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श्रावक प्रतिक्रमत्र-सूत्र
अर्थ : उस सब की, (अर्थात्) दिवस-सम्बन्धी अतिचारों
की, जो दुर्वचनरूप है, बुरे संकल्परूप हैं, काय की कुचेष्टारूप है-आलोचना करता हुआ प्रतिक्रमण
करता है। प्रस्तुत पाठ में, समस्त अतिचारों की आलोचना की गई है। साधक कहता है, कि मैंने अपने मन में जो बुरा चिन्तन किया, वाणी से किसी के प्रति बुरा-भला कहा, काय से खोटी चेष्टा की हो, तो उस सब पाप की मैं आलोचना करता हूँ।
प्रत्येक व्रत के अलग-अलग अतिचारों की आलोचना करने के बाद इस में समग्र-भाव से आलोचन किया गया है।
: २२ द्वादशावर्त गुरु-वन्दनसूत्र मूल : इच्छामि खमा-समणो ! वंदिउं, जावणिज्जाए,
निसीहियाए । अणुजाणह मे मिउग्गहं । निसीहि, अहोकायं, काय-संफासं । खमणिज्जो मे किलामो। अप्पकिलंताणं बहु-सुभेण भे दिवसो वइ. क्कतो! जत्ता मे ! जवणिज्जं च मे ! खामेमि खमा-समणो ! देवसियं वइक्कम ।
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