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________________ ख्यिा ७७ व्याख्या : ब्रह्मचर्य : ____ ब्रह्मचर्य सब तपों में सबसे बड़ा तप है । ब्रह्मचर्य, शील और सदाचार जीवनविकास के लिए आवश्यक है । ब्रह्मचर्यव्रत सदाचार के लिए है, और सदाचार ही जीवन की आधारशिला है । मनुष्य के पास विद्वता हो या न हो, उसके पास लक्ष्मी हो या न हो, परन्तु उसमें सदाचार अवश्य होना चाहिए । Not education,but charac ter is man's greatest need and man's greatest saf eguard. शिक्षण नहीं, पर चारित्र ही मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता है, और सदाचार से ही मनुष्य की रक्षा होती है। काम वा सना से मनुष्य के अध्यात्म-जीवन का विनाश हो जाता है । अतः वासना पर संयम रखने के लिए ब्रह्मचर्य को आवश्यक्ता है । गृहस्थजीवन में पूर्णरूप से ब्रह्मचर्य का पालन शक्य नहीं है । अतः उसे स्व-दारसन्तोष व्रत और स्त्री को स्वपतिसन्तोषव्रत का पालन करना चाहिए। चतुर्थ अणवत: चतुर्थ व्रत है-स्थूल मैथुन (संभोग) से विरत होना,पुरुष को स्वपत्नी में सन्तोष रख कर,स्त्री को स्व-पति में सन्तोष रखकर अन्य सब प्रकार के मैथुनों का त्याग करना । स्वदार-सन्तोष-व्रत की साधना करने वाले गृहस्थ की वासना सीमित हो जाती है, जिससे वह असीम कामेच्छा से बच जाता है । उक्त व्रत का पालन करने से दाम्पत्य-मर्यादा भी सुरक्षित होती है। पति एवं पत्नी में परस्पर विश्वास पैदा होता है । प्रस्तुत व्रत के भी चार दूषण हैं-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । अनाचार में व्रतभङ्ग हो जाता है, अतिचार में व्रत देशनः खण्डित होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
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