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श्रावक प्रतिक्रमण-सूब
४. तीरियं (तीरित)-गृहीत प्रत्याख्यान का काल पूरा हो जाने पर भी कुछ समय ठहर कर भोजन करना ।
५. किद्रियं (कीर्तित)-भोजन आरम्भ करने से पहले लिये हुए प्रत्याख्यान को विचार कर उत्कीर्तन-पूर्वक कहना कि मैंने अमुक प्रत्याख्यान अमुक रूप से ग्रहण किया था, और वह भलीभाँति पूरा हो गया है।
६. आराहियं (आराधित)-सब दोषों से सर्वथा दूर रहते हुए ऊपर कही हुई विधि के अनुसार प्रत्याख्यान की आराधना करना ।
साधारण मनुष्य सर्वथा भ्रान्तिरहित नहीं हो सकता । वह साधना करता हुआ भी कभी-कभी साधना के पथ से इधर-उधर भटक जाता है। प्रस्तुत सूत्र के द्वारा स्वीकृत व्रत की शुद्धि को जाती है, भ्रान्तिजनित दोषों की आलोचना की जाती है, और अन्त में मिच्छामि दुक्कड़ दे कर प्रत्याख्यान में लगे अतिचारों का प्रतिक्रमण किया जाता है। आलोचना एवं प्रतिक्रमण करने से व्रत शुद्ध हो जाता है ।
प्रतिक्रमण करने की विधि
प्रतिक्रमण प्रारम्भ करने से पहले पूर्वदिशा में या उत्तर दिशा में, और यदि गुरु हों, तो गुरु के सम्मुख होकर, सामने बैठकर 'चउवीसत्थव' करना चाहिए। उसकी विधि, सामायिक की विधि के समान ही है। अन्तर केवल इतना है, कि 'करेमि भंते' पाठ संख्या ६ नहीं बोलना चाहिए। ___ चउवीसत्थव के अनन्तर 'तिक्खुत्तो' पाठसंख्या २ तीन बार बोलकर, गुरु को वन्दना करके गुरु से प्रतिक्रमण करने की आज्ञा लेनी चाहिए। आज्ञा लेकर सर्वप्रथम श्रावक-प्रतिक्रमण सूत्र का 'आवस्सहि इच्छामि गं' पाठसंख्या १ बोले । फिर 'तिक्खुत्तो' से प्रथम आवश्यक की आज्ञा ले।
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