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________________ व्याख्या ७9 रहस्याभ्याख्यान : किन्हीं से व्यक्तियों को रहसि. (एकान्त स्थान में). बाल-चीत करते देख कर कहना, कि 'ये राज्य-विरुद्ध , आदि मन्त्रण कर रहे थे।' किसी पर व्यर्थ का सन्देह करना । स्वदारामंत्रभेद : स्वदारा (अपनी पत्नी) के मन्त्र (मर्मभरी बात) को भेद (प्रकट) करना । इसी प्रकार पत्नी के लिए स्व-पति-मन्त्र-भेद भी त्याज्य है। मृषोपदेश : मृषा (असत्य पूर्ण) झूठा उपदेश (शिक्षा) करना । जैसे 'यज्ञ करो' तुम्हें स्वर्ग मिलेगा, आदि कहना । झूठे उपदेश से भोला मनुष्य गलत रास्ते पर लगता है। कूट (असत्यभूत) झूठा, लेख (हस्ताक्षर वा मुद्रांकन) जाली दस्तखत करना । बनावटी हस्ताक्षर करना, नकली मुहर बनाना आदि कूटलेखकरण है। : २७ : तृतीय अस्तेय-अणुव्रत मूल : तइयं अणुव्वयं थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं । से य अदिएणादाणे पंचविहे पन्नते। तंजहा-खत्त-खणणं- गठि-भेअणं, जंतुग्घोडणं, पडियवत्थुहरणं ससामिअवत्थुहरणं । इच्चेवमाइयस्स थूल-अदिएणादाणस्स पच्चक्खाणं । जावज्जीवाए, दुविहं तिविहेणं न करेमि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
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