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________________ सामायिक-सूत्र मैं आपकी पर्युपासना=सेवा करता हूँ, मस्तक झुका कर वन्दना करता हूँ। व्याख्या : अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में, गुरु का पद सब से ऊँचा है। कोई दूसरा पद इसकी समानता नहीं कर सकता। गुरु जीवन-नोका का नाविक है। संसार के काम, क्रोध एवं लोभ आदि भयंकर आवों में से वह हमको सकुशल पार ले जाता है । भारतीय-संस्कृति की अध्यात्मसाधना में, इसी कारण से गुरु को Supreme Power कहा गया 'गुरु' शब्द में दो अक्षर है-'गु' और 'ह' । 'गु' का अर्थ हैअन्धकार तथा 'रु' का अर्थ है-नाशक । गुरु का अर्थ हुआ-अन्धकार का नाश करने वाला। शिष्य के मन में रहे अज्ञान-अन्धकार को दूर करने वाला 'गुरु' कहलाता है। गुरु-वन्दन-सूत्र में गुरु को चन्दन किया गया है, औद गुरु का स्वरूप बताया है। गुरु-मंगल-रूप है, देव-रूप है, ज्ञान-रूप है-अतः मैं विनम्रभाव से उसके चरणों में वन्दन एवं नमस्कार करता हूँ। मूल: सम्यक्त्व-सूत्र अरिहंतो मह देवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिण-पएणत्तं तरी, इअ सम्मत्तं, मए गहियं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
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