : मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ, और के सब जीव भी मुझे क्षमा करें। मेरी सब जीवों के साथ मित्रता है, किसी के साथ मेरा बैर-विरोध नहीं है।। इस प्रकार मैं सम्यक् आलोचना, निन्दा,. गर्दा और जुगुप्सा के द्वारा तीन योग से-मन से, वचन से एवं काय से-प्रतिक्रमण करके, पापों से निवृत्त हो कर, चौवीस तीर्थङ्करों को वन्दन करता हूँ। | Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १३७ व्याख्या क्षमा, साधक-जीवन का सब से बड़ा गुण है। वह साधक ही क्या जो जरा-जरा-सी बात पर क्रोध करे। वैर-विरोध करे । लड़ाई-झगड़ा करता फिरे । बैर-विरोध की अग्नि, वह भयंकर अग्नि है, जो हृदय को मृदुता को जला डालती है । क्षमा, साधक की सब से बड़ी शक्ति है. अपार बल है। क्षमा का अर्थ है--सहिष्णुता रखना स्वयं किसी का अपराध न करना और दूसरों के अपराध को क्षमा कर देना । क्षमा के बिना साधना पनप ही नहीं सकती। प्रस्तुत पाठ में साधक संसार के समस्त जीवों को क्षमा करता है। और दूसरों से कहता है, कि वे भी मुझ को क्षमा करें। क्षमा का मूल आधार मैत्रीभाव है । परन्तु वह तभी स्थिर हो सकता है, जबकि साधक के मानस में किसी के प्रति बैर-विरोध न हो। वस्तुतः वैर. विरोध को भूल कर, सबसे प्रेम करना ही सच्ची क्षमा है। क्षमा की साधना से जीवन पवित्र बनता है। आलोचना जीवन-विकास का मूल है । अपनी भूलों को समझना, और समझ कर छोड़ना-आलोचना का तथ्य है। जो साधक अपने जीवन की शुद्धि चाहता है, उसे आलोचना के पथ पर अग्रसर होना ही होगा। निन्दा का अर्थ है-आत्म-साक्षी से अपने मन में, अपने पापों की निन्दा करना । गर्हा का अर्थ है-पर की साक्षी से अपने पापों की बुराई करना । जगुप्सा का अर्थ है-पापों के प्रति पूर्ण घृणा-भाव व्यक्त करना । जब तक पाप के प्रति घृणा न होगी, तब तक मनुष्य उससे बच नहीं सकता। इस प्रकार आलोचना, निन्दा, गर्हा और जुगुप्सा के द्वारा किया गया प्रतिक्रमण ही सच्चा प्रतिक्रमण है । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ मूल : अर्थ : श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र आवस्सहि इच्छाकारेण संदिसह भगवं ! देवसिय पायच्छित्त-विसोहडू करेमि काउ स्सग्गं । भन्ते ( आप इच्छा - पूर्वक आज्ञा दीजिए (जिससे मैं ) अवश्यकरणीय, दिवस- सम्बन्धी प्रायश्चित्त को विशुद्धि के लिए कायोत्सर्ग करू । : ५० : ध्यान के विषय में मन का, वचन का, काय का जो कोई खोटा योग प्रवर्ताया हो, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं । : ५१ : १. सामायिक २. चतुर्विंशति स्तव ३. वन्दना ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान सुहाए, निस्सेसयाए, अणुगामियाए भविस्सति । मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण, अव्रत का प्रतिक्रमण, प्रमाद का प्रतिक्रमण, कषाय का प्रतिक्रमण और अशुभयोग का प्रतिक्रमण | इन पाँच प्रतिक्रमणों में से कोई भी प्रतिक्रमण न किया हो, विधि पूर्वक उपयोग के साथ न किया हो, तो तस्स मिच्छा मि दुक् कडं । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र परिशिष्ट Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्याख्यान पच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? पच्चक्खाणेणं आसव-दाराई निरु भइ, पच्चक्खाणेणं इच्छा-निरोहं जणयइ, इच्छा-निरोहंगए णं जीवे सव्व-दव्बेसु विणीय-तण्हे, सीई भूए विहरइ, अर्थ : 'भगवन् ! प्रत्याख्यान करने से आत्मा को किस फल की प्राप्ति होती है ? प्रत्याख्यान करने से हिंसा आदि आश्रव-द्वार बन्द हो जाते हैं, और इच्छा का निरोध हो जाता है, इच्छा का निरोध होने से समस्त विषयों के प्रति वितृष्ण हो कर, साधक शान्त-चित्त रह कर, विचरण करता है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश प्रत्याख्यान (१) नमस्कार-सहित-सूत्र : मूल : उग्गए सूरे नमोक्कार-सहियं पच्चक्खामि । चउव्विहं पि आहार-असणं, पाणं, खाइमं साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, बोसिरामि । अर्थ : सूर्य उदय होने पर, [दो घड़ी दिन चढ़े नक] नमस्कार-सहित प्रत्याख्यान ग्रहण करता हूँ। अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य-चारों प्रकार के आहारों का त्याग करता हूँ। इस प्रत्याख्यान में दो आगार (अपवाद) हैं -- अनाभोग = अत्यन्त विस्मृति, और सहसाकार= शीघ्रता । उक्त दो कारणों के सिवा चारों आहारों का त्याग करता हूँ। व्याख्या : नमस्कार-सहित का अर्थ है-सूर्योदय से लेकर दो घड़ी दिन चढ़े तक; अर्थात्-मुहूर्तभर के लिए, बिना नमस्कार-मन्त्र पढ़े आहार ग्रहण नहीं करना । इसका दूसरा नाम नमस्कारिका भी है । आजकल साधारण १. "नमस्कारेण - पंचपरमेष्ठिस्तवेन सहितं प्रत्याख्याति । 'सर्वे धातवः करोत्यर्थेन व्याप्ता' इति भाष्यकार-वचनात् नमस्कारसहितं प्रत्याख्यानं करोति ।" Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र बोलचाल में नवकारसी कहते हैं । नमस्कारिका में केवल दो ही आगार हैं - अनाभोग, और सहसाकार । (१) अनाभोग : इसका अर्थ है-अत्यन्त विस्मृति । प्रत्याख्यान लेने की बात सर्वथा भूल जाय और उस समय असावधानतावश कुछ खा-पी लिया जाय, तो वह अनाभोग-आगार की मर्यादा में रहता है। (२) सहसाकार : इसका अर्थ है-मेघ बरसने पर, अथवा दही आदि मथते समय अचानक ही जल या छाछ आदि का छींटा मुख में चला जाय । (२) पौरुषी-सूत्र : मूल : उग्गए सूरे पोरिसि पच्चक्खामि । चउन्विहं पि आहारं-असणं, पाणं, खाइम, साइमं । १. यह कथन आचार्य सिद्धसेन का है, जिसका भावार्थ है कि - मुहूर्त पूरा होने पर भी नवकारमन्त्र पढ़ने के बाद ही नमस्कारिका का प्रत्याख्यान पूरा होता है, पहले नहीं । यदि मुहूर्त से पहले ही नवकारमन्त्र पढ़ लिया जाय, तब भी नमस्कारिका पूर्ण नहीं होती हैं । नमस्कारिका के लिए यह आवश्यक है कि सूर्योदय के बाद एक मुहूर्त का काल भी पूर्ण हो जाय, और प्रत्याख्यान-पूर्तिस्वरूप नवकारमन्त्र का जप भी कर लिया जाय । इसी विषय को प्रवचनसाोद्धार की वृत्ति में आचार्य सिद्धसेन ने इस प्रकार स्पष्ट किया है-“स च ननस्कारसहितः पूर्णेऽपि काले नमस्कारपाठमन्तरेण प्रत्याख्यानस्यापूर्यमाणत्वात्, सत्यपि च नमस्कार-पाठे मूहर्ताभ्यन्तरे प्रत्याख्यानभंगात, ततः सिद्धमेतत् मुहूर्तमानकाल-नमस्कार-सहित प्रत्याख्यानमिति ।"-प्रत्याख्यानद्वार । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १४३ अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुक्यणेणं, सब समाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि । अर्थ : पौरुषी का प्रत्याख्यान करता हूँ सूर्योदय से ले कर पहर दिन चढ़े तक अशन, पान, खाद्य और स्वाद्यचारों प्रकार के आहारों का त्याग करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिशा-मोह, साधुवचन, सर्वसमाधिप्रत्याकार (किसो आकस्मिक शूल आदि तीव्र रोग की उपशान्ति के लिए औषध आदि ग्रहण कर लेना) उक्त छह आगार के सिवा चारों आहारों का त्याग करता हूँ। व्याख्या : पौरुषी में छह आगार है । दो पहले के हैं, शेष चार इस प्रकार हैं (अ) प्रच्छन्न-काल-बादल अथवा आंधी आदि के कारण सूर्य ढक जाने से पोरिसी पूर्ण होने की भ्रान्ति हो जाना। (ब) दिशा-मोह-पूर्व को पश्चिम समझ कर पोरिसी न आने पर भी सूर्य के ऊँचा चढ़ आने की भ्रान्ति से अशनादि-सेवन कर लेना। (स) साधु-वचन 'पोरिसी आ गई', इस प्रकार किसी आप्त पुरुष के कहने पर बिना पोरिसी आए ही पोरिसी पार लेना। (द) सर्व-समाधि-प्रत्ययाकार-किसी आकस्मिक शूल आदि तीव्र रोग की उपशान्ति के लिए औषधि आदि ग्रहण कर लेना । (३) पूर्वार्ध-सूत्र : मूल : उग्गए सूरे पुरिमड्ढं पच्चक्खाभि । चउव्विहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसा-मोहेणं, साहु-वयणेणं, महत्त रागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि अर्थ : सूर्योदय से लेकर दिन के पूर्वार्ध तक (दो पहर तक) चारों आहारों का-अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य का त्याग करता है। अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिशामोह, साधु वचन महत्तराकार और सर्व-समाधि प्रत्ययाकार-उक्त बात प्रकार के आगारों के सिवा चारों आहारों धा त्याग करता है। व्याख्या महत्तराकार कार्य है-विशेष निर्जरा आदि को ध्यान में रख कर रोगी आदि की सेवा के लिए, अथवा श्रमणसंघ के किसी अन्य महत्वपूर्ण कार्य के लिए गुरुदेव आदि महत्तर-,रुष की आज्ञा पा कर निश्चित समय के पहले ही प्रत्याख्यान पार लेना । (४) एकाशन-मूत्र : एगासणं पच्चक्खामि । तिविहं पि आहारंअसणं.खाइन साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, आउंटणापसारणेणं, गुरुअब्भुट्ठाणेणं पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च्याख्या १४५ अर्थ : एकाशन (तप) स्वीकार करता हूँ। अशन, खाद्य एवं स्वाद्य-- तीनों आहारों का त्याग करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, सागारिकाकार, आकुञ्चनप्रसारण, गुरु-अभ्युत्थान, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्व-समाधि-प्रत्याकार-उक्त आठ आगारों के सिवा तीनों आहारों का त्याग करता हूँ। व्याख्या : (अ) सागारिकाकार-आगम की भाषा में सागारिक 'गृहस्थ' को कहते हैं । गृहस्थ के आ जाने पर उसके सम्मुख भोजन करना निषिद्ध है । अतः सागारिक के आने पर साधु को भोजन करना छोड़ कर यदि बीच में ही उठ कर, एकान्त में जा कर पुनः दूसरी बार भोजन करना पड़े, तो व्रतभंग का दोष नहीं लगता। (ब) आकुञ्चन प्रसारण-भोजन करते समय सुन्न पड़ जाने आदि के कारण से हाथ, पैर आदि अंगौं का सिकोड़ना या फैलाना । उपलक्षण से आकुञ्चन-प्रसारण में शरीर का आगे-पीछे हिलाना-डुलाना भी आ जाता है। १ आचार्य जिनदास ने आवश्यक-चूणि में लिखा है कि आगन्तुक गृहस्थ यदि शीघ्र ही चला जाने वाला हो, तो कुछ समय प्रतीक्षा करनी चाहिए सहसा उठ कर नहीं जाना चाहिए । यदि गृहस्थ बैठने वाला है और शीघ्र ही नहीं जाने वाला है, तब अलग एकान्त में जा कर भोजन से निवृत्त हो लेना चाहिए । व्यर्थ में लम्बी प्रतीक्षा करते रहने में स्वाध्याय की हानि होती है। "सागारियं अद्ध समुद्दिट्टम्स आगतं जदि बोलेति पडिच्छति अहथिरं ताहे सज्झायवाघातो त्ति उट्ठत्ता अन्नत्थ गंतू णं समुद्दिसति ।" Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ श्रावक प्रतिक्रमत्र-सूत्र सर्प और अग्नि आदि का उपद्रव होने पर भी अन्यत्र जा कर भोजन किया जा सकता है । सागारिक शब्द से सर्पादि का भी ग्रहण है। (स) गृर्वभ्युत्थान-गुरुजन एवं किसी अथितिविशेष के आने पर उनका विनय-सत्कार करने के लिए उठना या खड़े होना ।। (५) एक्कासणं एगट्ठाणं पच्चक्खामि । तिविह पि आहारं-असणं, खाइम, साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं अब्भदाणेणं. पारिटठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि । अर्थ : एकाशनरूप एकस्थान का (प्रत) ग्रहण करता हूँ। अशन, खाद्य एवं स्वाद्य-तीनों आहारों का त्याग करता है। अनाभोग, सहसाकार, सागारिकाकार, गुरु-अभ्युत्थान, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त सात आगारों के सिवा आहार का त्याग करता हूँ। (६) आचाम्ल-सूत्र : मूल : आयंबिलं पच्चक्खामि । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, उखक्खित्तविवेगेणं, | Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १४७ गिहि-संसट्ठणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरा गारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि । अर्थ : आयंबिल (आचाम्लतप) ग्रहण करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, उत्क्षिप्तविधेक, गृहस्थ-संसष्ट, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त आठ आगार के सिवा आहार का त्याग करता है। व्याख्या: आयंबिल में आठ प्रकार के आगार माने गए हैं, जिनमें पाँच आगार तो पूर्वकथित प्रत्याख्यानों के समान ही है । केवल तीन आगार ही ऐसे हैं, जो नवीन हैं । उनका परिचय इस प्रकार है (अ) लेपालेप-आचाम्लव्रत में ग्रहण न करने योग्य शाक तथा घृत आदि विकृति से यदि पात्र अथवा हाथ आदि लिप्त हो, और दातार गृहस्थ यदि उसे पोंछ कर उसके द्वारा आचाम्लयोग्य भोजन बहराए, तो ग्रहण कर लेने पर व्रतमंग नहीं होता है। (ब) उत्क्षिप्तविवेक-शुष्क ओदन एवं रोटी आदि पर गुड़ तथा शवकर आदि अद्रव--सूखी विकृति पहले से रखी हो। आचाम्लव्रतधारी मुनि को यदि वह विकृति उठा कर रोटी आदि देना चाहे, तो ग्रहण की जा सकती है। उत्क्षिप्त का अर्थ है-उठाना, और विवेक का अर्थ है--उठाने के बाद उसका लगा न रहना।। (स) गृहस्थ-संसष्ट-घृत अथवा तैल आदि विकृति से छोंके हुए कृत्माष आदि-गृहस्थसं सृष्ट आगार है; अथवा गृहस्थ ने अपने लिए जिस रोटी आदि खाद्यवस्तु पर घृतादि लगा रखा हो, उसको ग्रहण करना भी गृहस्थसंसष्ट आगार है। उक्त आगार में यह बात ध्यान रखने योग्य है कि यदि विकृति का अंश स्वल्प हो, तब तो व्रत Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र भंग नहीं होता । परन्तु विकृति यदि अधिक मात्रा में हो, तो वह ग्रहण कर लेने से व्रत-भंग का निमित्त बनती है। (७) उपवास-सूत्र : मूल : उग्गए सूरे अभत्तट्ठ पच्चक्खामि । चविह पि आहारं-असणं, पाणं, खाइम-साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिटठावणियागारेण महत्तरोगारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि । अर्थ : सूर्योदय के होने पर उपवास ग्रहण करता हूँ। अशन पान, खाद्य एवं स्वाद्य-चारों आहारों का त्याग करता है। अनाभोग, सहसाकार, परिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधि-प्रत्ययाकार - उक्त पाँच आगारों के सिवा चारों आहारों का त्याग करता हूँ। (८) दिवस चरिम-सूत्र : मूल : दिवस-चरिमं पच्चक्खामि । चउबिह' पि आहारं-असणं पाणं, खाइमं साइमं । अन्नत्थणाभोगे, सहसागारे, महत्तरागारे, सव्यसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि। १. तिविहार उपवास करना हो, तो 'पाणं' का पाठ न बोलें । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १४६ अर्थ : दिवसचरम का (व्रत) ग्रहण करता । चारों आहारों का त्याग करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार एवं सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त चार आगारों के सिवा चारों आहारों का त्याग करता हूँ। (९) अभिग्रह-सूत्र : मूल : अभिग्गहं पच्चक्खामि । चउव्विहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि । अर्थ : अभिग्रह का व्रत ग्रहण करता हूँ। चारों आहारों का त्याग करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त चार आगारों के सिवा चारों आहारों का त्याग करता हूँ। (१०) निर्विकृतिक-सूत्र : मूल : विगइओ पच्चक्खामि । अन्नत्थणाभोगे, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्य-संसट्ठणं, उक्खिनविवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवशियागारे वोसिरामि । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र अर्थ : विकृतियों का त्याग करता हैं । अनाभोग, सहसा कार, लेपालेप, गृहस्थसंसृष्ट, उत्क्षिप्तविवेक, प्रतीत्यम्रक्षित, पारिष्ठापनिक, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त नव आगारों के सिवा विकृति का त्याग करता हूँ। व्याख्या: निविकृति के नौ आगार हैं, जिनमें से आठ आगारों का वर्णन तो पहले के पाठों में यथास्थान आ चुका है। प्रतीत्यम्रक्षित नामक आगार नया है, जिसका वर्णन इस प्रकार है-- भोजन बनाते समय जिन रोटी आदि पर सिर्फ ऊँगली से घी आदि चुपड़ा गया हो, तो ऐसी वस्तुओं को ग्रहण करना-प्रतीत्यम्रक्षित आगार कहलाता है । इस आगार का यह भाव है कि-घृत आदि विकृति का त्याग करने वाला साधक धारा के रूप में घृत आदि नहीं खा सकता । हाँ, घी से साधारणतौर पर चुपड़ी हुई रोटियाँ खा सकता है । इस सम्बन्ध में एक प्रामाणिक कथन इस प्रकार है "प्रतीत्य सर्वथा रूक्षमण्डकादि, ईषत्सौकुमार्यप्रतिपादनाय यदंगुल्या ईषद्धृतं गृहीत्वा प्रक्षितं तदा कल्पते, न तु धारया।" -तिलकाचार्य-कृत, देवेन्द्र प्रतिक्रमण-वृत्ति १. "म्रक्षित'-चुपड़े हुए को कहते हैं । और प्रतीत्यम्रक्षित कहते हैं। जो अच्छी तरह चुपड़ा हुआ न हो, किन्तु चुपड़ा हुआ जैसा भी हो; अर्थात्-म्रक्षिताभास हो। 'म्रक्षितमिव यद् वर्तते तत्प्रतीत्यम्रक्षित प्रक्षिताभासमित्यर्थ ।' -प्रवचनसारोद्धार वृत्ति Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १५१ (११) प्रत्याख्यान-पारणा-सूत्र : मूल : उग्गए सूरे नमोक्कार-सहियं 'पच्चक्खाणं कयं तं पच्चक्खाणं सम्मं कारण फासियं, पालियं, तीरियं किट्टियं, सोहियं, आराहि । जं च न आराहों, तस्स मिच्छामि दुक्कडं । अर्थ : सूर्योदय होने पर जो नमस्कारसहित प्रत्याख्यान.... किया था, वह प्रत्याख्यान [मन, वचन] शरीर के द्वारा सम्यकरूप से स्पृष्ट, पालित, शोधित, तीरित, कीर्तित, एवं आराधित किया, एवं जो सम्यक् रूप से आराधित न किया हो, तो उसका दुष्कृत मेरे लिए मिथ्या हो। व्याख्या: प्रत्याख्यान पारने के छह अंग बतलाए गए हैं। अस्तु, मूलपाठ के अनुसार निम्नलिखित छहों अंगों से प्रत्याख्यान की आराधना करनी चाहिए १. फासियं (स्पृष्ट अथवा स्पर्शित)-गुरुदेव से या स्वयं विधिपूर्वक प्रत्याख्यान लेना। २. पालियं (लित)-प्रत्याख्यान को बार-बार उपयोग में ला कर सावधानी के साथ उसकी सतत रक्षा करना। ३ सोहियं (शोधित)--कोई दूषण लग जाय, तो सहसा उसकी शुद्धि, करना, अथवा 'सोहियं' का संस्कृत रूप ‘शोभित' भी होता है । इस दशा में अर्थ होगा--गुरुजनों को साथियों को अथवा अतिथि जनों को भोजन देकर स्वयं भोजन करना, प्रत्याख्यान की शोभा बढ़ाना । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्रावक प्रतिक्रमण-सूब ४. तीरियं (तीरित)-गृहीत प्रत्याख्यान का काल पूरा हो जाने पर भी कुछ समय ठहर कर भोजन करना । ५. किद्रियं (कीर्तित)-भोजन आरम्भ करने से पहले लिये हुए प्रत्याख्यान को विचार कर उत्कीर्तन-पूर्वक कहना कि मैंने अमुक प्रत्याख्यान अमुक रूप से ग्रहण किया था, और वह भलीभाँति पूरा हो गया है। ६. आराहियं (आराधित)-सब दोषों से सर्वथा दूर रहते हुए ऊपर कही हुई विधि के अनुसार प्रत्याख्यान की आराधना करना । साधारण मनुष्य सर्वथा भ्रान्तिरहित नहीं हो सकता । वह साधना करता हुआ भी कभी-कभी साधना के पथ से इधर-उधर भटक जाता है। प्रस्तुत सूत्र के द्वारा स्वीकृत व्रत की शुद्धि को जाती है, भ्रान्तिजनित दोषों की आलोचना की जाती है, और अन्त में मिच्छामि दुक्कड़ दे कर प्रत्याख्यान में लगे अतिचारों का प्रतिक्रमण किया जाता है। आलोचना एवं प्रतिक्रमण करने से व्रत शुद्ध हो जाता है । प्रतिक्रमण करने की विधि प्रतिक्रमण प्रारम्भ करने से पहले पूर्वदिशा में या उत्तर दिशा में, और यदि गुरु हों, तो गुरु के सम्मुख होकर, सामने बैठकर 'चउवीसत्थव' करना चाहिए। उसकी विधि, सामायिक की विधि के समान ही है। अन्तर केवल इतना है, कि 'करेमि भंते' पाठ संख्या ६ नहीं बोलना चाहिए। ___ चउवीसत्थव के अनन्तर 'तिक्खुत्तो' पाठसंख्या २ तीन बार बोलकर, गुरु को वन्दना करके गुरु से प्रतिक्रमण करने की आज्ञा लेनी चाहिए। आज्ञा लेकर सर्वप्रथम श्रावक-प्रतिक्रमण सूत्र का 'आवस्सहि इच्छामि गं' पाठसंख्या १ बोले । फिर 'तिक्खुत्तो' से प्रथम आवश्यक की आज्ञा ले। | Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या : प्रथम आवश्यक : नमोक्कार मन्त्र' सामायिकसूत्र का पाठसंख्या १, फिर 'करेमि भंते' सामायिकसूत्रगत पाठसंख्या ६, " इच्छामि पडिक्कमिडं" पाठ संख्या २. 'तस्स उत्तरी' पाठसंख्या ६, फिर काउस्सग्ग करे । 'काउस्सग्ग' में ६६ अतिचारों का पाठ संख्या ३ से लेकर २१ तक बोले, परन्तु मन में ही, उच्चारण करके नहीं । जहाँ 'मिच्छामि दुक्कड' पद आए, वहाँ पर आलोऊँ बोले । नमो 'अरिहंताणं' बोल कर का काउस्सग्ग पारे । फिर 'मान के विषय' पाठ संख्या ५० बोलकर दूसरे आवश्यक की आशा ग्रहण करे । द्वितीय आवश्यक : १२३ लोगस्स, पाठसंख्या ८ बोले उच्चारण करके । फिर तीसरे आवश्यक की आज्ञा ले । तृतीय आवश्यक : तीसरे आवश्यक में दो 'इच्छामि खमासमणो' पाठ संख्या २२ बोले । फिर चतुर्थ आवश्यक की आज्ञा ले । चतुर्थ आवश्यक : चतुर्थ आवश्यक में ६६ अतिचार पाठसंख्या ३ से लेकर २१ तक सभी पाठों को उच्चारण से पढ़े। फिर 'इच्छामि पडिक्कमिड' पाठसंख्या २ बोलकर श्रावकसूत्र पढ़ने की आज्ञा ले । श्रावकसूत्र पढ़ते समय दाहिना घुटना ऊँचा करके और बायां घुटना नीचा करके बैठना चाहिए। फिर इस प्रकार बोले प्रथम 'नमोक्कार मन्त्र, सामायिकसूत्र का पाठसंख्या १, 'करेमि भन्ते ! पाठसंख्या ६, 'चत्तारि मंगलं' पाठसंख्या २३, १. 'इच्छामि ठामि काउस्सग्गं इस तरह भी बोला जाता है । -- Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र 'इच्छामि पडिक्कमिउं" पाठसंख्या २, 'इच्छाकारेण' पाठसंख्या ५, 'आगमे ति विहे' पाठसंख्या ३, फिर २४ से लेकर ४३ तक से सभी पाठों को पढ़े। बाद में 'इच्छामि पडिक्कमिउं" पाठसंख्या २, फिर दो 1'इच्छामि खमासमणो!' पाठसंख्या २२ पढ़े। इसके बाद पांच पदों को वन्दना करे। पंचम आवश्यक पांचवें आवश्यक में पहले 'नमोकार मन्त्र' पाठसंख्या १, 'क रेमि भन्ते !' पाठसंख्या ६, 'इच्छामि पडिक्कमिउं' इच्छामि ठामि काउस्सग्गं), पाठसंख्या २, 'तस्स उत्तरी' पाठसंख्या ६-७ पढ़कर, फिर ४, 'लोगस्स' का 'काउस्सग्ग' करे। फिर 'नमो अरिहंताणं' बोलकर काउस्सग्ग पारे। फिर 'ध्यान हे विषय' पाठसंख्या ५० बोलकर, एक बार. लोगस्स पाठसंख्या ८ उच्चारण से बोले । फिर दो 'इच्छामि खमासमणो !' पाठसंख्या २२ पढ़े। बाद में छठे आवश्यक की आज्ञा ले । षष्ठ आवश्यक : छठे आवश्यक में गुरु से यथाशक्ति प्रत्याख्यान करे । यदि गुरु न हों, तो स्वयं ही प्रत्याख्यान कर ले। फिर पाठसंख्या ५१ कहकर, फिर यह बोले षट् आवश्यकों में से किसी भी आवश्यक में जानते-अजानते जो कोई अतिचार लगा हो, तथा पाठ बोलने में मात्रा, अनुस्वार, अक्षर, पद, अधिक, न्यून, आगे, पीछे, एवं विपरीत कहे हों, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं । 'गतकाल का प्रतिक्रमण, वर्तमानकाल का संवर, और भविष्यतकाल का प्रत्याख्यान ।' इतना कहकर बैठ जाय और १. यह पाठ कहीं पञ्चम आवश्यक के प्रारम्भ में भी पढ़ा जाता । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ फिर दाहिना घुटना नीचे करके एवं बांबा घुटना ऊँचा करके दो 'नमोत्थूणं' पाठसंख्या १० बोले । बाद में साधु महाराज को वन्दना करे फिर वहाँ स्थित समस्त श्रावकों से क्षमापना करे । टिप्पणी : व्याख्या [१] प्रतिक्रमण करने वाले पुरुष एवं स्त्रियों को इतना ध्यान रखना चाहिए, कि अतिचार आलोचना के पाठों में जहाँ पर 'आलोचना करता हूँ, पाठ है, वहाँ पुरुषों को 'आलोचना करता हूँ, यह बोलना चाहिए, और स्त्रियों को 'आलोचना करती हूँ, यह बोलना चाहिए । [२] यहाँ प्रतिक्रमण करने की जो विधि दी गई है, वह स्थूलरूप में दी गई है, केवल रूप-रेखा दी गई है, पूर्ण विधि नहीं है; क्योंकि श्रावक प्रतिक्रमण की एक विधि नहीं है । विभिन्न प्रान्तों में विभिन्न विधि प्रचलित है । अतः प्रतिक्रमण की पूर्ण विधि देना शक्य नहीं है । जहाँ पर जैसी विधि प्रचलित हो, तदनुसार कर लेना चाहिए । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र अरिहंत-वन्दन : रोग-द्वेष महामल्ल घोर घन-घाति कर्म, नष्ट कर पूर्ण सर्वज्ञ-पद पाया है। शान्ति का सुराज्य समोसरण में कैसा सौम्य, सिंहनी ने दुग्ध मृग-शिशु को पिलाया है ।। अज्ञानान्धकार-मग्न विश्व को दयाह्न होके, सत्य-धर्म-ज्योति का प्रकाश दिखलाया है । 'अमर' सभक्ति भाव बार-बार वन्दनार्थ, अरिहंत, चरणों में मस्तक झुकाया है ।। सिद्ध-वन्दन : जन्म-जरा-मरण के चक्र से पृथक् भये, पूर्ण शुद्ध चिदानन्द शुद्ध रूप पाया है। मनसा अचिन्त्य तथा वचसा अवाच्य सदा, क्षायक स्वभाव में निजातमा रमाया है । संकल्प-विकल्प-शून्य निरंजन निराकार, माया का प्रपंच जड़-मूल से नशाया है। 'अमर' सभक्ति-भाव. बार-बार वन्दनार्थ, पूज्य सिद्ध-चरणों में मस्तक झुकाया है ।। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या आचार्य-वन्दन : आगमों के भिन्न-भिन्न रहस्यों के ज्ञाता ज्ञानी, उग्रतम चारित्र चारित्र का पथ अपनाया है । पक्षपातता से शून्य यथायोग्य न्यायकारी, पतितों को शुद्ध कर धर्म में लगाया है ।। सूर्य-सा प्रचंड तेज प्रतिरोधी तेज प्रतिरोधी जावें झेंप, संघ में अखंड निज शासन चलाया हैं । 'अमर' सभक्तिभाव बार बार वन्दनार्थ, गच्छाचार्य - चरणों में मस्तक झुकाया है || ११७ उपाध्याय -वन्दन : मंद बुद्धि शिष्यों को भी विद्या का अभ्यास करा दिग्गज सिद्धान्तवादी पंडित बनाया हैं | पाखंडी जनों का गर्व खवे कर जगत् में, अनेकान्तता का जय-केतु जय-केतु फहराया है । शंका-समाधान द्वारा भविको को बोध दे के, देश, परदेश ज्ञान-भानु चमकाया है । 'अमर' सभक्ति-भाव बार-बार वन्दनार्थ, उपाध्याय - चरणों में मस्तक झुकाया है | Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रावक प्रतिक्रमण-मूत्र साधु-वन्दन : शत्रु और मित्र तथा मान और अपमान, सुख और दुःख द्वत-चिन्तन हटाया है । मैत्री और करुणा समान सब प्राणियों पे, क्रोधादि-कषाय-दावानल भी बुझाया है ।। ज्ञान और क्रिया के समान दृढ़ उपासक, भीषण समर कम-चमू से मचाया है । 'अमर' सभक्ति-भाव बार-बार वन्दनार्थ, त्यागी-मुनि-चरणों में मस्तक झुकाया है ।। धर्म-गुरु-वन्दन : भीम-भव-वन से निकाला बड़ी कोशिशों से, मोक्ष के विशुद्ध राज-मागे पै चलाया है। संकट में धर्म-श्रद्धा ढीली-ढाली होने पर, समझा-बुझा के दृढ़ साहस बँधाया है ।। कडता का नहीं लेश सुधा-सी सरस वाणी, धर्म-प्रवचन नित्य प्रम से सुनाया है। 'अमर' सभक्ति भाव बार-बार वन्दनार्थ' धर्मगुरु-चरणों में मस्तक झुकाया है ।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या १५६ संक्षिप्त प्रतिमामान . जं 9. जं . मणेण बद्ध, मंजं भागाए भासियं पावं मं काएण कयं, मिच्छामि दुक्कडं तस्य -आवश्यक सूत्र खामेमि सन्चे जीवे, सव्वे बोना खमन्तु में । मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मञ्झं न केणइ ॥ : ३ : सव्वस्य समणसंघस्य, भगवभो अंबलि करिअ सीसे । सव्वे खमावइत्ता खमामि, सव्वस्स अहयं पि ॥ आयरिए उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुलगणे य । जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.६० सारं सारं एगो सेसा मज्जं ए मे नाण दंसण नाणं, सारं तव नियम संजम सीलं । निणवर धम्मं, संलेहणा सारं में सव्वे ५ : ए जीवे ६ सासओ दंसण बाहिरा संजोग श्रावक प्रतिक्रमण - सूत्र अप्पा, ―――― भावा, संजुओ । मरणं ॥ लक्खणा ॥ कसाया, विसय निद्दा विकहा व पंचमी भणिया । पमाया, पंच पाडन्ति संसारे ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या मन्त्र-साधना » १. ॐ ह्रीं अहं २. ॐ ह्रीं ३, अहम्, अहम्, अहम् ओम् ह्रां ह्रीं, हू, ह्रौ, ह्र:, अ सि आ उ सा सम्यग् दर्शन-ज्ञान, चारित्रेभ्यो नमः ॐ नमो सिद्धाणं ६. ॐ नमो साहूणं ॐ अर्हन्मुख कमल-वासिनि, . पापात्मक्षयंकरि श्रुत-ज्ञान-ज्वाला- . सहस्र ज्वलिते, सरस्वति ! मत्पापं हन, हन, दह, दह, क्षा, क्षी, क्ष, क्षौ, , क्षीर-धवले, अमृतसंभवे, व, वे, हुँ, है, स्वाहा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र शास्त्र-मन्त्र १. इह लोए, पर लोए, सुहाण-मूलं नवकारो। २. नमो जिणाणं, जिय - भयाणं । ३. नमो चउवीसाए तित्थगराणं, उसभादि महावीर पज्ज्वसाणाणं ध्वनि-जाप १. नारायण. नारायण, नारायण रे । वीरायण, वीरायण, वीरायण रे । २. देह-विनाशी, मैं अविनाशी । अजर - अमर पद मेरा रे। श्रमण भगवन्त श्रीमहावीर, त्रिशला नन्दन हर मेरी पीर । ४. भज महावीर, भज महावीर भज मन प्यारे, भज महावीर । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या ५. अरिहन्त भजो, ६. अरिहन्त भजो । अरिहन्त बनो, अरिहन्त भजो । भगवन्त भजो, भगवन्त भगवन्त बनो, भगवन्त महावीर भजो, भजो । भजो । महावीर भजो । महावीर बनो, महावीर भजो । १६३ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रामक प्रतिक्रमण-सूत्र उपसर्गहर-स्तोत्र उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्मघणमुक्कं । विसहर-विसनिन्नासं, मंगल-कल्लाग- आवासं ॥१॥ विसहर फुल्लिगमंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ। तस्स गह रोगमारी दुट्ठजरा जति उवसामं ॥२॥ चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । नर-तिरिएसु वि जीवा, . पावंति न दुक्ख-दोगच्चं ॥३॥ तुह सम्मत्ते लद्धे, चिन्तामणिकप्पपायवब्भहिए । .. पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामर ठाणं ॥४॥ इस संथुओ महायस ! भत्तिन्भर-निब्भरेण हियएण । ता देव ! दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ! ॥५॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घ्याख्या महावीर स्तुति नमो दुर्वार - रागादि, वैरि - वार निवारणे । अर्हते योगि - नाथाय, महावीराय तायिने । भव बीजांकुर - जननाः, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णु वर्वा, . हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। -आचार्य हेमचन्द्र Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र परमेष्ठि-वन्दना नमस्कार हो अरिहन्तों को, राग-द्वष रिपु-संहारी । नमस्कार हो श्री-सिद्धों को, अजर अमर नित अविकारी॥ नमस्कार हो आचार्यों को, संघ-शिरोमणि आचारी। नमस्कार हो उपाध्यायों को, अक्षय-श्रु त-निधि के धारी ॥ नमस्कार हो साधु सभी को, जग में जग-ममता मारी। त्याग दिये वैराग्य--भाव से, भोग-भाव सब संसारी ॥ पांच पदों को नमस्कार यह, नष्ट करे कलिमल भारी । मंगल-मूल अखिल मंगलमय, पाप-भीरु जनता तारी॥ -उपाध्याय श्री अमरमुनि | Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी भावना जिसने राग-द्वेष कामादिक जोते सब जग जान लिया, सब जीवों को मोक्ष-मार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर, ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहा, भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसा में लान रहो ॥१॥ विषयों की आशा नहीं जिनको साम्यभाव धन रखते हैं, निज-पर के हित-साधन में जो निशदिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ-त्याग की कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं, ऐसे ज्ञाना साधु जगत् के दुःखसमूह का हरते हैं ॥२॥ रहे सदा सत्संग उन्हीं का, ध्यान उन्हीं का नित्य रहे, उन्हीं जैसा चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे । नहीं सताऊँ कि सी जीव का झूठ कभी नहीं कहा करू, परधन-वनिता पर न लुभाऊँ सन्तोषामृत पिया करू ॥३॥ अहंकार का भाव न रक्खू, नहीं किसा पर क्रोध करू, देख दूसरों की बढ़ती को कभी न ईर्ष्या-भाव धरू। रहे भावना ऐसी मेरी सरल-सत्य व्यवहार करू, बन जहाँ तक इस जीवन में औरों का उपकार करूं ॥४॥ मैत्री-भाव जगत् में मेरा सब जोवों पर नित्य रहे, दीन दुखी जीवों पर मेरे उर में करुणा स्रोत बहे । दुर्जन क्रूर कुमार्ग-रतों पर क्षोभ नहीं मुझ को आवे, साम्यभाव रक्खू मैं उन पर ऐसा परिणति हो जावे ॥५॥ १ स्त्रियाँ भतो पढ़ें । पुरुष वनिता पढ़ें। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे, बने जहां तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे । होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे, गुण-ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे ॥६॥ कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे, लाखों वर्षों तक जीऊँ या मृत्यु आज ही आ जावे। . अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने आवे, . तो भी न्यायमार्ग से मेरा कभी न पद डिगने पावे ॥७॥ होकर सुख में मग्न न फूले, दुख में कभी न घबरावे, पर्वत नदी स्मशान भयानक अटवी से नहीं भय खावे । रहे अडोल-अकंप निरंतर, यह मन दृढ़तर बन जावे, इष्ट-वियोग अनिष्टयोग में सहनशीलता दिखलावे ॥८॥ सुखी रहें सब जीव जगत् के कोई कभी न घबरावे, वैर, पाप, अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावे । घर-घर चर्चा रहे धर्म की दुष्कृत दुष्कर हो जावे, ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना मनुज जन्म फल सब पावे ॥६॥ ईति-भीति व्यापे नहिं जग में वष्टि समय पर हुआ करे, धर्मनिष्ठ होकर राजा भी न्याय प्रजा का किया करे । रोग-मरी दुभिक्ष न फैले प्रजा शांति से जिया करे, परम अहिंसा-धर्म जगत् में फैल सर्व-हित किया करे ॥१०॥ फैले प्रेम. परस्पर जग में मोह दूर पर रहा करे, अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं कोई मुख से कहा करे। बन कर सब 'युगवीर' हृदय से धर्मोन्नति-रत रहा करें, वस्तुस्वरूप विचार खुशी से सब दुःख-संकट सहा करें ॥११॥ - Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति ज्ञानपोठ का सूत्रसाहित्य 1. श्रमणसूत्र (सभाष्य) 2. सामायिकसूत्र (सभाध्य) 3 नंदीसुत्तं (मूल) 4. जैनागम-पाठमाला 5 अनुत्तरोपपातिक सूत्र 6. प्रश्नव्याकरण सूत्र (व्याख्यासहित) 7. सूक्ति-त्रिवेणी (विधारा) 8 श्रावक-प्रतिक्रमणसूत्र 6. तत्त्वार्थमूत्र (अनुवाद) 10 उत्तराध्ययनसूत्र (अनुवाद) 11 लघुसामायिकसूत्र 12. समणसुत्तं 13. निशीथसूत्र भाग 1-2-3-4 सन्मति ज्ञानपीठ बनोहामण्डी, आगरा-२ dacation International