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श्रावक प्रतिक्रमणे-सूत्र
देना चाहिए। यदि कोई अन्य अतिथि भी आए, तो उसका भी योग्य आदर होना चाहिए । गृहस्थ के द्वार पर से यदि कोई व्यक्ति भूखा एवं निराश लीट कर जाता है, तो यह समर्थ गृहस्थ के लिए एक पाप है । अतिथिसंविभाग-व्रत इसी पाप से बचने के लिए है। अतिथि-संविभागवत :
द्वादशवां अतिथि,संविभाग व्रत है-द्वार पर आए अतिथि का अपने भोजन आदि में से विभाग करना । मनुष्य संग्रह हा संग्रह न करता रहे साथ में देना भी सीखे । लेने के साथ देना भी आवश्यक है । प्रस्तुत व्रत में त्याग की शिक्षा दी गई है । मनुष्य को अपनी सम्पत्ति आदि का व्यामोह होता है और निरन्तर संगह भी करता रहता है। परन्तु यदि त्यागना नहीं सीखेगा, तो फिर वह जीवन पवित्र को केसे बनाएगा? परिग्रह का बन्धन संसार में सब से बड़ा बन्धन है । त्याग के द्वारा उस बन्धन को तोड़ना, यही उद्देश्य प्रस्तुत व्रत का है । इसमें दान देने की शिक्षा दी गई है। अतिचार:
अतिथिसंविभाग व्रत का मुख्य सम्बन्ध त्यागी साधु से है । अतः तत्सम्बन्धी पांच अतिचार है, जो श्रमणोपासक को जानने योग्य तो हैं,.
कन्तु) आचरण के योग्य नहीं हैं। वे इस प्रकार हैंसचित्त-निक्षेप :
जो पदार्थ अचित्त होने के कारण मुनि के ग्रहण करने के योग्य है, उस को सचित्त पदार्थों पर रख देना, जिससे कि सचित्त-संस्पर्श का भी त्यागी होने से मुनि ग्रहण न कर सके । सचित-परिधान:: ___ सचित्त पदार्थ को सचित्त पदार्थ से ढकना, यह भि उत्त का वृत दुषण है।
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