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श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
स-सम्बन्धिय स-विसेस पीड़ाकारिणो वा वज्जिऊण, जावज्जीवाए, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसो, कायसा । एयरस थूलग-पाणाइवाय वेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा पेयाला जाणियध्वा, न समायरियव्वा । तं जहा-बंधे, वहे, छविच्छेए, अइभारे, भत्त-पाण-विच्छेए । जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छा
मि दुक्कडं । अर्थ : प्रथम अणुव्रत है-स्थूल प्राणातिपात से (जीवहिंसा
से) विरत होना, अलग होना । स जीव-द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय जीवों को, संकल्प पूर्वक, मारने मरवाने का प्रत्याख्यान (त्याग) है । स्व-शरीर को विशेष पीड़ा देने वाले को, तथा स्व परिजन के शरीर को विशेष पीड़ा देने वाले को छोड़ कर, जीवनपर्यन्त दो करण तीन योग से(स्थूलहिंसा) न करूं', न करवाऊँ. मन से, वचन से, काय से। इस स्थूल प्राणातिपात-विरमणव्रत के श्रमणोपासक को (श्रमणोपासिका को) पाँच अतिचार प्रधान (मुख्य) जानने योग्य हैं, (किन्तु) आचरण
के योग्य नहीं हैं। १, श्राविका 'समणोवासियाए' पाठ याद करे
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