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________________ व्याख्या प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्य-प्रज्ञप्ति, निश्यावलिया, कप्पिया, कप्पवडिसिया, पुफिया, पुप्फचूलिया, वहीदसा को स्वयं पढ़त हैं और दूसरों को भी पढ़ाते हैं । चरण सत्तरी एवं करण-सत्तरी का पालन करते हैं। जो उक्त पच्चीसगुणों से विभूषित है । निशीथ, व्यवहार, बृहत्करूप, दशाश्रु तस्कन्ध- इन चार छेद सूत्रों के, तथा दशवेकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी, अनुयोगद्वार - इन चार मूल सूत्रों के और आवश्यक सूत्र के ज्ञाता हैं । S उपाध्याय महाराज को वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, तथा जानते अजानते किसी भी प्रकार की अविनय एवं आशातना हुई हो, तो तीन करण और तीन योग से क्षमा चाहता हूँ । नमो लोए सव्वसाहूणं : नमस्कार हो, लोक में समस्त साधुओं को । साधु कैसे हैं ? पाँच महाव्रत के धारक हैं । पाँच इन्द्रिय और चार कषायों के विजेता हैं । भावसत्य, करणसत्य एवं योगसत्य से युक्त हैं । क्षमाशील है, वराग्यवान् हैं । मनः समाधारणता, धारणता एवं कारसमाधारणता से युक्त हैं । दर्शनसम्पन्नता तथा चरित्र सम्पन्नता से युक्त हैं, शीत, उष्ण आदि वेदना सहन करते हैं। मारणान्तिक उपसर्ग सहन करते हैं । उक्त सत्ताईस गुणों से युक्त हैं । दश प्रकार के यति-धर्म को धारण करते हैं । सत्तरह प्रकार का संयम पालते हैं । अठारह पाप के त्यागी हैं । बाईस परिषह के जीतने वाले हैं । क्यास दोष टाल कर आहार लेते हैं । अढ़ाई द्वीप की कर्मभूमि के पन्द्रह क्षेत्रों में अरिहन्त भगवान् की आज्ञा के अनुसार जघन्य दो हजार करोड़ एवं उत्कृष्ट नव हजार करोड़ साधु विहरण करते हैं । Jain Education International १३१ For Private & Personal Use Only वचन - समाज्ञानसम्पन्नता, www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
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