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________________ व्याख्या १४७ गिहि-संसट्ठणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरा गारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि । अर्थ : आयंबिल (आचाम्लतप) ग्रहण करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, उत्क्षिप्तविधेक, गृहस्थ-संसष्ट, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त आठ आगार के सिवा आहार का त्याग करता है। व्याख्या: आयंबिल में आठ प्रकार के आगार माने गए हैं, जिनमें पाँच आगार तो पूर्वकथित प्रत्याख्यानों के समान ही है । केवल तीन आगार ही ऐसे हैं, जो नवीन हैं । उनका परिचय इस प्रकार है (अ) लेपालेप-आचाम्लव्रत में ग्रहण न करने योग्य शाक तथा घृत आदि विकृति से यदि पात्र अथवा हाथ आदि लिप्त हो, और दातार गृहस्थ यदि उसे पोंछ कर उसके द्वारा आचाम्लयोग्य भोजन बहराए, तो ग्रहण कर लेने पर व्रतमंग नहीं होता है। (ब) उत्क्षिप्तविवेक-शुष्क ओदन एवं रोटी आदि पर गुड़ तथा शवकर आदि अद्रव--सूखी विकृति पहले से रखी हो। आचाम्लव्रतधारी मुनि को यदि वह विकृति उठा कर रोटी आदि देना चाहे, तो ग्रहण की जा सकती है। उत्क्षिप्त का अर्थ है-उठाना, और विवेक का अर्थ है--उठाने के बाद उसका लगा न रहना।। (स) गृहस्थ-संसष्ट-घृत अथवा तैल आदि विकृति से छोंके हुए कृत्माष आदि-गृहस्थसं सृष्ट आगार है; अथवा गृहस्थ ने अपने लिए जिस रोटी आदि खाद्यवस्तु पर घृतादि लगा रखा हो, उसको ग्रहण करना भी गृहस्थसंसष्ट आगार है। उक्त आगार में यह बात ध्यान रखने योग्य है कि यदि विकृति का अंश स्वल्प हो, तब तो व्रत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
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