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________________ व्याख्या ११६ अर्थ : द्वादशवाँ अतिथि-संविभाग व्रत है-श्रमण निर्ग्रन्थ को अचित्त (प्रासुक) तथा एषणीय (कल्पनीय) भोजन, पानी, खादिम (खाने योग्य), स्वादिम (स्वाद योग्य) वस्त्र, प्रतिग्रह (पात्र), कम्बल, पाद-प्रोञ्छन (पर पोंछना, प्रातिहारिक (जो वस्तु गृहस्थ को वापिस लोटाई जा सके ऐसे) पीठ, फलक (पट्टा), शय्या (वसति आदि), संथारा (घास का बिछौना मादि), औषधि, भैषज्य (अनेक औषधियों का एक संमिश्रण) आदि का प्रतिलाभ (दान) देना ।। इस बारहवें अतिथिसंविभागवत के पांच अतिचार श्रमणोपासक को जानने योग्य हैं, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं है। जैसे कि-अचित्त वस्तु को सचित्र वस्तु पर रखन अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु से ढांकना काल क अतिक्रमण करना, अपनी वस्तु को (न देने की इच्छा से) दूसरे की बताना, मत्सरभाव से (ईभिाव से। दान देना । जो मने दिवस सम्वन्धी अतिचार किए हों, तो उसका पाप मेरे लिए निष्फल हो । व्याख्या: अतिथि-संविभाग : अतिथि-संविभाग का अर्थ है-अतिथि के लिए विभाग करना । अतिथि का सत्कार करने के लिए अपने भोजन आदि पदार्थों में से उचित विभाग प्रदान करना-अतिथि-संविभाग है। गृहस्थ के घर का द्वार जन सेवा के लिए सदा खुला रहना चाहिए । यदि कभी साधुसाध्वी आएँ, तो भक्तिभाव के साथ उनको योग्य कल्पनीय आहार आरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
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