________________
८०
अर्थ :
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
हिरण
तंजढा-खेत-वन्युत्पमाणा हक्कम, सुवण्णप्पमाणा इक्कम, धण-धन्नष्यमाणा इक्कमे, दुष्पय- चउप्ययप्पमाणा इक्कम, गाइक्कम ।
कुष्पप्पमा
जो मे देवसियो अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मिदुक्कडं |
पञ्चम अणुव्रत है— स्थूल परिग्रह से विरत होना । क्षेत्र वस्तु ( खेत और घर आदि) का यथापरिमाण (जो परिमाण किया है), हिरण्य ( चाँदी) सुवर्ण (सोना) का यथापरिमाण धन-धान्य का यथापरिमाण, द्विपद ( दास-दासी आदि का और चतुष्पद, (गाय, भैंस घोड़ा आदि पशु का यथापरिमाण, कुप्प ( बरतन ) आदि) का अथवा घर की सामग्री, का यथापरिमाण । इस प्रकार मैंने जो परिग्रहपरिमाण (मर्यादा) किया है, उसके अतिरिक्त रखने का प्रत्याख्यान (त्याग) करना । जीवनपर्यन्त, एक करण तीन योग से, न करू, मन से, वचन से, काय से ।
इस पञ्चम स्थूल परिग्रह-परिमाण व्रत के श्रमणोपासक को पाँच अतिचार जानने योग्य हैं, ( किन्तु ) आचरण के योग्य नहीं हैं ।
जैसे कि - क्ष ेत्र (खेत आदि) और वास्तु ( घर आदि) के प्रमाण का अतिक्रमण करना, हिरण्य ( चाँदी ) और सुवर्ण ( सोने) के प्रमाण का अतिक्रमण करना, धन-धान्य के प्रमाण का अतिक्रमण करना, द्विपद (दास दासी) के और चतुष्पद (गाय, भैंस, घोड़ा.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org