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________________ च्याख्या १४५ अर्थ : एकाशन (तप) स्वीकार करता हूँ। अशन, खाद्य एवं स्वाद्य-- तीनों आहारों का त्याग करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, सागारिकाकार, आकुञ्चनप्रसारण, गुरु-अभ्युत्थान, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्व-समाधि-प्रत्याकार-उक्त आठ आगारों के सिवा तीनों आहारों का त्याग करता हूँ। व्याख्या : (अ) सागारिकाकार-आगम की भाषा में सागारिक 'गृहस्थ' को कहते हैं । गृहस्थ के आ जाने पर उसके सम्मुख भोजन करना निषिद्ध है । अतः सागारिक के आने पर साधु को भोजन करना छोड़ कर यदि बीच में ही उठ कर, एकान्त में जा कर पुनः दूसरी बार भोजन करना पड़े, तो व्रतभंग का दोष नहीं लगता। (ब) आकुञ्चन प्रसारण-भोजन करते समय सुन्न पड़ जाने आदि के कारण से हाथ, पैर आदि अंगौं का सिकोड़ना या फैलाना । उपलक्षण से आकुञ्चन-प्रसारण में शरीर का आगे-पीछे हिलाना-डुलाना भी आ जाता है। १ आचार्य जिनदास ने आवश्यक-चूणि में लिखा है कि आगन्तुक गृहस्थ यदि शीघ्र ही चला जाने वाला हो, तो कुछ समय प्रतीक्षा करनी चाहिए सहसा उठ कर नहीं जाना चाहिए । यदि गृहस्थ बैठने वाला है और शीघ्र ही नहीं जाने वाला है, तब अलग एकान्त में जा कर भोजन से निवृत्त हो लेना चाहिए । व्यर्थ में लम्बी प्रतीक्षा करते रहने में स्वाध्याय की हानि होती है। "सागारियं अद्ध समुद्दिट्टम्स आगतं जदि बोलेति पडिच्छति अहथिरं ताहे सज्झायवाघातो त्ति उट्ठत्ता अन्नत्थ गंतू णं समुद्दिसति ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
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