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अर्थ :
श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र न कारवेमि मणसा, वयसा, कायसा । एयस्स तइयस्स थूलग-अदिण्णादाण-वेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियब्बा, न समायरियव्वा । तंजहा-तेनाहडे, तक्करप्पओगे, विरुद्ध-रज्जाइक्कमे, कूडतुल्ल-कूडमाणे, तप्पडिस्वगववहारे । जों मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। तृतीय अणवत है--स्थूल अदत्तादान (चोरी) से विरत होना। अदत्तादान (चोरी) पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार से है-खात खनना-दीवार आदि में सेंध लगाना, गांठ खोलना, ताला तोड़ना, पड़ी हुई वस्तु को लेना, दूसरे की वस्तु को लेना इत्यादिक स्थूल अदत्तादान (चोरी) का प्रत्याख्यान (त्याग) करना। जीवनपर्यन्त, दो करण तीन योग से, न करू', न करवाऊँ, मन से, वचन से, काय से । इस तृतीय स्थूल अदत्तादान-विरमणव्रत के श्रमणोपासक को पांव अतिचार जानने योग्य हैं, (किन्तु) आचरण करने योग्य नहीं हैं। जैसे कि-स्तेन (चोर) द्वारा आहृत (चुराई हुई) वस्तु ली हो, तस्कर (चोर) को प्रयोग (प्रेरणा दी)
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