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व्याख्या
व्याख्या :
यह गुरु-गुण स्मरण-सूत्र है। इसमें गुरु की महिमा का गुण-गान किया गया है। प्रत्येक साधक को गुरु के प्रति असीम श्रद्धा और भक्ति का भाव रखना चाहिए। क्यों कि साधक पर सद्गुरु का इतना विशाल ऋण है, कि उसका कभी बदला चुकाया नहीं जा सकता। गुरु की महत्ता अपार है। अतः प्रत्येक धर्म-साधना के प्रारम्भ में सदगुरु को श्रद्धा-भक्ति के साथ अभिवन्दन करना चाहिए। ___सामायिक की साधना से पूर्व, सामायिक की साधना के मार्ग का बोध कराने वाले गुरु का स्मरण आवश्यक है। अतः प्रस्तुत सूत्र में गुरु का स्मरण किया गया है; गुरु का स्वरूप बताया गया है, गुरु के गुणों का परिचय दिया गया है।
छत्तीस गुणों के धारक पवित्र आत्मा को ही गुरु कहा गया है।
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आलोचना-सूत्र मूल : इच्छाकारेण संदिसह भगवं !
इरियावहियं, पडिक्कमामि ? इच्छं ? इच्छामि पडिक्कमिउं, इरियावहियाए, विराहणाए । गमणागमणे-पाणक्कमणे, बीयक्कमणे, हरियक्कमणे, ओसा-उतिंग-पणग-दग-मट्टीमक्कडासंताणा-संकमणे । जे मे जीवा विराहिया, एगिदिया, बेइंदिया-तेइंदिया,
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