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________________ व्याख्या १३७ व्याख्या क्षमा, साधक-जीवन का सब से बड़ा गुण है। वह साधक ही क्या जो जरा-जरा-सी बात पर क्रोध करे। वैर-विरोध करे । लड़ाई-झगड़ा करता फिरे । बैर-विरोध की अग्नि, वह भयंकर अग्नि है, जो हृदय को मृदुता को जला डालती है । क्षमा, साधक की सब से बड़ी शक्ति है. अपार बल है। क्षमा का अर्थ है--सहिष्णुता रखना स्वयं किसी का अपराध न करना और दूसरों के अपराध को क्षमा कर देना । क्षमा के बिना साधना पनप ही नहीं सकती। प्रस्तुत पाठ में साधक संसार के समस्त जीवों को क्षमा करता है। और दूसरों से कहता है, कि वे भी मुझ को क्षमा करें। क्षमा का मूल आधार मैत्रीभाव है । परन्तु वह तभी स्थिर हो सकता है, जबकि साधक के मानस में किसी के प्रति बैर-विरोध न हो। वस्तुतः वैर. विरोध को भूल कर, सबसे प्रेम करना ही सच्ची क्षमा है। क्षमा की साधना से जीवन पवित्र बनता है। आलोचना जीवन-विकास का मूल है । अपनी भूलों को समझना, और समझ कर छोड़ना-आलोचना का तथ्य है। जो साधक अपने जीवन की शुद्धि चाहता है, उसे आलोचना के पथ पर अग्रसर होना ही होगा। निन्दा का अर्थ है-आत्म-साक्षी से अपने मन में, अपने पापों की निन्दा करना । गर्हा का अर्थ है-पर की साक्षी से अपने पापों की बुराई करना । जगुप्सा का अर्थ है-पापों के प्रति पूर्ण घृणा-भाव व्यक्त करना । जब तक पाप के प्रति घृणा न होगी, तब तक मनुष्य उससे बच नहीं सकता। इस प्रकार आलोचना, निन्दा, गर्हा और जुगुप्सा के द्वारा किया गया प्रतिक्रमण ही सच्चा प्रतिक्रमण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002714
Book TitleShravaka Pratikramana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1986
Total Pages178
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Ritual, & Paryushan
File Size6 MB
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