SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र भंग नहीं होता । परन्तु विकृति यदि अधिक मात्रा में हो, तो वह ग्रहण कर लेने से व्रत-भंग का निमित्त बनती है। (७) उपवास-सूत्र : मूल : उग्गए सूरे अभत्तट्ठ पच्चक्खामि । चविह पि आहारं-असणं, पाणं, खाइम-साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिटठावणियागारेण महत्तरोगारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि । अर्थ : सूर्योदय के होने पर उपवास ग्रहण करता हूँ। अशन पान, खाद्य एवं स्वाद्य-चारों आहारों का त्याग करता है। अनाभोग, सहसाकार, परिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधि-प्रत्ययाकार - उक्त पाँच आगारों के सिवा चारों आहारों का त्याग करता हूँ। (८) दिवस चरिम-सूत्र : मूल : दिवस-चरिमं पच्चक्खामि । चउबिह' पि आहारं-असणं पाणं, खाइमं साइमं । अन्नत्थणाभोगे, सहसागारे, महत्तरागारे, सव्यसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि। १. तिविहार उपवास करना हो, तो 'पाणं' का पाठ न बोलें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy