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व्याख्या
[किन जीवों की विराधना को हो ?] इन जीवों की मैंने विराधना की हो; जैसे की एकेन्द्रिय = एक स्पर्श इन्द्रिय वाले पृथिवी आदि पाँच स्थावर; द्वीन्द्रिय-दो स्पर्शन और रसन इन्द्रिय वाले कीड़े आदि; त्रीन्द्रिय तीन स्पर्शन, रसन, घ्राण इन्द्रिय वाले जू कीड़ी आदि; चतुरिन्द्रिय= चार स्पर्शन, रसन, ध्राण चक्षु इन्द्रिय वाले मक्खी, मच्छर आदि, पञ्चेन्द्रिय = पाँच स्पर्शन- त्वचा, रसन = जिह्वा घ्राण = नाक, चक्षु = आँख, श्रोत्र = कान इन्द्रिय वाले सर्प मैंढक आदि ।
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[ किस तरह की पीडा दी हो ?]
सामने आते पैरों से मसले हों, धूल या कीचड़ आदि से ढंके हों, भूमि पर रगड़े हों, एक दूसरे से आपस में टकराए हों, छू कर पीडित किये हों, परितापित = दुःखित किये हों, मरण-तुल्य किये हों, भयभीत किये हों, एक स्थान से दूसरे स्थान पर बदले हों, किं बहुना, प्राणरहित भी किये हों, तो मेरा वह सब पाप मिथ्या निष्फल हो ।
व्याख्या :
जैनधर्म में विवेक का बहुत महत्व है। प्रत्येक क्रिया में विवेक रखना, यतन करना श्रमण, एवं श्रावक दोनों साधको के लिए आवश्यक है । जो भी काम करना हो, सोच-विचार कर, देख-भाल कर, यतना के साथ करना चाहिए । पाप का मूल प्रमाद है, अविवेक है । साधक के जीवन में विवेक के प्रकाश का बड़ा महत्त्व है ।
'आलोचना - सूत्र' विवेक और यतना के संकल्पों का जीता-जागता
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