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व्याख्या
अर्थ :
अरिहंत मेरे देव" हैं, जीवनपर्यन्त शुद्ध साधु मेरे गुरू हैं, जिन-भाषित तत्व मेरा धर्म है । इस सम्यक्त्व को मैंने ग्रहण किया है। श्रमणोपासक को इस सम्यक्त्व के पांच अतिचार प्रधानरूप से जानने योग्य हैं,किन्तु आचरण के योग्य नहीं हैं। जैसे कि-शका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर-पाखण्डप्रशंसा, पर-पाखण्ड-संस्तव । जो मैंने दिवस-सम्बन्धी अतिचार किया हो, उसका
पाप मेरे लिए निष्फल हो। व्याख्या।
प्रस्तुत पाठ में सम्यक्त्व का स्वरूप बताया गया है, और उसके पांच अतिचार भी बताए गए हैं।
जब तक सम्यक्त्व की संशुद्धि नहीं हो जाती, तब तक व्रतों की आराधना एव पालना भी सम्यक्प से नहीं हो सकती । 'दसण-मूलो धम्मो',धर्म का मूल सम्यक्त्व है । अतः बारह व्रतों के स्वरूप से पूर्व दर्शन का स्वरूप बताया गया है । बारह व्रत भी दर्शन-मूलक ही होते हैं।
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प्रथम अहिंसा अणुव्रत मूल : पढ़म अणुव्वयं थूलाओ पाणाइवायाओ वेर
मणं । . तस-जीवे-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियपंचिंदिय-जीवे संकप्पओ हणण-हणावणपच्चक्खाणं । स-सरीरं स-विसेस-पीडाकारिणो,
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